प्राण सत्ता का कलेवर यह कायपिंजर

January 1987

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जिस कायकलेवर में प्राणाग्नि के समुच्चय के रूप में कुण्डलिनी शक्ति साढ़े तीन कुंडलिनी का घेरा बनाये विराजमान है वह स्वयं में कम विलक्षण नहीं। हाड़मांस के इस पिण्ड को सिरजनहार की अनुपम कलाकृति कहा जा सकता है। जिसमें अनन्त अलौकिक शक्तियों का भंडार प्रसुप्त स्थिति में पड़ा है। स्थूल सूक्ष्म एवं कारण शरीरों के रूप में इसमें सक्रियता विचारणा एवं भावना निष्ठा प्रज्ञा एवं श्रद्धा जैसी विभूतियाँ विद्यमान है। इन्हें जागृत विकसित कर मनुष्य क्षुद्र से महान और नर से नारायण बन सकता है।

पंचतत्वों से बनी यह काया विश्व ब्रह्माण्ड का सबसे बड़ी विलक्षण शक्तिशाली पॉवर हाउस है। वैज्ञानिक मनीषी आइंस्टीन ने अपने शक्ति सिद्धान्त ई.एम.सी. स्क्वेयर के प्रतिवादन में बनाया है कि पदार्थ के एक परमाणु से कुल तीन लाख पचास हजार कैलोरी ऊर्जा उत्पन्न होती है। फिर मनुष्य का शरीर तो विश्व ब्रह्माण्ड में पाये जाने वाले समस्त स्थूल सूक्ष्म एवं अदृश्य कणों के समुच्चय से विनिर्मित हुआ है। औसत साठ किलोग्राम की स्थूलकाया में प्रत्यक्ष रूप में ऐ दिव्य तत्वों से बने सूक्ष्म व कारण शरीर में कितना अधिक शक्ति भंडार छिपा पड़ा है। इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। शक्ति पुँज होने के कारण ही उसे ज्योतीषांज्योति कहा गया है। शरीर माधं खलु धर्म साधनम् कहते हुए ऋषियों ने इसी काया को साधने जगाने एवं सुनियोजन लोक मंगल हेतु करने का निर्देश दिया है।

मानवी काया के जिस भी अंग अवयव पर दृष्टि डाली जाय उसी का क्रिया कलाप देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। हृदय को ही ले उसका रक्त प्रवाह नदी नाले की तरह नहीं वरन् किसी शक्तिशाली पम्प की तरह झटका देखकर बहने वाले पानी की तरह प्रवाहित होता है। एक धड़कन एक मिनट में औसत 72 आर अर्थात् एक सेकेंड के पाँच बटे छह भाग में सम्पन्न होती है। उस धड़कन में असंख्यों विद्युततरंगें निकलती हैं जिन्हें इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम हिज बण्डलकार्डियोग्राम द्वारा मापा जाता है। यही 0.83 सेकेंड की अवधि वाला अत्यन्त अल्प समय हृदय को विश्राम के लिए भी मिल जाता है।

हृदय के समान ही फेफड़े भी आजीवन कभी विश्राम नहीं लेते। वे 20 से 30 धन इंच हवा बराबर भरते निकालते रहते हैं श्वास की गति एक मिनट में प्रायः 18 से 20 बार होती है। वे शरीर को आक्सीजन प्रदान करते और दूषित वायु निकालते रहते हैं वायु कोष्ठकों की संख्या हजारों में गिनी जाती है। इन्हें सीधी रेखा में रखा जाय तो शरीर से 55 गुनी बैठती है।

गुर्दे भूरे कत्थई रंग के सेम के बीज जैसी आकृति के लगभग 150 ग्राम भारी है। प्रत्येक गुर्दा प्रायः 4 इंच लम्बा ढाई इंच चौड़ा एवं 2 इंच मोटा होता है जिस प्रकार फेफड़े वायु साफ करते हैं उसी प्रकार जल अंश की सफाई गुर्दों के जिम्मे हैं। वे अनावश्यक तत्वों को मूत्र द्वारा निकाल कर बाहर करते रहते हैं उनमें 10 लाख से भी अधिक नलिकाएँ हैं इन सब की लम्बाई कतार में रखी जाय तो यह विषुवत् रेखा के चारों ओर एक चक्कर लगा सकती है। एक घण्टे में गुर्दे इतना रक्त छानते हैं जिसका भार समूचे शरीर की तुलना में दूना होता है।

आमाशय को मोटा काम भोजन हजम करना है पर यह क्रिया अत्यन्त जटिल और विलक्षण है। इस छोटी-सी थैली को एक अनोखी रसायनशाला कहा जा सकता है। कहाँ रक्त? इस परिवर्तन में इतने प्रकार के रासायनिक पदार्थों और क्रिया कलापों का समन्वय होता है कि उसे बाजीगर जैसा कौतुक कलापों का समन्वय होता है कि उसे बाजीगर जैसा कौतुक ही कह सकते हैं इसी प्रकार आँख जैसा कैमरा एवं कान की तर शक्तिशाली ट्राँसड्यूसर साउंड फिण्टर अपने में आश्चर्यजनक है। त्वचा शरीर के सुरक्षात्मक कवच का निर्माण करती है। और ढाल की तरह उसकी रक्षा करती है। मनुष्य के शरीर की त्वचा को यदि फैलाया जाय तो वह लगभग 250 वर्गफुट जगह घेरती है। इसका कुल वजन पौने तीन किलोग्राम के लगभग है। एक वर्ग इंच त्वचा में 72 फुट लम्बा तंत्रिका जाल और 12 फुट लम्बी रक्त नलिकाएँ बिछी बिखरी रहती हैं। रोमकूप प्रायः एक पौण्ड पसीना रोज बाहर निकालते हैं साथ ही यही श्वसन की जिम्मेदारी भी संभालते हैं साँस व्यक्ति न केवल फेफड़ों से बल्कि त्वचा के माध्यम से भी लेता है। त्वचा के भीतर बिखरे ज्ञान तन्तुओं को एक लाइन में रखा जाय तो उनकी लम्बाई 450 मील होगी। त्वचा का मेलेनीन रसायन चमड़ी को गोरे, काले, पीले आदि रंगों से रंगता रहता है।

सामान्यतया त्वचा की मोटाई 0.3 से 3 मिली मीटर होती है, परन्तु कार्य व्यवहार एवं उपयोगिता के आधार पर इसकी मोटाई विभिन्न अंग अवयवों से अलग अलग होती है। सबसे पतली तह लगभग 0.5 मिलीमीटर आँखों पर होती है और सर्वाधिक मोटी परत पैर के तलवों में लगभग 6 मिलीमीटर होती है। त्वचा में अगणित छोटे छोटे रोमकूप होते हैं, जिनकी संख्या रोमों के आधार पर साढ़े तीन करोड़ बताई गई है। एनोटॉमी के आधार पर मनुष्य शरीर की त्वचा में 6 परतें हैं जिनके कार्यों में भिन्नता होती है।

सुविख्यात वैज्ञानिक डॉ. लोगन क्लेनडेनिंग ने इसे एक रोचक और रहस्यमय संरचना बताया है। उन्होंने कहा है कि त्वचा शरीर के चारों और कोई निष्क्रिय आच्छादन मात्र नहीं है वरन् यह एक सक्रिय अवयव है। त्वचा को प्रमुख कार्य स्पर्श है। इसके अतिरिक्त इस पतले से आवरण में इतनी विलक्षण क्षमताएँ भरी पड़ी हैं कि यदि उन्हें कुरेदा और विकसित किया जा सके तो वह अन्य इन्द्रियों का काम बखूबी कर सकती है। विकसित और प्रशिक्षित त्वचा स्वादेन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय श्रवण और दर्शन आदि का कार्य कर सकती है और अपनी अतीन्द्रिय क्षमता का परिचय दे सकती है। समय समय पर आये दिन त्वचा की विलक्षण सामर्थ्य के उदाहरण सामने आते रहते हैं जिनमें त्वचा से सूँघने देखने सुनने और स्वाद लेने का काम लिया जाता है चक्षुहीन व्यक्तियों की त्वचा इस सीमा तक संवेदनशील विकसित होती जाती है कि उन्हें आँखों का अभाव अनुभव तक नहीं होता।

मानव मस्तिष्क की संरचना और भी विलक्षण है। 26 वर्ग इंच वाली छोटी पिटारी बंद तीन वजनी मस्तिष्क भूत भविष्य और वर्तमान का समस्त ज्ञान अपने अन्दर समेट प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है। इसमें सम्पूर्ण ईश्वरीय क्षमता बीज रूप में विद्यमान है। मनुष्य के मस्तिष्क में 14 करोड़ कोशिका तंत्र तथा 14 अरब 5 लाख तंतु होते हैं जो ग्रे मैटर और व्हाइट मैटर नामक पीले एवं सफेद रंग के द्रव में तैरते रहते हैं। यह मस्तिष्क ही सभी शारीरिक क्रिया प्रक्रियाओं का संचालक माँसपेशियों तथा श्वास प्रश्वास भोजन पचाने जैसे नियंत्रक हैं इसके अतिरिक्त रूप, रस, गंध, स्पर्श और ध्वनियों का महासागर सदैव मनुष्य के चारों और हलराता रहता है। तथा उसमें उठने वाले तूफान मस्तिष्क से टकराते रहते हैं। मस्तिष्क इन सबको जानता पहिचानता विश्लेषण करता और अपना निर्णय सुनाता है। इसके अलावा भी नवीनतम और पुरातन स्मृतियाँ अर्जित ज्ञान सम्पदा वर्तमान जन्म और पूर्व जन्मों के संस्कार सुखद दुखद अनुभूतियाँ आदि सभी मस्तिष्कीय पिटारी में संचित रहते हैं। इसके प्रमाण भी वैज्ञानिकों ने जुटा लिए हैं।

अन्त स्रावी ग्रन्थियों और बहिस्रावी ग्रन्थियों की संरचना और कार्य प्रणाली को देखते हुए शोधकर्ताओं ने इन्हें जादुई पिटारियाँ माना है। यह ग्रन्थियाँ न केवल मनुष्य की शारीरिक बनावट में योगदान देती है, वरन् उनके चेतन और अचेतन मस्तिष्कों को रहस्यमय ढंग से प्रभावित करती हैं।

शरीरगत जीव कोशों को काया की सबसे छोटी इकाई के रूप में देखा जाता है। देखा जाय तो मनुष्य के शरीर में इन जीवकोशिकाओं का महासमुद्र ही भरा पड़ा है, जिनका 65 प्रतिशत भाग जलीय होता है ओर उसमें साइटोप्लाज्म प्रोटोप्लाज्म नाभिक जैसे जैविक तत्व तैरते रहते हैं। इन तत्वों के निर्माण कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन, नाइट्रोजन, फास्फोरस आदि तत्व भाग लेते हैं। शरीर शास्त्रियों के अनुसार मानवी काया में 6 नील (6,00,00,00,00,00,000) कोशिकाएँ होती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इनके निर्माण में भाग लेने वाले तत्वों की तथा निर्मित कोशिकाओं की सम्मिलित संयुक्त ऊर्जा का मापन भौतिक उपकरणों के माध्यम से किया जाना संभव नहीं है।

जीवकोशों के साइटोप्लाज्मा के मध्य में उसका भी एक मध्यवर्ती नाभिक होता है। एक नाभिक में 23 या 24 जोड़े गुण सूत्रों (क्रमोजोम्स) के होते हैं जिनकी इकाई को जीन्स कहते हैं। वैसे प्रत्येक जीवकोश में कुछ जीन्स की संख्या पाँच हजार से एक लाख बीस हजार जोड़े गिनी गई है। उनकी संरचना भी डी.एन.ए. और आर.एन.ए. जैसे रसायनों से हुई है। यह सूक्ष्मता की चरम सीमा है। वंशानुक्रम का सारा ढाँचा इन्हीं पर खड़ा हुआ है। पूर्वजों की अनेक पीढ़ियों का सारा ढाँचा इन्हीं पर खड़ा हुआ है। पूर्वजों की अनेक पीढ़ियों की विशेषताएँ इन्हीं जीन्स में भरी रहती हैं और वे समयानुसार विभिन्न रूपों में प्रकट होती है।

दृश्य रूप में यही प्रतीत होता है कि माता, पिता ही बालक को जन्म देते हैं तो सन्तान को उन्हीं के अनुरूप होना चाहिए। पर इस मान्यता को जीन्स में संग्रहित अनेकों माता पिता की पीढ़ियों का उत्तराधिकार जब पीछे पीछे चलता है तो उस मोटी मान्यता में कई बार असाधारण व्यवधान भी उत्पन्न होते हैं, और संतति की विलक्षणताएँ अजीब ढंग की दृष्टिगोचर होती हैं। इन्हें अध्यात्म की भाषा में पूर्वजन्मों के संग्रहित संस्कार भी कह सकते हैं।

मनुष्य जिस जीव सत्ता से बना है। उसकी सामर्थ्य देखते हुए दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। बीज से अंकुर अंकुर से पौधा और पेड़ बन जाना जिस प्रकार आश्चर्यजनक है, उससे भी अनन्त गुण पुरुषार्थ जीव को अपने आरम्भिक मुहूर्त में ही करना पड़ता है।

शुक्राणु इतना छोटा होता है कि सुई की नोक पर उसके हजारों भाई बैठ सकते हैं रतिकर्म के समय योनि में विद्युत स्पंदन उठने लगते हैं, उन्हीं की उत्तेजना से शुक्राणु अपने सहयोगी डिम्ब की तलाश में चल पड़ते हैं। इस प्रयास में उन्हें इतनी तेज दौड़ लगानी पड़ती हैं कि चीते की दौड़ भी उससे कम पड़ती है। शुक्राणु को डिम्बाणु तक पहुँचने में अपने आकार के अनुपात से इतनी लम्बी दौड़ लगानी पड़ती है जिसे एक मनुष्य द्वारा समूची पृथ्वी की परिक्रमा के समतुल्य माना जा सके।

शरीरगत अनेकों रहस्य ऐसे हैं जिनके ऊपर से पर्दा अभी तक उठ ही नहीं सका है। हारमोन वंशानुक्रम जीव कोशों की अद्भुत क्षमता अचेतन मन, भाव सम्वेदना अतीन्द्रिय क्षमता, स्वसंचालित जीवन-पद्धति, प्रभावी तेजोवलय, रासायनिक पदार्थ एवं प्राणाग्नि रूपी दैवी शक्ति पुँज क्या काम करते हैं? इसका अभी थोड़ा-सा पता चला है। पर वे विनिर्मित किस आधार पर होते हैं? इसकी मनुष्य को कोई जानकारी नहीं है। इन रहस्यों का सूत्र संचालक सूक्ष्म शरीर द्वारा होने की बात कह कर हमें मौन होना पड़ता है।

मानवी काया के संदर्भ में वैज्ञानिक लॉर्ड हर्बर्ट ने कहा है हू सो एवर कन्सीडर्स द स्टडी ऑफ एनोटॉमी केन नेवर बी एन एथिस्ट अर्थात् जो काय संरचना को जानता समझता है उसे कभी नास्तिक नहीं होना चाहिए उसे परब्रह्म की सत्ता को एक कुशल चित्रकार सृजनात्मक सत्त के रूप में स्वीकार कर मानवीकाया के स्थूल व सूक्ष्म दोनों ही घटकों का समुचित सदुपयोग कर जीवन सफल बनाना चाहिए।


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