योग का रहस्य ओर सिद्धि परिकर

January 1987

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आत्म को परमात्मा के साथ जोड़ने का नाम योग है। संख्याओं को आपस में जोड़ देने से उनका बल कई गुना कहीं अधिक हो जाता है। मनुष्य एक वानर जाति का पशु है। आदिम काल में वह वैसा ही था। न्यूगिनी में अभी भी कुछ आदिवासी ऐसे पाये गये हैं जो आदिमकालीन सभ्यता अपनाये हुए हैं। वे नर नारी नंगे रहते हैं। आहार के नाम पर जो जीव जन्तु और वनस्पति मिल जाती है, उसी से गुजारा करते हैं। सभ्य कहे जाने वाले संपर्क से दूर भागते हैं फलतः उनकी भाषा तक का भी विकास नहीं हो सका है। कुछ ही शब्द बोल पाते हैं कि संकेतों के सहारे पारस्परिक व्यवहार चलाते हैं। वैसे शारीरिक दृष्टि से वे अधिक बलवान और सर्दी गर्मी को अधिक मात्रा में सहन कर लेते हैं। मनुष्य भी एक प्रकार से ऐसे ही आदिम सभ्यता के बीच निर्वाह करता है। उसे पटे प्रजनन की लोभ मोह की गई गुजरी प्रवृत्तियों का ही अभ्यास होता है। आदर्शों को अपनाने मानवी गरिमा के अनुरूप आचरण करने में उसे अनख लगता है।

उत्कृष्ट और आदर्शवादिता की विभूतियाँ परमात्म सत्ता के साथ ही जुड़ी हुई है। मनुष्य अपने आप को उस श्रद्धा समुच्चय के साथ जोड़ लेता है तो आदिम स्थिति से ऊँचा उठकर सीय सुसंस्कारी बनने की स्थिति तक जा पहुँचता है। पति पत्नी की सघनता और सरसता मिलने से जिस प्रकार घर आँगन में ही स्वर्ग उग पड़ता है उसी प्रकार आत्म और परमात्मा का योग भी मनुष्य का स्तर ऊँचा उठकर देवोपम बना देता है। इसलिए योग साधना की महिमा गाई जाती है और आन्तरिक उत्कर्ष का महत्व समझने वाले की गति उस दिशा में बढ़ती है।

योग को दो भागों में विभक्त किया जाता है। एक बहिरंग योग दूसरा अन्तरंग योग। बहिरंग वह जिसमें शरीर संचालन के अनेक उपचार अपनाने पड़ते हैं। आसन प्राणायाम बंध मुद्रा जप हवन तीर्थ पूजन कीर्तन आदि की गणना बहिरंग योग में होती है। इसका एक नाम क्रियायोग भी है। इसी विद्या की एक शाखा हठयोग कहलाती है। इसमें क्रिया कृत्यों पर जोर दिया जाता है उनका विधान और अनुशासन ठीक प्रकार से अपनाये रहने पर जोर दिया जाता है। उसके परिणाम सुनियोजन के अनुरूप होते हैं विशेषतया स्वास्थ्य संवर्धन प्रतिभा का निखार बुद्धि कौशल आदि शरीर से सम्बन्धित अवयवों पर क्रियायोग का प्रभाव पड़ता है। मन पर भी यत्किंचित् अंकुश लगता है।

दूसरा पक्ष है अंतरंगयोग का। इसमें मन और प्राण के बिखराव को संयमशील एकनिष्ठ बनाना पड़ता है। कुसंस्कारों का परिमार्जन करना पड़ता है। और चिन्तन को उत्कृष्टता के साथ जोड़ना पड़ता है। ध्यान के अनेक पक्ष है। वे सभी अन्तरंगयोग के अंतर्गत आते हैं।

ध्यान में आमतौर से किसी कल्पित छवि के प्रति भक्ति भाव प्रकट किया जाता है और उसे निकटतम होने का अनुभव किया जाता है। इसके अतिरिक्त नादयोग सोऽहम् साधना में ध्वनि का खेचरी मुद्रा में सोमरस पान के रसास्वादन का अनुभव किया जाता है। चक्रवेधन कुण्डलिनी उतान, ग्रन्थि वेध जैसे ध्यान प्रधान अभ्यास भी अन्तरंग योग में ही गिने जाते हैं क्योंकि उन में चिन्तन को ही दिशा देनी पड़ती है। प्रत्यक्ष में क्रियायोग जैसी शारीरिक हलचलों की आवश्यकता नहीं पड़ती।

क्रियायोग का दायरा शरीर सीमा में काम करने वाली ऊर्जा अथवा सामान्य अतीन्द्रिय क्षमताओं तक ही सीमित है। इन्द्रियाँ स्थूल है। उनकी गणना शारीरिक अवयवों में होती है। उनकी शक्ति सामर्थ्य भी स्थूल ही रहती है। इन्द्रिय क्षमताओं का सूक्ष्मीकरण मात्र इतना ही करता है कि बिना उपकरणों के माध्यम से मस्तिष्क के ज्ञान तन्तु अन्य किसी इन्द्रिय के सहारे अपना काम चलाऊ रास्ता निकाल लेते हैं। जैसे आँख के न हरने पर उँगलियों से छूकर अक्षरों का एवं वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है। परामनोविज्ञान के अंतर्गत दूर श्रवण, दूर दर्शन, विचार सम्प्रेषण, आदि को ही अतीन्द्रिय क्षमता मान लिया जाता हैं यह सब मस्तिष्क का ही खेल है। अन्तर मात्र इतना ही पड़ता है कि इसमें प्रत्यक्ष माध्यमों की अपेक्षा ताप शब्द प्रकाश की ध्वनि तरंगों को पहचाने और पकड़ने की क्षमता हस्तगत हो जाती है। इसे भी भौतिक लाभ या साफल्य कहा जा सकता है। इन विशेषताओं को आध्यात्मिक मान लिया जाता है पर यह वस्तुतः वैसी है नहीं। परमात्म सत्ता के क्रिया−कलाप बड़े अलौकिक एवं रहस्यमय है। उन्हें आज की भौतिक आइन्स्टीन का विचार है कि “पार्टिकल फिजिक्स” वास्तव में लंगड़ी लूली है। वह विराट तत्व के रहस्यों का बोध नहीं कर सकती। समस्त विश्व ब्रह्माण्ड के ऊपर एक सुलझी हुई विराट चेतना है इस चेतना को परब्रह्म ईश्वर सृष्टिकर्ता या विश्व संचालक कह सकते हैं। ऋद्धि सिद्धियों का सारा परिकर इसी समष्टिगत व्यवस्था के अद्भुत क्रिया–कलापों की एक झाँकी मात्र है।

भौतिकीविद् एवं दार्शनिक सर जेम्स जीन्स का भी यही कथन है कि भौतिक जगत की समस्त घटनाएँ सामंजस्य पूर्ण है। जिन्हें हम संयोग कहते हैं उनमें मूल यही है। इनके रचने वाली अवश्य एक महान् गणितज्ञ अति सामर्थ्यवान एवं अदृश्य सत्ता है। उसे परमेश्वर कहना चाहिए एवं जगत् याँत्रिक जड़ नहीं हो कसता क्योंकि इसकी हर वस्तु हर प्राणी हर जीव जंतु में चेतना कायम है और निरंतर क्रियाशील है। इसी समष्टिगत सत्ता के साथ व्यष्टिसत्ता का जब सुनियोजित ताल में बैठ जाता है तो वह योग कहलाने लगता है।

महाभारत के अश्वमेध पर्व में वर्णन आता है कि दिव्य दृष्टि सम्पन्न सिद्ध पुरुष अपने दिव्य चक्षुओं से जीवों शरीर त्यागना उनका पुनः धारण करना तथा दूसरी योनि में प्रवेश करना आदि भली भाँति देख व जान सकते हैं। आत्मबल संपन्न लोग सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं का मनुष्य के साथ सद्भाव एवं सहयोग स्थापित कर सकते हैं। परोक्ष जगत से सीधा संपर्क बिठा लेना त्रिकाल दर्शिता की सिद्धि का ही परिचायक है।

यह समय को बाँध लेने को सिद्धि ही है जो जागृत कुण्डलिनी की फलश्रुति के रूप में दिखाई देती है। ऐसे व्यक्ति सामान्यजनों की तरह जीवन मृत्यु के बंधन से भी मुक्त रहते हैं। संत ज्ञानेश्वर के समकालीन योगी चाँगदेव की आयु योग साधना के बल से 400 वर्ष से अधिक हो चुकी थी। बाद में उन्होंने ज्ञानेश्वर जी के परामर्श पर समाधि ली। हमारे सूक्ष्म शरीर धारी गुरुदेव जो दुर्गम हिमालय में रहते हैं आयु के बंधनों से परे हैं।

महात्मा तैलंग स्वामी ने 280 वर्ष की आयु में वाराणसी में पौष शुक्ल एकादशी संवत् 1944 को शरीर छोड़ा था। उनका जन्म संवत् 1664 वि. में एक ब्राह्मण जमींदार के यहाँ हुआ था। उन्होंने पुष्कर क्षेत्र में भगीरथ स्वामी से संन्यास दीक्षा ली थी। गुरु का दिया नाम गणपति स्वामी था। किन्तु प्रख्यात नाम तैलंग स्वामी ही है। वे महान साधक योगी लोकसेवी थे। उनके जीवन की अनेक चमत्कारिक घटनाएँ प्रसिद्ध हैं। विवेकानन्द जी ने भी उनका उल्लेख किया है और ऋषि दयानन्द के समय में भी वे थे। वे योग साधना की चरम अवस्था को प्राप्त कर अगणित विभूतियों के स्वामी बने एक बार की बात है। महात्मा तैलंग स्वामी नेपाल के जंगलों में तप कर रहे थे। नेपाल नरेश सेनापति सहित शिकार को निकले। उनके प्रहार से बचकर एक व्याघ्र भागा। सेनापति ने पीछा किया। व्याघ्र तैलंग स्वामी के आश्रम में घुस गया, स्वामी जी के चरणों पर सर रखकर बैठ गया। स्वामी जी उसे सहलाने लगे। सेनापति व नरेश पीछा करते पहुँचे तो दृश्य देखकर हतप्रभ हो गये।

ये प्रसंग मात्र कौतूहल जानकारी भर तक ही सीमित नहीं है, वरन् तपश्चर्या द्वारा अर्जित सामर्थ्य द्वारा इतना कुछ हस्तगत हो सकता है। कि अदृश्य में चल रहे प्रवाहों की दिशा को मोड़ सकते भवितव्य को टाल सके और जो होने वाला नहीं है उसके बन पड़ने का माध्यम वे बन सकें। शाप वरदान देने की शक्तियाँ देवताओं के हाथ में मानी जाती है। पर ऊँचे स्तर तक पहुँचा हुआ योगी तपस्वी या सिद्ध पुरुष भी वैसा कर सकता है। जिस बिजली के तार में करेन्ट बर रहा है। उसके साथ अन्य तार जोड़ देने पर प्रवाह उसमें भी दौड़ने लगता है। परब्रह्म की देव सत्ताओं में से जो जिसके साथ जुड़ जाता है उसे उसकी समतुल्यता प्राप्त हो जाती है और वह उस क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है जिसमें परब्रह्म की देव शक्तियों का निवास है। यह प्रदेश मात्र सैलानियों जैसा नहीं वरन् भागीदारी जैसा होता है दुकान पर बैठने वाले कई भागीदारों में से हर कोई खरीद फरोख्त करता रहता है। भागीदारी में इतना अधिकार तो मिल ही जाता है, किन्तु जिनकी स्थिति घनिष्ठतापूर्वक जुड़ जाने तक नहीं पहुँची है जो मात्र भक्त उपासक या सेवक बने हुए हैं, उन्हें अपना मनोरथ प्रकट कर देने तक का ही अधिकार होता है। उसकी पूर्ति हो सके या नहीं यह मालिक की मर्जी पर निर्भर है।

बहिरंगयोग, क्रियायोग का सम्बन्ध मात्र दृश्य जगत से है। वस्तुओं को वह उगा हटा या बढ़ा घटा सकता है। गुप्त या प्रकट कर देने तक भी उसकी गति हो सकती है। किन्तु किसी के अंतःकरण में गहराई तक प्रवेश कर सकने की क्षमता उसमें नहीं होता। निकृष्टता की राह पर धकेल देना तो किसी के लिए भी संभव है। ऐसा तो चोर व्यभिचारी जुआरी व्यसनी भी कर देते हैं, किन्तु ऊँचा उठा देना बन्धनों से मुक्ति दिला देना सर्वथा दूसरी बात है। शब्दवेधी बाण ही लक्ष्य को वेधते हैं। ढेला फेंकने पर तो वह किसी भी दिशा में और कितनी ही दूरी तक जा सकता है। उस पर नियंत्रण नहीं होता। नियन्त्रित माप तोल का नहीं अनुमान लगाना एवं प्रयोग करना सधे हुए हाथों का ही काम है। किसी को किस दिशा में कितना ऊँचा उठाया जा सकता है यह निर्णय करना या उसे कार्यान्वित कर दिखाना उन्हीं का काम है, जिनकी तेल कूपों की गहराई तक उतरने की समुद्र की गहराई नापने जितनी क्षमता है ऊँचाई पर छोटी छलाँग तो कोई भी लगा सकता है पर पृथ्वी पर ऊँचाई में चढ़े हुए कवचों को वेधन करते हुए आगे के अन्तरिक्ष में प्रवेश करना गतिशील होना बहुमूल्य राकेटों के लिए ही सम्भव है। अन्तरंग योग द्वारा आत्म का परमात्मसत्ता के साथ जुड़ा हुआ संबंध ऐसी अलौकिक ऋद्धि सिद्धियों का परिचय दे सकता है। सिद्ध पुरुषों का देव मानव ही कहते हैं। उनकी विवेक भरी अनुकम्पा किसी को भी ऊँचा उठाने सुखी बनाने में सहायक सिद्ध हो सकती है। उच्चस्तरीय सिद्धियों तक इसी स्तर के लोगों की पहुँच होती है।

दृश्य जगत की तरह दूसरा सटा हुआ या घुला हुआ अदृश्य जगत भी है, जिसका आभास हम साधारणतया स्वप्नावस्था में तथा विशेष अनुभूति निर्विकल्प समाधि तक पहुँचने पर करते हैं। शास्त्रकारों ने उन्हें लोक लोकान्तर कहा है। वे सूक्ष्म स्तर के हैं। अदृश्य स्तर के हैं आकाशीय ग्रह नक्षत्र में की कोई वैसा लोक नहीं है, जैसा कि स्वर्ग, नरक, ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि के रूप में वर्णन किया जाता है। सप्त लोकों की ब्रह्माण्डीय स्थिति अदृश्य है। उन्हें नेत्रों या उपकरणों से नहीं पकड़ सकते। इन अदृश्य लोकों में अदृश्य स्तर के देव पितर सिद्ध मुक्त स्तर के जीव निवास करते हैं वहाँ की परिस्थिति पदार्थपरक नहीं संवेदनपरक है। उस वातावरण में रहने वाले आनन्द उल्लास उमंग तृप्ति, तुष्टि शान्ति का हर घड़ी अनुभव करते हैं। इन अदृश्य लोकों में ही वे पार्षद रहते हैं जिन्हें जीवन मुक्त कहा जाता है। जो ब्रह्म प्रेरणा से प्रेरित होकर संसार के असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए नियम समय तक महापुरुष उद्धारक सुधारक, अवतार आदि बन कर रहते हैं। उनका दृश्यमान शरीर अभीष्ट आयोजन पूरा होने तक ही कार्यरत रहता है। इसके बाद वह पूर्ववत् अदृश्य हो जाता है। यह परिकर भी छोटा नहीं है। पृथ्वी पर जितने मनुष्य रहते हैं उसकी तुलना में अदृश्य लोकों के निवासी अदृश्य जीवन मुक्तों की संख्या कम नहीं है। जिस प्रकार संसारी लोगों में अपने अपने ढंग की अनेक प्रतिभाएँ और सम्पदायें होती हैं, उसी प्रकार अदृश्य लोकों की अदृश्य आत्माओं में अपने-अपने स्तर की अगणित विभूतियाँ प्रमुख सिद्धियां, विशेषताएँ दिव्य सम्पदाएँ होती हैं यह वैभव उनके पास संचित ही नहीं बना रहता वरन् वे सत्पात्रों को सत्प्रयोजनों के लिए उदारतापूर्वक वितरित भी करती रहती है।

नरसी मेहता को परमार्थ के लिए धन की जरूरत पड़ी। उनके पास कुछ साधु पहुँचे, कहा हमें गाँव वालों ने आपके पास भेजा है। हम द्वारिका जी जा रहे हैं। आप सात सौ रुपये द्वारिका जी में हमें धन प्राप्त हो जाय। नरसी ने प्रभु की भेजी सहायता समझकर वह रुपये ले लिए। अपने इष्ट साँवलिया जी के नाम हुण्डी लिख दी। द्वारिका जी में साँवलिया शाह के रूप में प्रभु ने वह हुण्डी लेकर साधुओं को 700 रुपये दे दिए। वस्तुतः भगवान ही सूक्ष्म शरीर धारी आत्माओं द्वारा दिशा निर्देशन दिग्दर्शन द्वारा उच्चस्तरीय साधकों में प्रेरणा का संचार करते एवं दुःखी पीड़ितों का दुःख मिटाते हैं।

योगीराज महर्षि अरविन्द का कथन था कि विवेकानन्द की भूतात्मा उन्हें अनेक प्रेरणाएँ देती थीं। 1901 में रामकृष्ण परमहंस की आत्मा ने ही उन्हें समष्टि की साधना के लिए प्रेरित किया था। श्री “मा” किसी अदृश्य सत्ता की प्रेरणा से ही उनके पास पांडिचेरी आई थी। सुकरात हमेशा कहते थे कि उनमें एक डेमन रहता है जो उनसे सब काम मनचाहा कराता है। अपने सब कार्यों का श्रेय वे उस डेमन को हो देते थे।

थियोसोफीस्ट अन्वेषणकर्ता सी.डब्लू. लेडबीटर आजीवन परोक्ष जगत पर शोधरत रहे। उनका कथन था कि पितर आत्माएँ निर्दोष बच्चों और सज्जन लोगों की मुसीबतों में रक्षा करती हैं, तथा कई तरह से लाभ पहुँचाती हैं। एक बार भयंकर आग एक कमरे में लगी। वह पूरा जल गया। पर उसमें एक बालक पूर्णतः सोता रहा और बच गया। एक दिव्य तेज उसकी रक्षा करता रहा व आग उसे प्रभावित नहीं कर पाई। 1958 में प्रसिद्ध पत्रकार एवं लेखक बर्नार्ड हटन ने हीलिंग हैन्ड0¬स नामक पुस्तक में एक घटना का विवरण दिया है। वे स्वयं नेत्र ज्योति खो चुके थे और डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था। उन्हें मालूम हुआ कि स्वर्गीय डॉ. लैंग की प्रेतात्मा मि. चैपमेन को माध्यम बनाकर असाध्य नेत्र रोगों को ऑपरेशन द्वारा ठीक करती है। वे वहाँ गए। चैपमेन में प्रविष्ट डॉ. लैंग ने अपने हाथों के सहारे बन्द नेत्रों से बर्नार्ड हटन की आँख का ऑपरेशन किया और जख्म भर दिया। हटन की आँख ठीक हो गई।

यह विवेचन बताता है कि अन्तरंगयोग के साधक अपनी अन्तरात्मा को इतनी हल्की, इतनी स्वच्छ इतनी तीखी बना लेते हैं अदृश्य जगत में उनका प्रवेश भली प्रकार से हो सके। शरीर धारण किये रहते हुए भी अपने सूक्ष्म और कारण शरीरों को दिव्य लोकों तक पहुँचा सकें। अपने प्रयोजन के अनुरूप अदृश्य सिद्ध प्रभावों को ढूंढ़ सके। उनके साथ घनिष्ठता बढ़ा सकें और अभीष्ट अनुदानों को सरलतापूर्वक हस्तगत कर सकें। योग साधना का प्रथम चरण आत्मशोधन का है। उसके उपरान्त तो सिद्ध पुरुषों के अनुदान उन्हें सहज ही उपलब्ध होने लगते है।, जिनके सहारे आत्म कल्याण और लोक कल्याण के दोनों ही साधन सध सकते हैं। पानी जब भाप बन जाता है तो उन्मुक्त आकाश में विचरण करने की ओस या बादल बनकर कहीं भी बरस पड़ने की क्षमता उन योगीजनों को हस्तगत हो जाती है जो भटकावों में नहीं भटकते किन्हीं अनुभवी मार्ग दर्शकों के संरक्षण में निष्कंटक पथ पर चलते हैं और स्वयं धन्य बनते हुए अन्य अनेकों को धन्य बनाते हैं। कुण्डलिनी साधना में फलश्रुतियाँ इसी तथ्य पर आधारित हैं। सिद्धियों रहस्यमयी विभूतियों का विवेचन कौतूहल भर जगाने के स्थान पर उस दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा दे सके तो ही उस प्रचण्ड पुरुषार्थ की सार्थकता है।


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