सात रत्न भंडारों की तिजोरी यह देव शरीर

January 1987

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यों कुण्डलिनी प्रसंग में बार -बार षटचक्रों का ही प्रसंग आता है पर वे वस्तुतः सात है। सहस्रार चक्र सहस्रदल कमल इन सब में मूर्धन्य है शीर्षस्थ है इसलिए बड़ा सूत्र संचालक एवं असामान्य मानकर सामान्यों की गणना से ऊपर उसे रखा गया है यों तो मेरुदंड में वे पाँच भृकुटि की सीध त्रिकुटी में आज्ञाचक्र एवं फिर सहस्रार के रूप में मस्तिष्क में स्थित है इसलिए उन्हें एकत्रित नहीं बिखरा हुआ ही मानना चाहिए।

सप्तलोकों का वर्णन किया जाता है उन्हें भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यम् कहा गया है इस्लाम धर्म में भी खुदा को सातवें आसमान पर अवस्थित माना गया है। ईसाई धर्म में भी इससे मिलती–जुलती ही मान्यता चिरकाल से चली आई हैं। पृथ्वी एक है पर उस पर भी रेत पत्थर वृक्ष वनस्पति खनिज पाणी वर्ग के सात समुदाय ही निवास करते हैं।

सात लोकों को ऊपर आसमान में नजर दौड़ाकर किन्हीं ग्रह नक्षत्रों में विद्यमान नहीं मानना चाहिए है न नीचे भयंकर उनकी तलाश ही करना चाहिए वे मानवी सत्ता में ही समाये हुए यदि ऊपर नीचे माना जाय तो भी ब्रह्मांड की सारी सत्ता पिण्ड में समाहित है इसलिए दूर जाने की अपेक्षा उन्हें भीतर ही ढूंढ़ा जा सकता है एवं उनसे संपर्क मिलाया जा सकता है।

आयुर्वेद के हिसाब से शरीर में सात धातुएँ है। रस रक्त त्वचा मांस अस्थि मेद शुक्र। यह सब अलग-अलग दीखते हुए भी परस्पर सघनतापूर्वक गुथी हई है इन सातों से मिलकर ही समग्र शरीर बनता है जब व्यष्टि सत्ता के संदर्भ में सात आयामों की चर्चा होती है तो लम्बाई चौड़ाई ऊंचाई से जुड़े होलोग्राफी के त्रिआयामीय प्रसंग के अलावा चौथा टाइम स्पेस का एवं पांचवां एंटीमैटर प्रति पदार्थ परोक्ष श् जगत का माना जा सकता है इसी पांचवे आयाम का व्यष्टिगत रूप छाया शरीर - अतीन्द्रिय सामर्थ्य इत्यादि के रूप में विद्यमान होता है। छठा आयाम विचारणा एवं सातवाँ भाव-संवेदना रसौ वै सः एवं बधन्मुक्ति का माना गया है जहाँ प्रथम चार जड़ सत्ता से संबंधित है वहां अंतिम तीन विशुद्ध चेतना परक आयाम है।

भगवान राम ने बाली को मारने से पूर्व एक बाण से सात ताड़ वृक्षों का वेधकर सुग्रीव को अपने पराक्रम का प्रमाण दिया था। यह सात ताड़ वृक्ष वस्तुतः सूक्ष्म शरीर के सात चक्र ही है। इनका वेधन ठीक तरह से न हो पाने के कारण ही अभिमन्यु गर्भकाल से प्राप्त अपूर्ण ज्ञान के फल स्वरूप कौरवों द्वारा रचित चक्रव्यूह में फस गया और बाहर न निकल सका। कुण्डलिनी इतनी बहुमूल्य सम्पदा है कि उसे चक्र रूपी वालों वाली तिजोरी में बन्द करके रखा गया है।

सात चक्र गणना करने पर इस क्रम से मिलते है। (1) मूलाधार (2) स्वाधिष्ठान (3) मणिपूर (4) अनाहत (5) विशुद्ध (6) आज्ञा (7) सहस्रार। यों आज्ञा चक्र के साथ ही एक बिन्दु चक्र की भी गणना होती है। इस तरह सहस्रार ब्रह्मरंध्र को उर्ध्वगमन की अंतिम परिणति सहस्रदल कमल सहस्र फन सर्प माना जाता है। वस्तुतः इसे मिलाकर मुख्य चक्र सात ही है। जिनमें नीचे के छहों का संचालक अधिपति सहस्रार ही माना गया है। जैसे कि सभी एण्डोक्राइन ग्रंथियों का मास्टर ग्लैण्ड पिट्यूटरी माना जाता है छह चक्रों को छह ऋतुओं की तरह एक श्रृंखला में पिरोया हुआ किन्तु एक दूसरे से अलग भी माना जा सकता है। इन्हें 6 मील के पत्थर भी कहा गया है। और सातवें मील पर पत्थर न लगाकर देवालय ही बना हुआ बताया गया है।

इन सात चक्रों को एक वर्ग योगी सात शरीर मानते है। (1) स्थूल शरीर फिजीकल बॉडी (2) सूक्ष्म शरीर ईथरीक बॉडी (3) कारण शरीर एस्टल बॉडी (4) मानस शरीर मेण्टल बॉडी (5) आत्मिक शरीर स्प्रिचुअल बॉडी (6) देव शरीर कास्मिक बॉडी (7) ब्रह्म शरीर डिवाइन बॉडी। प्रत्यक्ष शरीर आंखों से स्थूल रूप में देखा जाता है। इसके भीतर के अवयव छूकर या दूसरी प्रकार से जाने जाते है।

दूसरा शरीर वह है जिसमें विचारणाएं जन्म लेती है। राग देष मानापमान अपना पराया संतोष असंतोष मिलन- विछोह की कड़वी मीठी अनुभूतियाँ होती है। यह ईथरीक बॉडी जिसे थियोसोफीस्ट इथरीक डबल श् कहते है। व प्राणमय कोश के समतुल्य मानते है। जब कि वह इससे भी विस्तृत परिधि वाला क्षेत्र है। इसे ही बायोफलास के रूप में देखा व मापा जाता है। मेन विजिवल इनविजिवल के माध्यम से इसी की चर्चा लेडबीटर ने की है। इस आइडियोस्फियर भी कह सकते है।

तीसरा शरीर तर्क बुद्धि प्रज्ञा से संबंधित है। इसका विकास व्यवहार सभ्यता मान्यता अभिरुचि संस्कृति आदि से संबंधित है। मनस शरीर में कलात्मक रसानुभूतियाँ होती है। कोमल भाव संवेदनाएं जागती है। या भाव लोक है। करुणा दया उदारता आदर्शवादिता इसी शरीर में निवास करती है। चौथा शरीर मनस शरीर है। जिसमें महत्वाकांक्षाएं उभरती है और साहस- पराक्रम परिपक्व होता है। इसी आधार पर व्यक्ति अपने भविष्य का निर्माण करता है। इसके सुनियोजन से व्यक्ति महानता को एवं विकृत हो जाने से पतन को प्राप्त होता है।

पांचवां शरीर आत्मिक शरीर है। जो अतीन्द्रिय क्षमताओं का भांडागार है। अचेतन मन भी इसी सीमा में अपने पैर जमाये हुए है। छठे देव शरीर में ऋषि तपस्वी योगी संयमी बना जाता है भूसर के नाम से जाने ने वाले महामानवों का यही कार्यक्षेत्र सातवें शरीर में स्व पर का भेद मिट जाता है। आत्मवत् सर्वभूतेषु और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना जागृत होती है। आत्म स्वरूप और ब्रह्म शरीर की अनुभूति होती है। स्वर्ग मुक्ति का क्षेत्र भी यही है।

शिवपुराण में महापराक्रमी शिव पुत्र स्कन्द या कार्तिकेय जन्म की विचित्र कथा आती है। असुरता के दमन व देव सत्ता की स्थिरता हेतु शिवजी को पुत्र जन्म की आवश्यकता अनुभव हुई। देवताओं की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया गया। शिवजी का रेतस अग्नि रूप में बाहर आया। पार्वती जी उसे धारणा करने में असमर्थ थी तो वैश्वानर ने नारी रूप धारण किया और अपने गर्भ में उस अग्नि रूप रेतस को स्थान दिया। स्कन्द जन्मे तो जन्मते ही उनका प्रचण्ड तेजस देखकर असमंजस हुआ कि पोषण कौन करे पार्वतीजी का अनुभव नहीं था। जब इस कार्य को छः कृतिकाओं ने संभाला। उन्होंने ही पालपोष कर इस पुत्र को बड़ा किया। छह कृतिकाओं का दूध पीने के लिए उनके छह मुँह उत्पन्न हो गये। इसलिए कार्तिकेय को षडानन भी कहते है। समर्थ होते ही दुर्दांत दैत्यों से उनने युद्ध किया व उन्हें परास्त कर देव शासन की स्थापना की।

इस स्कन्द अवतरण को कुण्डलिनी महाशक्ति से संबंधित षट्चक्र समूह व उसके भाव वर्णन ही संभावना चाहिए। रेतस शिव की कुण्डलिनी है। और उसे धारण करने के लिए अन्तराल की वैश्वानर सत्ता का आहवार करता है। षटचक्रों छः कृतिकाओं के रूप में दूध पिलाते और आत्मिक क्षेत्र का महापराक्रमी बनकर जागृत कुण्डलिनी वाला सिद्ध साधक देव प्रयोजनों की पूर्ति करता है।

मेरुदण्ड के सूक्ष्म भाग में अवस्थित इन चक्रों को बिजली के धारक ओर वितरक ट्रांसफार्मर्स की उपमा दी जा सकती है। जिनका काम रहस्यमय ऊर्जा को सूक्ष्म जगत से आकर्षित करके स्थूल सूक्ष्म व कारण शरीरों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहना है। इन दिव्य शक्तियों का समन्वय पूज लोगस नाम से अंग्रेजी में जाना जाता है।

तंत्र विधान के अनुसार विश्व की प्रमुख शाक्त्यो को सात भागो में विभाजित किया गया है। पराशक्ति ज्ञानशक्ति इच्छाशक्ति क्रियाशक्ति कुण्डलिनी शक्ति मातृका शक्ति एवं रहस्य शक्ति। इन सबका एकीकरण ही गा्रण्ड यूनीफिकशन ऑफ फोसस नाम से जाना जाता है। जिस पर भौतिकी का अनुसंधान चल रहा है।

अध्यात्म शास्त्र में वर्णित सप्त लोक समुद्र द्वीप पर्वत आदि का वर्णन है भूगोल से इनकी संगति नहीं बैठती वस्तुतः यह अध्यात्म क्षेत्र का संरचना और क्षमता स्रोत का उल्लेख है। यह सात रत्न भंडारों की तिजोरी है। जिसमें वह सब कुछ भरा हुआ है। जिनकी प्रत्यक्ष और परोक्ष वह सब कुछ भरा हुआ है। जिनकी प्रत्यक्ष और परोक्ष जीवन में मनुष्य को आवश्यकता अनुभव होती है।


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