नव सृजन के निमित्त साधना पराक्रम

January 1987

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पुराणों में वर्णन आता है। कि संसार की तत्कालीन परिस्थितियों से क्षुब्ध होकर विश्वमित्र ने एक समानान्तर संसार बनाने का निश्चय किया और विधाता के समान इस कार्य के लिए सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए सूर्य का प्रचण्ड तप करने लगे। उनकी साधना सफल हुई। उन्होंने अपना कार्य आरम्भ किया ही था कि देवगण समानान्तर संसार बनाने से उत्पन्न कठिनाई को समझते हुए उस निश्चय का त्याग करने की प्रार्थना करने लगे उस अनुरोध में सफल हुए भी।

समानान्तर विश्व की संरचना कोई नई बात नहीं है। उसकी स्थिति पहले से ही विद्यमान है। वह अदृश्य और अनुभूति से परे है। पर है। अवश्य। उसकी सत्ता को समझा तो गया है। पर किसी का साहस उसे प्रयोग में लाने का नहीं हुआ क्यों कि उस छेड़ छाड़ से वर्तमान दुनिया का नक्शा ही बदल जाने का भय है।

परमाणु का प्रतिद्वन्द्वी ऐन्टी ऐटम पदार्थ का प्रतिद्वन्द्वी ऐन्टीमेटर विश्व का प्रतिद्वन्द्वी ऐंन्टटी यूनीवर्स। इनकी सत्ता पदार्थ विज्ञानियों ने स्वीकार कर ली है। वह काया की छाया की तरह साथ साथ ही चलती है। इससे तराजू के दो पलड़ों की तरह साइकिल के चलते पहियों की तरह बैलेन्स बना रहता है। और दृश्य मान विश्व का स्वरूप चिरकाल से यथावत बना चला आता है। उसी कारण पदार्थ में अपनी धुरी पर घूमने और अपनी कक्षा पकड़ने की क्षमता बनी हुई है। छोटे घटक अपने से बड़े शक्ति केंद्रों की परिक्रमा करते हुए विश्व व्यवस्था का एक निर्धारित क्रम चला रहे है।

पानी में भँवर हवा में चक्रवात ब्रह्मांड की पोल में ब्लैक–होल जैसी स्थितियाँ जब कभी दीख पड़ती है। तो पता चलता है। कि कोई प्रतिपक्षी शक्ति सामान्य प्रवाह में रोकथाम करके इस प्रकार के आश्चर्यजनक दृश्य उपस्थित करती है अन्यथा सीधे प्रवाह के चलते ऐसी उथल पुथल की आवश्यकता न थी। जल प्रपातों में जब ऊपर से नीचे की आर पानी गिरता ओर नीचे टकराता है। तब वहाँ भी पानी भँवर की तरह घूमता दीख पड़ता है।

इस प्रकार की सीधी को उल्टी करने वाली अगणित घटनाएं घटित होती रहती है। तूफानों में कितनी शक्ति होती है। इसका अनुमान इससे लगता है। कि वे कितने भारी भरकम मकानों को द्वीपों को चट्टानों को उठाकर कही से कहीं फेंक देते हैं। नदियों की भँवरों में नावें डूब जाती है। और समुद्री भंवरों में विशालकाय जलयानों की समाधि बन जाती है। वारमूडा जैसे ब्लैकहोल अन्तरिक्ष वायुयानों को जलयानों को ऊपर उड़ाकर अदृश्य कर देते है।

पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति और चुम्बकीय शक्ति उसके घूमने या पराक्रम करने से नहीं बनती जैसा कि समझा जाता है। वरन् नवीनतम मान्यता यह है कि पृथ्वी के समतुल्य कोई पदार्थ पिण्ड एण्टी वर्ल्ड प्रति विश्व जब घूमता है तो उसके कारण यह दोनों शक्तियाँ विनिर्मित होती है जो न केवल उसे घुमाती चलती है। वरन् उसके ऊपर एक सुरक्षा छत्र भी विनिर्मित करती है। ताकि अन्तरिक्षीय विकिरण एवं सतत् गिरती उल्काएँ धरातल तक न पहुँचने पाएँ।

अभी यह प्रतिद्वन्द्वी शक्ति छाया की तरह है। किन्तु कदाचित वह प्रति विश्व एन्टी यूनीवर्स आगे आ जाय और दृश्य जगत पीछे पड़ जाय तो ऐसी स्थिति बन सकती है जिसमें सब कुछ नया हो। पदार्थ भी नया प्राणी भी नये मनुष्य भी नये और स्वभाव तथा प्रचलन भी नये होंगे।

क्या यह संभव है। विश्वसनीय यह तथ्य है कि मनुष्य से बढ़कर और कोई नहीं यह कथन भी सही है कि भगवान ने मनुष्य को बनाया पर यह कथन भी गलत नहीं कि भगवान को मनुष्य ने बनाया। अन्य प्राणियों में से कोई भी भगवान की सत्ता नहीं समझता। मनुष्य ने ही उसे समझा है और जैसा जिसकी समझ में आया उसने उसी आकृति प्रकृति का भगवान गढ़ा है। इतना तो मानना ही पड़ेगा कि मनुष्य भगवान का युवराज है। और व्यास जी के शब्दों में एक रहस्य बताता हूँ कि इस संसार में मनुष्य से बढ़कर और कुछ नहीं अक्षरशः सत्य है।

पृथ्वी अक्सर अपनी धुरी का स्थान बदलती रहती है। पर यदि उसका सही पता लग जाय और कोई मनुष्य वहाँ पहुंच कर एक घूसा कस कर मार दे तो पृथ्वी अपनी कक्षा बदल देगी और जिस प्रकार अब 365 दिन का वर्ष होता है 24 घंटे का दिन होता है वैसा न रहेगा और न्यूनाधिक हो जायगा इतना ही नहीं तापमान में भी घट बढ़ होगी और स्थिति अबकी अपेक्षा भारी उलट पुलट के फेर में फँस जायगी।

जब एक मनुष्य की स्थूल शारीरिक शक्ति इतना कर सकती है। तो उसकी चेतना जो शरीर की तुलना में असंख्यगुनी प्रचण्ड है यदि अपनी समग्र क्षमता समेट कर कोई विलक्षण प्रहार करे तो स्थिति में कितना भयंकर परिवर्तन हो जायगा कुछ कहा नहीं जा सकता।

आज की विपन्नता भूमण्डल की संरचना में परिवर्तन चाहती हो तो ऐसी बात नहीं है। वरन् परिस्थितियों का परिवर्तन चाहती है। यह परिस्थितियां कैसी बनी कैसे बदलेगी इस प्रश्न गम्भीर विचार करते हुए घटनाक्रमों का विश्लेषण करना व्यर्थ है। गहराई में उतरने पर प्रतीत होता है। कि परिस्थितियों की निर्मात्री बन स्थिति होती है। मन आकांक्षाओं से प्रभावित होता है। आकांक्षाएं क्रिया करने के लिए विवश करती है और वे क्रियाएं ही एकत्रित होकर परिस्थितियाँ बन जाती है मन ही परिस्थितियों का निर्माता विधाता है।

इसलिए सोचना यही समीचीन होगा कि यदि आज की परिस्थितियाँ विपन्न है। तो उन्हें बदलने के लिए लोक मानस को बदला जाय। इसका भौतिक उपाय मात्र प्रचार या प्रशिक्षण रह जाता है क्यों कि यह खोखला उपाय है। नीति धर्म देशभक्ति कर्तव्य संस्कृति आदि की दुहाई देने वाले लोग ही जब अपने निजी जीवन में विपरीत प्रकार के आचरण करते है। तो विचार करने पर प्रतीत होता है कि मानसिक शिक्षण अधूरा है इसमें भी और कोई परत है जो व्यक्तित्व के वास्तविक स्तर का निर्माण करती है। चोरों को पकड़ने का दावा करने वाले ही जब चोरी करते है तो लगता है कि जानकारी मात्र से व्यक्ति ढलता नहीं। वरन् उसे ढालने वाला केन्द्र कोई ओर है वह है अन्त करण जिसे अन्तरात्मा भी कहते है। महापुरुषों के शरीर या साधन महान नहीं होते वरन् उनके अन्त करण की महानता ही उन्हें दूसरों की तुलना में कही ऊँचा उछाल देती है। यह जिस भी उपाय से उछाला बदला सुधारा जा सके उसे ही युग परिवर्तन का आधारभूत उपाय कहा जायगा।

एक दो व्यक्तियों का प्रश्न हो तो उसे प्रलोभन दबाव परामर्श अथवा कूटनीति के सहारे बदला और अभीष्ट दिशा में चलाया जा सकता है पर जहाँ 500 करोड़ व्यक्तियों के भाग्य का निर्धारण होना हो अनेक भाषा भाषी अनेक वातावरणों में पले अनेक परिस्थितियों के अभ्यस्त लोगों का सवाल है वहाँ उनकी मान्यताओं में उच्चस्तरीय संस्कारों का आरोपण आदर्शों का अवलम्बन करने हेतु तत्पर करना कितना कठिन हो सकता है। इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

ऐसे महान प्रयोजन के लिए मानवी नहीं देवी शक्ति चाहिए। मानवी शक्ति के दबाव से मनुष्य ही में हाँ भर मिला सकता है पर अन्तरात्मा के बदल जाने की बात असाधारण हैं इसे सच्चे अर्थों में युग परिवर्तन की आधारभूत शिला कह सकते है परिस्थितियाँ जब बाहरी उपाय उपचार तानाशाहों की कठोरता के काबू में नहीं आई उन्हें भी माननी पड़ी और उनसे समझौता करना पड़ा, तो फिर अन्तरात्मा के भीतर से मंथन और परिवर्तन कितना कठिन और जटिल हो सकता है इसकी कल्पना करना तक असंभव है। किन्तु यह भी स्मरण रखने योग्य है कि भगवान के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। वह कलियुग का सतयुग में बदलता है, त्रेता में धर्म राज्य की स्थापना करता है। रावण, वृत्तासुर, जैसों के मद को चूर्ण विचूर्ण करता हैं सुदामा, विभीषण, सुग्रीव, जैसे विपन्नों को सुसम्पन्न बनाता है। हारे हुए देवताओं को महाप्रलय के गर्त में डुबो देता है और सर्वव्यापी जल में से नई सृष्टि रचकर खड़ी कर देता है। वह मानवोचित विचारों को मानवी वर्चस्व की गरिमा को पुनर्जीवित करने के लिए अन्तःकरणों में भारी उथल पुथल उत्पन्न कर दे तो क्या असम्भव है? जिसके कौशल से निखिल ब्रह्माण्ड में ग्रह तारक अधर में टँगे और घुड़दौड़ लगाते हुए ऐसा क्रम चला रहे हैं, जिसे देखते हुए आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है, उसके लिए किसी भी आस्तिक का उपयोगी परिवर्तन उसके अनुग्रह से सम्पन्न हो सकना असम्भव नहीं मानना चाहिए।

इन दिनों अनजानों के लिए कोई समस्या नहीं है। वे रातभर सोते, दिन भर काम करते, अनुकूलता में हँसते और प्रतिकूलता में रोते हुए समय व्यतीत करते हैं। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त उसी घर में रहते और उन्हीं सम्बन्धियों से रूठते–मिलते रहते हैं। किन्तु जो दूरदर्शी हैं, जिन्हें कूपमंडूक से-गूलर के भुनगों से अच्छी स्थिति मिली है, उनके लिए आँखों पर दूरबीन चढ़ाने के बाद यह देख सकना कठिन नहीं है कि विभीषिकाओं की काली घटाएँ किस तरह उमड़ती घुमड़ती चली आती है।

परिस्थितियों को ही लें तो उनमें से प्रत्येक ऐसी हैं जिनकी चिन्ह पूजा के लिए कुछ उपचार तो करते हैं, पर समाधान का आदि अन्त कहीं नहीं दिखता। कारखानों में वाहनों में ताले कैसे डाले जायँ? और दिन-दिन बढ़ता हुआ वायु प्रदूषण कैसे घटे? अणुआयुधों का विस्फोटों का अणुभट्ठियों का सिलसिला कौन रोके और बढ़ते हुए विकिरण पर अंकुश कैसे लगे? बढ़ती हुई जनसंख्या को रोकने के लिए पुरुषों की एक द्वीप में और स्त्रियों को दूसरे द्वीप में बसाने का प्रबन्ध कैसे हो? नर-नारियों के साथ रहते उन्हें इतनी समझ कौन दे कि अब बच्चे उत्पन्न करना विश्व विनाश का आयोजन है। पृथ्वी रबड़ की तरह खींच कर दूनी चौगुनी कैसे की जाय कि उस पर बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप अन्न और खनिज पैदा होने लगें? इतने बादल किस प्रकार नौकर रखे जाँय जो तीन महीने की समस्या का हल करें? ऐसे शिक्षक कहाँ से आयें जो अन्य विषय छोड़कर जीवन जीने की कला और समाज के प्रति कर्तव्य निष्ठा के अनेकानेक प्रकरणों को ही आदि से अन्त तक पढ़ाते रहे? ऐसे चिकित्सालय किस प्रकार खुले जिनमें प्रकृति के अनुसरण और संयम बरतने शिक्षा देकर रोगी की चिकित्सा के साथ-साथ उनसे बचे रहने का उपाय सुझाया जाय और उसके परिपालन के लिए सर्वसाधारण को विवश किया जाय? ऐसी समाज व्यवस्था कैसे बने? जिससे शोषण, उत्पीड़न, अपहरण और प्रपंच से मुक्ति मिले और सब लोग हिल-मिल कर रहे एवं मिल बाँट कर खाँय।

इस उल्टे को उलटकर सीधा करने के लिए बड़ी बहुत पड़ी शक्ति चाहिए सो भी मानवी नहीं देवी? इसे किस प्रकार जागृत और एकत्रित किया जाय? उसे धरती निवासियों के पीछे किस तरह लगाया जाय? यह एक बहुत बड़ा काम है। सबसे बड़ी समस्या समर्थों की दिशा मोड़ने की है। चाहे धनवान हों चाहे शासक, चाहे साहित्यकार हों चाहे धर्माध्यक्ष, सभी उलटे मार्ग पर चल रहे हैं। लोक मंगल की बात तो करते हैं, पर सभी को अपने स्वार्थ साधन की पड़ी है। इस समुदाय की अपनी क्षमता ध्वंस से मोड़कर सृजन में-स्वार्थ से विरत होकर परमार्थरत हो सके तो शालीनता का वातावरण बनने में कुछ देर न लगे।

अध्यात्म विज्ञान के अनुसार उपचार मात्र एक ही रह जाता है-कठोरतम तपश्चर्या। उसी के बल पर ब्रह्मा ने नूतन सृष्टि रची थी। भागीरथ गंगा को स्वर्ग से घसीट कर धरती पर लाने में समर्थ हुए थे। वृत्तासुर के आतंक से जब देवता त्राहि-त्राहि कर उठे तो उनकी प्राण रक्षा के लिए दधिचि का अनुदान ही काम आया था। तपस्वी परशुराम ने अनाचारियों का अनेक बार धरती से उन्मूलन किया था, महर्षि दयानन्द एवं अन्यान्य समकालीन महामानवों ने पाखण्ड विराट से संपर्क जोड़ने वाला साधना पराक्रम से मोर्चा लिया था।

अब यदि परिवर्तन होना है तो वह तप से अर्जित शक्ति बल पर ही होगा। समष्टिगत संकल्प शक्ति, इच्छाशक्ति से क्रियाशक्ति के समन्वय से बलिष्ठ हुई व्यक्तित्व की सामर्थ्य, अभीष्ट सफलताएँ सहज ही खींचकर निकट से निकटतम ले आती हैं। मानवी शक्ति के अनेक रूपों में कुण्डलिनी की गरिमा सर्वोपरि है। जननेन्द्रिय मूल-मूलाधार क्षेत्र में यह निवास करती है और धारण शक्ति के अनुरूप वंश-वृद्धि करती चली जाती है। इसे एक आश्चर्य ही कहना चाहिए कि बिन्दुमात्र से एक नये प्राणी की जीवन सत्ता विनिर्मित होकर खड़ी हो जाती है। यह शरीर परिकर में सीमित रहने तक की ही स्थिति की परिणति है।

जब इस शक्ति को साधना द्वारा ब्रह्माण्ड व्यापी बनाया जाता है। तो वह असंख्यों की मनःस्थिति को उलट-पुलटकर कुछ का कुछ बना देती है। वह युग बदल सकती है, विश्वामित्र की तरह एक नई सृष्टि रच सकती है। इतिहास बताता है कि मनुष्यों के जीन्स-गुण सूत्र तक इस प्राण विद्युत के प्रहार से बदले जा सकते हैं। पुलस्त्य ऋषि के समस्त पोते रावण परिवार के दैत्य हो गए थे। बालखिल्य ऋषि दैत्य माता-पिता की सन्तान थे पर वे जन्मते ही उस वातावरण से विलग होकर बरगद का दूध पीकर उसी से पलते-बढ़ते रहे व ऋषि प्रकृति के हो गए। त्रेता में ऋष्यमूक निवासी समस्त वानर अपनी पशु प्रवृत्ति त्याग कर श्रेष्ठ मनुष्यों जैसी नीतिमत्ता और कुशलता उपलब्ध कर सके थे। ऐसी घटनाओं में प्राण शक्ति का कोई समर्थ प्रहार ही काम कर चुका होता है। युग परिवर्तन की आशा ऐसे ही उदाहरणों को देखकर की जा सकती है। ईश्वर ने प्राणियों की संरचना की है पर साथ ही युवराज मनुष्य में कुण्डलिनी शक्ति रूपी ऐसा विलक्षण शक्ति भंडार भरा है कि वह व्यक्ति विशेष ही नहीं, समष्टिगत समूह की प्रकृति में आशातीत परिवर्तन कर सके। देवात्मा भारत की कुण्डलिनी जागरण की साधना हेतु निमित्त प्रारम्भ में किसी एक को ही बनना पड़ा हो, पर है सबकी बराबर की भागीदारी। यह शक्ति जागरण युग परिवर्तन भी संभव कर सकता है।


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