कुण्डलिनी साधना क्यों, किस प्रयोजन के लिए?

January 1987

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इन दिनों विश्वव्यापी विनाश संकट के घटाटोप इस तरह घिरते जा रहे हैं जिसमें मानवी सत्ता और सृष्टि के लिए अस्तित्व रक्षा का संकट उत्पन्न हो गया है। यह जितने विकट हैं, उतने ही समर्थ उनके प्रतिरोधक उपकरण चाहिए। हाथी छोटी पिस्तौल से नहीं मरता किला बिस्मार करने के लिए बाण वर्षा से नहीं, तोपें दागने से काम चलता है। वृत्तासुर का निधन वज्र बन जाने पर हुआ था। महिषासुर के लिए चण्डी का आवेश भरा आक्रोश कार्यान्वित हुआ था। पर्वत उखाड़ने के लिए हनुमान का पौरुष काम आया था। पर्वत उखाड़ने के लिए हनुमान का पौरुष काम आया था। पहाड़ उड़ाने के लिए डायनामाइट की छड़ें ही काम आती हैं। स्थिति को देखते हुए यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि रचनात्मक सामर्थ्य की ही नहीं संघर्ष के लिए काम आने वाले ब्रह्मास्त्र जैसे साधनों की भी आवश्यकता पड़ेगी।

संकट का दानवी समुदाय एकत्रित होकर संचित सभ्यता का विनाश जिस प्रकार करने पर तुला है। उन्हें यदि मनमानी करने दी जाय तो प्रलय के दृश्य प्रस्तुत हो सकते है। इनकी रोकथाम आवश्यक है। उन्हें उलटा और निरस्त किया जाना चाहिए। इसके लिए दूसरी तरह के हथियार चाहिए। ग्रंथलेखन में कागज, कलम दवात काम दे जाती हैं। रसोई बनाने में आटा दाल और ईंधन का होना पर्याप्त है। पर जब दुर्दान्त दस्युओं का सामूहिक आक्रमण हो और लूट-रक्तपात की विभीषिका सामने आ खड़ी हो तो उन्हें रोकने के लिए बारूदी हथगोलों की आवश्यकता पड़ेगी।

हमारा जीवन गायत्रीमय ही बीता है। जो समय शेष रहा है वह भी उसी में लग खप जाय तो ठीक है। आज की विभीषिकाओं से जूझने के संघर्ष प्रयोजन के लिए कोई चन्द्रगुप्त, शिवाजी, विवेकानन्द मिल जाता तो हमें निर्धारित पथ से हटकर दायें-बायें न देखना पड़ता। पर बहुत प्रयत्न करने पर भी वैसा सुयोग न बन सका। फिर भी हम निराश नहीं है। अध्यात्म शक्तियां संसार में हैं तो सही पर वे सभी सूक्ष्म शरीर में रह रही है। भौतिक प्रयत्नों के लिए स्थूल शरीरधारी चाहिए। महाभारत में पाँच देवताओं ने पाँच पाण्डवों के रूप में शरीरधारण किए थे। कुछ रीछ वानरों के रूप में कुछ हनुमान अंगद आदि बनकर प्रकट हुए। प्रत्यक्ष कामों के लिये प्रत्यक्ष शरीर चाहिए। यह ढूंढ़ तलाश करने में लम्बा समय व्यतीत हो गया। शक्ति का समुच्चय न हो तो उसका थोड़ा अंश ही सही। वह किसी देवमानव में हो तो कामचलाऊ व्यवस्था बन सकती है। हमें बीजरूप में शक्ति सँजोए ऋषि सत्ताएँ प्रज्ञापरिवार के रूप में हाथ लगी हैं। पर वे एकाकी तो निस्सार ही थीं। यदि उन्हें दिशा ने दी गयी होती तो वही शक्ति कहीं और किन्हीं ध्वंसपरक गतिविधियों में लगी होती। ऐसे में मार्गदर्शक के निर्देशानुसार एक ही उपाय शेष रहा कि बड़ी मात्रा में शक्ति उपार्जन एवं तदुपरान्त वितरण हेतु स्वयं ही आगे आया जाय और मार्ग बदलना है तो स्थिति के अनुरूप वह भी बदल लिया जाय।

तीन वर्ष पूर्व वह परिवर्तन किया गया। एकान्त साधना सावित्री साधना का अवलंबन लिया गया। मुखर और मिलनसार जीवन छोड़कर एकान्तवास की रीति नीति अपनाना सरल कार्य नहीं था। सावित्री साधना पंच कोशों के जागरण की कुण्डलिनी जागरण की साधना है इसी को सूक्ष्मीकरण एवं वेदान्त की पंचीकरण साधना नाम दिया गया है। जिस मार्ग दर्शक ने गायत्री साधना में हमें प्रवृत्त किया उसी ने सावित्री साधना में हमें प्रवृत्त किया उसी ने सावित्री साधना का विधान बताया ताकि हमारे माध्यम से अन्य अनेक प्रसुप्त देवमानवों का शक्ति जागरण हो वे वास्तविक स्वरूप को पहचानें ओर आत्मिक प्रगति के माध्यम से समष्टिगत हित साधन कर सकें।

देखा गया कि संकट उतना हलका नहीं है जिसे सौम्य प्रयासों से निपटा जाय। यह बायें हाथ से खेलने वाला खेल ने प्रतीत हुआ इसलिए दाहिने हाथ को साधना और संभालना पड़ा है। सावित्री साधना से एक कदम आगे बढ़कर कुण्डलिनी को आड़े वक्त में जगाना पड़ा। इसी को दूसरे शब्दों में महाकाली, महाचण्डी या महादुर्गा कहा जाता है। यह आवश्यक जान पड़ा कि जिस शक्ति का सुनियोजन जिन व्यक्तियों द्वारा किया जाना है।, उन्हें इस विद्या की समुचित जानकारी दी जाय। पिछले दिनों कुण्डलिनी विज्ञान का काफी अन्वेषण पर्यवेक्षण प्रयोग परीक्षण अध्ययन अवगाहन चलता रहा है। इस संदर्भ में नई पुरानी पुस्तकों में चित्र विचित्र प्रकार के उल्लेख मिलते हैं इन्हीं को जोड़ गाँठ कर नये लेखकों और प्रकाशकों ने भी कुछ लिखने छापने का प्रयत्न किया है। इस लीपापोती के प्रयास में और भी अधिक गुड़ गोबर हो गया है।

अब तक कुण्डलिनी विषय पर लिखे गये प्रतिपादनों को पढ़कर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि यह विषय आकर्षक एवं गुह्य विज्ञान से संबंधित होने के कारण अनेकों ने इस कार्य किया है, पर निज का प्रयोग या अनुभव सम्पादन करने का कष्ट किसी ने भी नहीं किया जो भी कुछ उन्होंने लिखा है, वह हठयोग के प्रारंभिक प्रयोग एवं उनकी प्रतिक्रिया मात्र हैं वह हठयोग के प्रारंभिक प्रयोग एवं उनकी प्रतिक्रिया मात्र हैं जो कि इस विद्या का एक प्रतिशत भी नहीं है। प्रयोगकर्ता यह दावा करने से भी चतुरतापूर्वक बचते रहे है कि उन्होंने अपना प्रयोजन पूरा कर लिया। आज कहीं प्रामाणिक पुस्तक मार्गदर्शन तो दूर उसके सिद्धान्त विवेचन का सही रूप प्रस्तुत करने वाली पोथी भी कहीं दीख नहीं पड़ती। हमने स्वयं को भ्रम जंजालों से बचाकर उन्हीं प्रतिपादनों को आगे बढ़ाने का एक विनम्र प्रयास किया है।

हमारी सूक्ष्म मार्ग दर्शक सत्ता जो शताब्दियों से मौजूद है, गायत्री सावित्री और कुण्डलिनी क्षेत्र में समान ज्ञान व अनुभव रखती है। उसी ने हमें परखा हुआ सिक्का समझकर गत तीन वर्षों में सावित्री साधना तथा फिर देवात्म भारत की कुण्डलिनी जागरण के अभ्यास हेतु नियोजित किया है ताकि लुप्तप्राय किन्तु अत्यन्त सशक्त विद्या का सर्वथा लोप न होने पाए। उसकी टूटी हुई कड़ियाँ जुड़ कर अपने समग्र रूप में बनी रह सकें।

गायत्री ब्रह्म विद्या है उसे आत्मिकी भी कह सकते हैं। सावित्री आत्म भौतिकी है। आती तो वह आत्म विज्ञान के अंतर्गत ही है पर उससे भौतिक लाभों का उपार्जन और साँसारिक संकटों का निवारण ही हो सकता है। दोनों ही के माध्यम से अपना या अपनों का हित साधन हो सकता है। किन्तु कुण्डलिनी की क्षमता ब्रह्माण्डव्यापी है और उसे विशेषतया तोड़ने में कार्यान्वित किया जाता है। चण्डी का क्रुद्ध रुष्ट रूप उमड़ पड़े तो उसे अनाचार की मरम्मत करने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। उसे इसी कारण असुर निकन्दिनी कहा गया है उसका जब भी प्रयोग हुआ है, दानवों आसुरीशक्तियों के विनाश हेतु ही हुआ है। इसे तलवार की तरह मारक होना चाहिए, जिसे तोड़ने मारने के लिए ही काम में लाया जा सकता है। जो बेकाबू हैं, उन्हें बलपूर्वक खींच बुलाने के लिए जिस दिशा में चाहें उसे घसीटकर ले चलने के लिए यह प्रयुक्त की जा सकती हैं यह वशीकरण विज्ञान हैं। इस मारण ओर उच्चाटन प्रधान कह सकते हैं। भस्मासुर को, सुन्द उपसुन्द को महिषासुर को इस महाकाली ने ही अपनी शक्ति से वशीभूत कर नष्ट किया था। शुम्भ निशुम्भ दुर्दान्त असुर मधुकैटभ का मर्दन उसी ने किया था। राम एवं सीता के माध्यम से रावण का एवं श्रीकृष्ण बलराम के माध्यम से पूना, कंस जरासंध जैसी आसुरी शक्तियों का नाश उसी ने किया था। यह तो शक्ति का पक्ष हुआ।

यही शक्ति जब सृजनात्मक प्रयोजनों हेतु प्रयुक्त होती है तो सृष्टि संचालिनी शक्ति बन जाती है। ज्ञानार्णव तंत्र में कहा गया है- शक्तिः कुण्डलिनी विश्वजननी व्यापार वद्धोद्यता। सारा विश्व व्यापार इसी शक्ति के माध्यम इसी शक्ति के माध्यम से एक घुमावदार उपक्रम की तरह चलता है। महाकाल की परिवर्तन प्रक्रिया इसी के माध्यम से सम्पन्न होती है। जीव को चक्र पर आरुढ़ मृतिका पिण्ड की तरह यह घुमाती है और कुम्हार की तरह आत्मसत्ता को भिन्न-भिन्न रूपों में गढ़ देती है। वस्तुतः कुण्डलिनी सृष्टि संदर्भ में समष्टि एवं जीव संदर्भ में व्यष्टि में शक्ति संचार करती है। कुण्डलिनी एक प्रकार से कास्मिक इलेक्ट्रिसिटी है जो योगाग्नि को जगाती व्यक्ति को प्राणवान समर्थ दृष्टा स्तर का बनाती है। कठोपनिषद् के यम नचिकेता संवाद में पंचाग्नि विद्या के रूप में इसी प्राणाग्नि की चर्चा हुई है जो व्यक्ति को रोग, जरा एवं मृत्यु से परे जीवन्मुक्ति की ओर ले जाती है। नाड़ी संस्थान की उत्तेजना से जो शक्ति उत्पन्न होती है, वह सामयिक क्षणिक प्रभाव का ही परिचय दे पाती है। किन्तु कुण्डलिनी चिरस्थायी है, चेतनात्मक शक्ति है जो व्यक्ति में ऊर्जा समाहित कर उसके व्यक्तित्व का कायाकल्प कर देती है।

जहाँ कास्मिक स्तर पर समष्टिगत धरातल पर कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया चल रही हो वहाँ यह मानना चाहिए कि यह अनिष्ट के निवारण एवं उज्ज्वल भविष्य के सृजन का प्रयोजन पूरा करेगी। पर ऐसे खतरनाक प्रयोग के लिए सत्पात्र तो हों। बन्दूक जब चलती है तो उसका झटका पीछे की ओर लगता है। इस महाशक्ति का प्रयोग करने वाले में इतना साहस बल और शौर्य पराक्रम होना चाहिए कि प्रहार के समय उलटकर पीछे लगने वाले झटके को सहन कर सके। अन्यथा लाभ उठाने के लिये किया गया प्रयोग हानिकारक भी हो सकता है। फिर रहस्यमयी साधनाओं को चर्चा का विषय बनाने से वह सर्व साधारण के लिए चर्चा का विषय बनती है। यही कारण है कि इन्हें गुह्य विद्या मानकर इन पर बहुधा पर्दा ही डाला जाता रहा है। जब तक कुतर्कों का सिलसिला चलता है, अहंकारी लोग अपनी मीनमेख निकालते गलतियाँ और सुधार सुझाते हैं। ऐसी दशा में साधना का मूलभूत आधार श्रद्धा ही डगमगाने लगती है और शंकित मन स्थिति में उत्तम साधना भी निष्फल बनकर रह जाती है। संभवत ऐसे ही अनेक कारणों को ध्यान में रखते हुए शास्त्रकारों ने उच्चस्तरीय साधनाओं को विशेष कर तंत्र से जुड़ी साधनाओं को चर्चा का विषय बनाने का निषेध किया है। इस संदर्भ में मार्गदर्शक द्वारा साधक की पात्रता को परखकर तद्नुसार साधना बताना आवश्यक समझा गया है। साधना क्षेत्र में पात्रता ही नहीं, साधक की आवश्यकता और परिस्थिति भी जाँचनी पड़ती है। इसके बाद ही निदान के आधार पर उपचार का तरीका रोगी व चिकित्सक दोनों के लिए लाभदायक सिद्ध होता है।

सावित्री एवं कुण्डलिनी की साधना कराने का अनुभव एवं अभ्यास कष्ट साध्य एवं तलवार की धार पर चलने के समान दुरूह होने के कारण अब लोगों ने एक प्रकार से छोड़ ही रखा है। बिना अनुभवी शिक्षक के कोई इंजीनियर कलाकार नहीं बन सकता हैं इसी प्रकार जब कुण्डलिनी साधना के प्रवीण पारंगत ही नहीं रहे तो शिक्षार्थी कहाँ से मिलें?

कुण्डलिनी जागरण शरीरगत प्राणाग्नि का प्रज्ज्वलन है और उसका लाभ निजी प्रयोजनों के लिए उठाने की परम्परा अब तक रही है। जननेन्द्रिय मूल की काम ऊर्जा को ब्रह्म ऊर्जा में मेरुदण्ड मार्ग में अवस्थित छः चक्रों का वेधन करते हुए मिलाया जाता है। इससे शिव−शक्ति का संयोग सम्मिलन होने पर सिद्धियाँ भी मिलती हैं, पर उसमें सर्पों की खिलौने जैसी सतर्कता से काम लेना पड़ता है। साँप का तमाशा दिखाने वाला सँपेरा उससे अपना कुटुम्ब तो पालता है लोगों पर अपनी प्रवीणता की छाप भी डालता है, पर साथ ही वह जोखिम से भी खेलता है किसी विषधर से पाला पड़े तो उसकी फुंसकार भर से खेल रुक जाता है, लोगों के कलेजे थम जाते हैं व जान जाने का डर रहता है।

शिव और शक्ति दोनों के गले में सर्प लिपटे हुए हैं। अलंकारिक रूप से इसी को सर्पिणी कुण्डलिनी कहा गया है। यह हठयोग का ताँत्रिक प्रयोग तो है ही छः चक्रों के वेधन से जो शक्तियाँ प्राप्त होती हैं वे न केवल प्रतिकूलताओं के निवारण हेतु अपितु सावित्री साधना का उच्चस्तरीय प्रयोग साथ जुड़ा होने से नया वातावरण बनाने के निमित्त काम भी आती है। षट्चक्र वेधन के साथ जब पंच कोशों के जागरण की प्रक्रिया भी सम्पन्न होती है तो अनेक प्रकार के सृजन प्रयोजनों में उनका उपयोग होता है। मकान बनाने हेतु ईंट, चूना लोहा, लकड़ी व श्रमिक की जरूरत पड़ती है। भोजन बनाने में ईंधन, आग बर्तन खाद्यपदार्थ और पकाने वाले की जरूरत पड़ती है। पंचरत्न प्रसिद्ध हैं। शरीर का निर्माण पंचरत्नों से व चेतना का आविर्भाव पंच प्राणों से हुआ है। यह शक्ति स्रोत जीवनी शक्ति का ही दूसरा नाम है। प्राणाग्नि का उत्तेजन कुण्डलिनी जागरण जब पंचकोशी साधना सावित्री साधना के समन्वित रूप में होता है तो उसका प्रभाव क्षेत्र अति विस्तृत हो जाता है। समस्त विश्व के सम्मुख जितनी विकट समस्याएँ अभी सामने हैं वे पहले कभी देखने में नहीं आई। अणु आयुधों का विस्तार नक्षत्र युद्ध की आसन्न विभीषिका चारों ओर संव्याप्त वैचारिक एवं पर्यावरण प्रदूषण प्रकृति का असंतुलन एवं मारक रोगों की भरमार अपराध आतंक की काली साया देखते हुए लगता है कि यह प्रयोग अब विशाल व्यापक स्तर पर करना ही अभीष्ट है। इन पर विजय पाने वाले योद्धाओं सृजन शक्तियों के प्रजनन में साधनात्मक कष्ट तो है पर उसका प्रतिफल इतना शानदार है जिसकी तुलना अब तक के पराक्रमों से नहीं की जा सकती है। वे एक नया अध्याय ही जोड़ेंगे।

प्रस्तुत अंक में दैवी प्रेरणावश एक व्यापक जनसमूह के शक्ति जागरण की प्रक्रिया हेतु किए गये प्रयोगों में से मात्र उन्हीं का रहस्योद्घाटन हो रहा है जो सर्वोपयोगी हैं विधि विधान की जटिलता में जाने की पाठकों की आवश्यकता नहीं। उन्हें तो मात्र फलितार्थ देखने व अपनी भूमिका कहाँ हो यह बात समझनी है। इस अंक व आगे भी जारी रहने वाली लेख श्रृंखला द्वारा यह स्पष्ट करने का प्रयास किया जाना है कि व्यक्ति का आन्तरिक विकास उसे इस स्थिति तक पहुँचा सकता है कि वह अपना ही नहीं अन्य असंख्यों का भी भला कर सके। इतना ही नहीं व्यापक वातावरण को आमूलचूल बदलकर नये युग का सूत्रपात कर सके। संक्षेप में इसी प्रयोग का अनुसंधान हमारी अपनी देवात्मा भारत का अनुसंधान हमारी अपनी देवात्मा भारत की कुण्डलिनी जागरण साधना के माध्यम से सम्पन्न हुआ है।


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