लक्षद्वीप के समीप वट उद्यान में चार तपस्वी रहते थे। वे भिक्षा के लिए जल पार करके जाया करते थे साथ ही गृहस्थों को उपदेश भी करते थे। इन साधुओं में एक बहुत चतुर था। उसने पैरों पर रसायन लेप करके पानी पर चलने की कला सीख ली थी। तीन साधु तो तैर कर पार होते पर वह खड़ा होकर जल पर चलता। दर्शक उसे सिद्ध पुरुष मानने लगे, उसी के प्रवचन सुनते और उसी को अधिक सम्मानपूर्वक बहुमूल्य भिक्षा देते।
धीरे धीरे भेद खुला चतुर दर्शकों ने एक दिन चारों साधुओं के गरम जल से पैर धोने का आग्रह किया। सिद्ध पुरुष बनने वाले के पैरों का लेप छूट गया। तैरना वह जानता नहीं था। लज्जा से उसे अपनी मंडली और वह समुदाय छोड़कर अन्यत्र भागना पड़ा।
पाखंड अधिक दिनों नहीं चलता।