सर्पिणी का जागरण शक्ति का ऊर्ध्वगमन

January 1987

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षटचक्रों को षट्संपत्ति भी कहा गया हैं अध्यात्म तत्व ज्ञान की भाषा में उन्हें श्रम दमन उपरति तितिक्षा श्रद्धा और समाधान नाम दिए गए है। शम का अर्थ है। शांति। उद्वेगों तनावों संतापों आवेशों का शमन। दम का अर्थ है। इन्द्रिय आवेशों का दमन एवं निरोध करने की सामर्थ्य का विकास। उपरति अर्थात् दुष्टता से दुर्बुद्धि से दुर्गुणों से जूझने का सत्साहस।

तितिक्षा अर्थात् सोद्देश्य के मार्ग में आने वाले कष्टों को धैयपूर्वक सहने की सामर्थ्य। श्रद्धा अर्थात् सन्मार्ग में सत्प्रयोजनों में प्रगाढ़ निष्ठा और विश्वास का समन्वय। समाधान अर्थात् लोभ लिप्साओं व्यामोहों और दर्पविभ्रमों से छुटकारा। वस्तुतः षटचक्रों की जागृति साधक के गुण कर्म स्वभाव को परिष्कृत करती है।

षट्चक्र वेधन एवं कुण्डलिनी शक्ति के जागरण का विज्ञान विराट ब्रह्मांड और व्यष्टिगत लघु पिण्ड के वियोग अलगाव के दूर कर परस्पर संबद्ध करने एवं मूर्च्छना को निरस्तकर प्रखर पराक्रम जगाने की एक सर्वांगपूर्ण विद्या है। आद्य शंकराचार्य ने अपने ग्रन्थ सौंदर्य लहरी में जो आठ सिद्धियां गिनाई है। वे छः चक्रों सहस्रार एवं अन्तरात्मा के जागरण से प्राप्त होती है ये सिद्धियां है। 1 जन्म सिद्धि पूर्वजन्मों कमी स्थिति का सहज आभास 2 शब्द ज्ञान सिद्धि कानों से सुने गये शब्दों के पीछे हुए उद्देश्यों का ज्ञान 3 शास्त्र सिद्धि शास्त्र वचनों का वास्तविक ज्ञान 4 सहनशक्ति कठिनाइयों एवं आपत्तियों का सामना करने की सिद्धि सामर्थ्य 5 ताप शक्ति आक्रोशों प्रकोपों को सहन करने की सामर्थ्य 6 शाप शक्ति वाक् सिद्धि शाप या वरदान देने की शक्ति 7 विद्याशक्ति जिन विधाओं को दूसरों से पढ़कर जाना जाता है। उनका भीतर से स्मरण 8 विज्ञान शक्ति विश्वब्रह्मांड के गुह्य रहस्यों को जानने की क्षमता। वस्तुतः भगवान शंकर ने अपने कुण्डलिनी स्तवन में तो भाव भरे शब्दों में यह कहा है। कि मैं अबोध बालक जो कुछ भी बन सका हूँ तुम्हारे अनुग्रह और पयपान से ही बना हूँ।

कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन अन्यान्य धर्मावलंबियों ने भी किया है। इनमें मुख्यतः सूफी भारतीय दर्शन के अधिक समीप रहे दाराशिकोह जो कि सूफी मत को मानने वाला था उपनिषदों का अच्छा−खासा विद्वान था। उसने तंत्र व योग ग्रन्थ भी पढ़े तथा उनका फारसी में भाष्य किया। उसने कुण्डलिनी शक्ति की चर्चा अपनी पुस्तक साला ए हुक्मनामा में की है। जहाँ तीन केंद्रों का दिल ए मुदव्वर दिल ए सनोबरी एवं दिल ए निलोफरी नाम से वर्णन आता है। से मूलतः ब्रह्मग्रंथि विष्णुग्रंथि रुद्रग्रंथि है। इन्हें सहस्रार अनाहत एवं मूलाधार के समकक्ष माना जा सकता है। शेख मुहम्मद इकबाल ने अपनी पुस्तक द डेवलपमेण्ट ऑफ मेटाफिजिक्स इन पशिया में एक से अनेक संदर्भों का वर्णन किया है। जो बताते है। कि हिन्दू अध्यात्म दर्शन किस सीमा तक अन्यान्य मतावलंबियों के लिए गहन रुचि का विषय रहा है। अल बिरुनी नामक विद्वान ने तो पातंजलि योगसूत्र एवं साँख्य सूत्रों का ग्यारहवीं शताब्दी में अरबी भाषा में अनुवाद तक किया था।

तिब्बती ग्रंथों में मानवी काया में प्रमुख ऊर्जा केंद्रों की स्थिति मस्तिष्क गला हृदय सोलर प्लेक्सस और जननांगों के मध्य में मानी गई है। ग्रीक साहित्य में भी मनुष्य शरीर में 6 ऊर्जा केंद्रों को चक्र या कमल कहा गया है। मूर्धन्य शरीर शास्त्रियों चिकित्साविदों ने उनकी संगति विद्युतप्रवाह एण्डोका्रइन ग्लैंड्स एवं अन्यान्य आटोनॉमिक गैगलिया से बिठाई है। जापानी पद्धति में जो स्थान एवं आकार व्यूसोस नाम से बताये गये है। वह धारणा भी ग्रंथियों व चक्रों से समानता खाती है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक बेजामिन वाकर ने अपनी पुस्तक एनसाइक्लोपीडिया ऑफ एसोटरिक मैन में कहा है कि अंतःस्रावी ग्रन्थियों से नि सत रस धारा एवं चक्रों से उत्सर्जित ऊर्जा मनुष्य उत्थान पतन के निर्धारण एवं गुण कर्म स्वभाव तथा व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करती है।

कुण्डलिनी प्राणाग्नि है। जिसे पा्रणकुण्ड जननेन्द्रिय मूल में प्रसुप्त चिनगारी की तरह जब प्रज्ज्वलित किया जाता है। तो छहों लोकों को वेधती हुई वह सातवें ब्रह्म लोक में पहुंच जाती है। वहां उसका स्वरूप ब्रह्माग्नि का हो जाता है। प्राणाग्नि शरीरगत ओर मनोगत विशेषताओं को उभारती है। ओर सोम वर्षा करती है। देवता और ऋषि अवी सोम का पान करते हैं। ब्रह्मर्षि गण परमात्मा में आत्मा को हवन करके जीव और ब्रह्म के महत्व अदेय स्थिति एकत्व स्थापित कर देते हैं। इस अध्यात्म यज्ञ का वर्णन विस्तारपूर्वक किन्तु संयत रूप में किया गया है। और इसे आत्म यज्ञ कहा गया है।

प्राणाग्नि शरीर सत्ता की भौतिक क्षमताओं को अन्तरात्मा में दिव्य विभूतियों के रूप में खींच बुलाती है। अमृत रूपी सोम का रसास्वादन कराती है। क्षुद्रता को महानता में परिवर्तित कर देती है।

कुण्डलिनी शक्ति है। ओर सहस्रार शिव। शिव और शक्ति के समन्वय से दो वरदान उत्पन्न होते है। सद्बुद्धि के अधिष्ठाता गणेश और शक्ति के पुंज कार्तिकेय साधक शरीर को वैश्वानर महामाया से भरा पूरा देखता है। और ब्रह्मरंध्र में दिव्य चेतना का अजस्र अनुदान गंगावतरण की तरह प्रत्यक्ष दृश्यमान होने लगता है। इन्हीं का समन्वय पृथ्वी निवासियों के लिए सोम बन जाता है। और स्वर्ग में निवास करने वालों के लिए अमृत। अध्यात्म तत्वज्ञान में सोम और अमृत को एक ही स्तर की दो वस्तुएं माना गया है।

मानवी मस्तिष्क जहाँ सहस्रार स्थित माना जाता है। प्रत्यक्ष देखने में खोपड़ी के अस्थि सम्पुट में भरा हुआ थोड़ा-सा लिबलिबा पदार्थ मात्र है। किन्तु उसकी वास्तविक महिमा ओर गरिमा अतीव विस्तृत है। उसका एक बड़ा भाग साइलेझट या डार्क एरिया कहलाता है। जो मस्तिष्क का 78 से 93 प्रतिशत भाग होता है। चेतन और अचेतन मस्तिष्क दोनों मिलकर जितना क्षेत्र घेरते हैं। साइलेण्ट ऐरिया अर्थात् दाया पेराइटल काटेक्स कार्पस कैलोजम एवं लिम्ब्कि सिस्टम इत्यादि का उससे कही अधिक व्यापक क्षेत्र है। दिव्य शक्तियों के केन्द्र इसी में है। मनोविज्ञान शास्त्र चेतन अचेतन की ही खोजकर सकता है। यह सुपर चेतन अभी उनकी समझ और पकड़ से बाहर है।

कुण्डलिनी योग मूलतः हठयोग के अंतर्गत आता है। हठ योग तंत्र विद्या के अधिक समीप बैठता है। इसका कारण मोहन उच्चाटन वशीकरण आदि ऐसी विद्याएँ है जिनके सहारे किसी पर आक्रमण भी किया जा सकता है। और उसे हानि भी पहुंचाई जा सकती है।

इंग्लैंड की स्काटलैण्ड यार्ड गुप्त पुलिस के अफसर रॉबर्ट फेबियन जब अफ्रीका में थे तो वहाँ उन्होंने तांत्रिकों के भयंकर प्रयोग देखे जिनमें कई प्राण घातक प्रयोग थे। अपनी पुस्तक में उन्होंने इन प्रसंगों को विस्तारपूर्वक प्रकाशित किया है।

इसलिए इन साधनाओं का थोड़ा-सा सौम्य भाग ही प्रत्यक्ष उपचारों में देखने में आता है। शेष को गोपनीय रखा गया है। ताकि किसी कुपात्र के हाथों यह प्रयोग लग जाने पर वह उनके माध्यम से अनर्थ न करने पाए। जिस बारूदी सुरंग से पहाड़ की चटाने तोड़कर सुविधाजनक रास्ता बनाया जा सकता है। उसी से किसी विद्यालय या अस्पताल मल्टी स्टोरिड बिल्डिंग को गिराया भी जा सकता है। गुह्य विद्याओं को गोपनीय रखने का प्रचलन इसलिए है कि उनके द्वारा अनर्थ न होने पाए। समुद्र मथन का एक उपाख्यान पुराणों में आता है। जिसमें देवता और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया था ओर फलस्वरूप चौदह बहुमूल्य रत्न निकले थे। इस कथानक की संगति कुण्डलिनी योग के साथ पूरी तरह बैठती है।

कुण्डलिनी के यौन गह्वर में एक तलछट कुण्ड बताया गया है। यह कूर्म है। जिस मदिरांचल की रई मथने के लिए बनाई गई थी सर्प की रज्जु बनाकर मथा गया था। वह इड़ा पिंगला के साढ़े तीन सपिल घेरे है। मंथन से घर्षण से ऊर्जा उत्पन्न होती है। काम कौतुक में भी मंथन होते हैं। और कुण्डलिनी योग में भी प्राण मंथन। इसमें से विष भी निकल सकता है। और अमृत भी। इस गहस्य विद्या का यदि ताँत्रिक वामाचार में प्रयोग करके किसी को हानि पहुंचायी जाय तो वह विष हुआ और यदि आत्म कल्याण विश्व कल्याण के लिए प्रयोग किया जाय तो वह अमृत है। सज्जन सदुपयोग करते है। और दुर्जन दुरुपयोग। इसलिए उसे जननेंद्रिय आच्छादित रखने और आवरण से ढके रहने का भी विधान है।

सोती सर्पिणी जगाने वाले की ओर ही सर्वप्रथम लपकती है। और उसी को उटक्र हैरान करती है। दुरुपयोग हैरान करने सर्प को छेड़ने के समान ही है। चमत्कार दिखाने के लिए किसी का अनिष्ट करने के लिए अनगढ़ लोग उसे प्रयुक्त कर बैठते है। साधक की कामोत्तेजना भी बढ़ जाती है। और वह उस आवेश में व्यभिचाररत भी हो सकता है।

हैनीर आँस्ले की पुस्तक नोट्स ऑन स्प्रिचुअल फिजियोलॉजी में लिखा है। कि नर नारियों में कामोत्तेजना मेरुदण्ड के निचले भाग सेक्रो काक्सीजियल रीजन से उत्पन्न होती है। उस क्षेत्र की शिथिलता और उत्तेजना पर कामुकता बहुत हद तक निर्भर है इस क्षेत्र में गड़बड़ी पड़ जाने पर कोई भी अति कामुक या नपुंसक हो सकता है। इसीलिए मूलाधार बंध शक्तिचालिनी मुद्रा वज्रासन व पद्मासन इत्यादि द्वारा इस क्षेत्र को सशक्त बनाने का योग साधनाओं में प्रावधान रखा गया है। इन उपचारों द्वारा कुण्डलिनी साधना में प्रवाह को ऊर्ध्वगामी बनाना पड़ता है। अनयथ वह अधोगामी होकर धातुओं का अनावश्यक क्षरण कर साधक को अल्पायु में ही वृद्ध सदृश अशक्त बना सकता है।

कुण्डलिनी का शब्दार्थ है घेरा मारकर बैठना सर्पिणी मारकर बैठती है। तो भी उसका फन ऊँचा रहता है। यही उसका अग्रभाग है दौड़ना वह यहीं से आरम्भ करती है। और जगने के पश्चात वह ब्रह्मरंध्र के सहस्रार से मस्तिष्क के गे्रमेटरन से जागृति केन्द्र स्फुल्लिंग के फव्वारे रेटीकूलर एक्टीवेटिंग सिस्टम से जाकर चिपटती है। इसी विज्ञान ओर विधान को शिव मंदिरों में स्थापित प्रतिमाओं में दिखाया जाता है। कुण्डलिनी वह है। जिसमें जल भरा रहता है। शिव का स्वरूप कैलाश पर्वत जैसा स्फटिक लिंग जैसा गोलाकार है। वह जलहली के बीच स्थापित रहता है।

जीवात्मा भी कुण्डली मार कर बैठता है। न जाने कितनी कितनी वस्तुओं पर अधिकार जमाता है। पर वास्तविकता यह है। कि शरीर भी साध नहीं पाता। मात्र अकर्म कुकर्मों का पश्चाताप ही पीठ पर लदा रहता है।

कुण्डलिनी जागरण का एक तात्पर्य यह भी है। कि मनुष्य अहंता का दायरा छोटा करके न बैठे। निद्रा की खुमारी में ही न ऊंघता रहे। जगे और वह काम करे जिसे दूसरे संकीर्ण स्वार्थपरता में आबद्ध लोग भी जग पड़े और उस मार्ग पर चले जिस पर जागृत कुण्डलिनी सहस्रार कमल में अवस्थित सदाशिव से मिलने के लिए जाती है और साधक की साधना को सार्थक बनाती है।


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