षट्चक्रों की पिटारी में कैद चेतना का महासागर

January 1987

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मानवी कायसत्ता के जिस पक्ष की चर्चा पहले की गयी वह सामान्य ज्ञान की परिधि में आता है उसे यंत्र उपकरणों के माध्यम से जाना समझा जाने लगा है। यह काया का स्थूल पक्ष है। इसी का पैथोलोजिस्ट विश्लेषण करते कायचिकित्सक एवं शल्यविशेषज्ञ इसी आधार पर टूट फूट की मरम्मत करते रहते हैं।

इससे आगे जो चेतना सत्ता का प्रसंग आता है, वह स्थूल भी है और सूक्ष्म भी। स्थूल इतना कि प्राण निकलते ही सारा खेल समाप्त हो जाता है ओर क्षण भर पहले जो शरीर नाना प्रकार की हलचलें कर रहा था वही शरीर निश्चेष्ट होकर सड़ने गलने लगता है। सूक्ष्म इतना कि इसके छोटे बड़े अनेक घटक विश्व चेतना से जुड़े रहते हैं। इस ब्रह्माण्ड में भी कुछ विद्यमान है उसे अपनी क्षमता के अनुरूप ग्रहण करते एवं सतत् फेंकते रहते है। व्यष्टि चेतना ब्राह्मी चेतना का ही एक अंग होने के नाते उसी से सतत् अनुदान पाती व आदान−प्रदान का क्रम बनाए रखती है। कुण्डलिनी शक्ति के प्रसंग में जब भी चर्चा चलती है इसी सूक्ष्म चेतनसत्ता का विवेचन इस संदर्भ में किया जाता है।

मनुष्य शरीर में ऐसे अनेक केन्द्र हैं जिनमें जीवनी शक्ति प्राण ऊर्जा की बहुलता होती है। इन्हें मर्म स्थान कहते हैं तथा इनकी संख्या सात सौ बताई गयी है। इन स्थानों में प्राणशक्ति में कमीवेशी होने पर स्वास्थ्य संतुलन बिगड़ जाता है और व्यक्ति को अनेकों बीमारियाँ धर दबोचती है। चिकित्सा विज्ञान में मर्म स्थानों का विशेष महत्व बतलाया गया है। जापान और चीन में एक्यूपंचर एवं एक्यूप्रेशन चिकित्सा प्रणाली का मूल आधार यही मर्म स्थान है।

सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक के. कार्लफ्रीड ने द वाइटल सेर्ण्टस ऑफ मैन ग्रन्थ में कहा है कि मर्म स्थान पर तंत्रिका तंतु अधिक एकत्रित और सघन होते हैं तथा वे केन्द्र से एवं एक दूसरे से सम्बन्धित भी होते हैं मर्म स्थानों के अतिरिक्त शरीर में सात ऐसे प्रमुख केन्द्र हैं जिनमें प्राणशक्ति और अतीन्द्रिय क्षमताओं का अपार वैभव प्रसुप्त स्थिति में दबा पड़ा है। इन स्थानों को चक्र या प्लेक्सस कहते हैं। इन केन्द्रों में ज्ञान तन्तु अधिक मात्रा में उलझे होते हैं। स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर के मिलन स्थान पर चक्रों की उपस्थिति बताई गई है।

योरोप के प्रख्यात मनोवैज्ञानिक पैरासेल्सस ने शरीरस्थ सूक्ष्म केन्द्रों को एस्ट्रम (तारा) नाम से उन पर प्रकाश डालते हुए उन्हें शक्ति पुँज बताया है। उनके मतानुसार इन सूक्ष्म केन्द्रों के माध्यम से ग्रह नक्षत्रीय एवं ब्रह्माण्डीय शक्तियाँ मनुष्य के शरीर में अवतरित होती है।

योगाचार्यों ने चक्रों को कमल नाम से भी सम्बोधित किया है जैसे हृदय कमल नाभिकमल सहस्रार कमल आदि। अंग्रेज में इन्हें प्लेक्सस और जापानी जेन धर्म की व्याख्यानुसार क्यूसोस कहा गया है। चीन की ताओ प्रणाली में चक्रों को विश्व ब्रह्माण्ड में बिखरे हुए नर और नारी याँग ओर यिन शक्तियों के एकत्रीकरण सम्मिलन का केन्द्र बताया गया है।

सर जॉनवुडरफ ने पॉवर एज रियलिटी एवं शक्ति एवं शक्ति में वी.जी. रेले दमिस्टीरिय कुण्डलिनी में श्री दास गुप्ता ने हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलॉसफी वाँल्यूम रे में इवान्स वेण्ट्ज ने टिबेटन बुक ऑफ ग्रेट लिबरेशन में एवं एच.जी. बेन्स ने माईथोलॉजी ऑफ सोल में जिस सूक्ष्म में जिस सूक्ष्म शरीर की संरचना का वर्णन किया है वह मूलतः वही है जो योग व तंत्र पर भारतीय दर्शनकारों ऋषिगणों ने निरूपित किया है। योग कुंडल्योपनिषद् महानिर्वाण तंत्र षट्चक्र निरूपणम् ध्यान बिन्दु उपनिषद् योगर्वव तंत्र कुलाण्व तंत्र शारदातिलक इत्यादि ग्रंथों में कुण्डलिनी इड़ा पिंगला, सुषुम्ना मेरुदण्ड एवं मूलाधार सहस्रार रूपी दो केन्द्रों संबंधी जो विवेचन किया गया है उसे विज्ञान सम्मत भाषा में एक सीमा तक ही प्रस्तुत किया जा सकता है।

सुषुम्न को वैज्ञानिक स्थायी विद्युतीय द्विध्रुव केन्द्र (इलेक्ट्रीक डायपोल) मानते हैं, जिसका अधोभाग जो काडा इक्वाइना कहलाता है। ऋण आवेश युक्त है, तथा अर्ध्व वाला सेरिब्रम नामक भाग धन आवेश युक्त। काडा इक्वाइन व मूलाधार चक्र की स्थिति एक है। इसी प्रकार सेरिब्रम में विद्यमान विद्युत्स्फुल्लिंगों का फव्वारा एसेण्डिंग रेटीकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम सहस्रार के समकक्ष माना जाता है। असामान्य स्थिति में जब प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर बहता है तो इसे कामबीज से ब्रह्म बीज की महायात्रा कहते हैं, जो मेरुदंड रूप देवयान मार्ग पर पूरी की जाती है। अलंकारिक रूप से इन्हीं अंगों को विभिन्न नाम दे दिये गये हैं पर होते से सूक्ष्म विद्युत्चुंबकीय प्रवाह के रूप में ही है। वैज्ञानिक बताते हैं कि शरीर में कुल मिलाकर मोटे तौर पर एक लाख वोल्ट प्रति सेण्टीमीटर का विद्युत दबाव होता है। अन्य जीव धारियों की भाँति यह भी जननेन्द्रियों से त्वचा से श्वास मार्ग से क्रमश नित्य प्रतिदिन क्षरित होकर नष्ट होता रहता है। मात्र मनुष्य को यह सामर्थ्य विधाता से मिली है कि वह स्खलन के पतन गर्त में पड़ी आत्मसत्ता को ऊर्ध्वगामी बना सके, क्षरण को रोक सके एवं योगाभ्यास द्वारा चक्र बंधन करते हुए सहस्रार को जगाकर अपना तेजोवलय बढ़ा सके।

चक्र जैसा कि बताया जा चुका है कुल छः हैं। सातवें सहस्रार की गिनती इसमें नहीं होती। उसे सहस्र दल कमल कहा गया है। नीचे से ऊपर ये चक्र जिस क्रम में हैं व उनका एनोटॉमी से किस सीमा तक संबंध है उसका संक्षिप्त विवेचन यहाँ किया जा रहा है।

मूलाधार चक्र सुषुम्ना (स्पाइनल कार्ड की मध्य केनाल) के निचले सिरे पर मेरुदण्ड के काक्सीजियल क्षेत्र पेरीनियम में गुदा व जननेन्द्रिय के मध्य स्थित होता है। यहाँ पर काडा इक्वाइन से निकली सेक्रल नर्वरुट्ष कई गुच्छक में प्रवाहित विद्युतधारा चक्रवात के समान ऊर्जा उत्पन्न करने वाली भँवर बनाती हैं। इसी सूक्ष्म विद्युत प्रवाह को मूलाधार शक्ति कहते हैं जिसका मूल कार्य है उत्पादन प्रजनन कुण्डलिनी महाशक्ति साढ़े तीन कुण्डलियों में लिपटी यहीं सोयी पड़ी रहती है। यहाँ स्थिति प्रवाह को 4 पंखुड़ियों वाले कमल के रूप में योगीजन देखते व इन्हें 4 वृत्तियों परमानन्द सहजानन्द योगानन्द वीरानन्द का प्रतीक बताते हैं। यहाँ जो शब्द ब्रह्म के कम्पन होते हैं उससे जो शब्द की व्युत्पत्ति होती है, उसे “ल” नाम दिया गया है। इस चक्र की तन्मात्रा गंध व तत्व पृथ्वी है।

ऊपर की ओर यात्रा करते हुए अगला चक्र स्वाधिष्ठान आता है, जो मूलाधार से चार अंगुल ऊपर हाइपोगेस्ट्रियम के स्थान पर अवस्थित है। यहीं पर स्थिति प्लेक्सस सुषुम्ना के दोनों ओर स्थित सिम्पेथेटिक गैंगलियान व सुषुम्ना का नाड़ी गुच्छकों से मिलकर बनता है। इससे जुड़ा आँतरिक अंग एड्रीनल ग्रंथि है जो एड्रेनेलीन हारमोन से संबंधित है। तनाव से जूझने व प्रतिकूलताओं से मोर्चा लेने की क्षमता इसी की सक्रियता से आती है। उत्सर्जन विसर्जन इसका मूल कार्य है। किन्तु इसके जागृत होने पर बलिष्ठता व स्फूर्ति बढ़ती है। आलस्य प्रमाद अवज्ञा अविश्वास आदि दुर्गुण मिटते हैं यहाँ स्थित कमल की छः पंखुरियाँ मानी गयी हैं। बीच मंत्री ‘व’ है। इस चक्र की तन्मात्रा रस एवं तत्व जी है मूलाधार स्वाधिष्ठान दोनों ही एक समूह में आते हैं एवं इनका मिलन बिन्दु रुद्रग्रंथि कहलाता है।

तीसरा चक्र मणिपूर है। शरीर संरचना की दृष्टि से यह नाभिस्थान में मेरुदण्ड लम्बर रीजन में होता है। यहीं पर सोलर प्लेक्सस होता है। जो सिम्पेथेटिक गैग्लियान एवं वगस नर्व के नाड़ी गुच्छकों से मिलकर बनता है।

इससे जुड़ी ग्रंथि पैक्रिजयाज है, जो हारमोन्स के अतिरिक्त एन्जाइम्स बनाती है। इस चक्र के जागरण से संकल्प बल व पराक्रम बढ़ता है। पाचन क्रिया में सहायता इसका मूल कार्य है। मनोविकार घटते हैं एवं परमार्थ कार्यों में रुचित बढ़ती है। नाभि स्थित यह कमल दस दल वाला माना गया है। इसका बीज मंत्र “र” तन्मात्रा रूप (दृश्य एवं तत्व अग्नि है। इसके जागरण से शरीर की तीनों अग्नियाँ जागृत होतीं व ऊर्ध्वगमन में सहायक बनती हैं। इस चक्र से अद्भुत ऊर्जा को अपनी चक्रा। मशीन से जापान के डॉ. हिरोशिमा मोटोयामा ने मापा व ग्राफ पर अंकित भी किया है। तिब्बती इस मणपद्म कहते हैं। चौथा चक्र अनाहत है। जो हृदय के पीछे कार्डियक प्लेक्सस के स्थान पर अवस्थित माना जाता है। यहाँ सिम्पेथेटिक गैंगलियान चेन व सुषुम्ना तथा वेगस के नर्व तन्तु मिलकर एक जाल बनाते व पूरे हृदय क्षेत्र को ऊर्जा देने की भूमिका निभाते हैं। यह बार पंखुड़ियों वाला कमल माना गया है। पेसमेकर का ऊर्जा स्रोत यही है। इसे भाव संस्थान भी माना गया है। कलात्मक उमंगे रसानुभूति व कोमल संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही चक्र है। इसके जागरण से उदार सहकारिता परमार्थ परायणता “वसुधैव कुटुम्बकम्” के भाव उभरते हैं। थाइमस इससे जुड़ी ग्रंथि है। प्राण धारण एवं उसका सुनियोजन इसका मूल कार्य है। इस चक्र का बीज मंत्र ‘य” है। अनाहत नाद अथवा शब्द ब्रह्म की केन्द्र स्थली इसे माना गया है। शब्द ही इसकी तन्मात्रा एवं वायु इसका तत्व है। अनाहत व मणिपूर दोनों मिलकर सूर्य खण्ड बनाते व विष्णु ग्रंथि कहलाते हैं।

कण्ठ में विशुद्धि चक्र होता है। थाइराइड ग्रंथि तथा उसी के पीछे स्थित फेरेन्जियल व लेरेन्जियल प्लेक्सस इस से संबंधित है। इस चक्र के जागरण से अतीन्द्रिय क्षमता के प्रसुप्त बीजाँकुर फूट पड़ते हैं। यह चक्र सीधे अचेतन मन व चित संस्थान को प्रभावित कर दायें मस्तिष्क के साइलेण्ट एरिया को जगाता है। यहाँ स्थित कमल 16 पंखुड़ियों वाला है एवं इसका बीज मंत्र “हं” है।

स्पर्श इसकी तन्मात्रा एवं आकाश तत्व है। आज्ञा चक्र छठा एवं अन्तिम चक्र है जो विशुद्धि के साथ मिलकर चन्द्र समूह तथा ब्रह्म ग्रंथि बनाता है। इसका बीज मंत्र ॐ एवं तत्व मनस् है। इसे द्विदलीय कहा गया है जो पीनियल व पिट्यूटरी ग्रंथि से मिलकर बनते हैं। भ्र मध्य की सीध में ये दोनों ग्रंथियाँ हैं जो पूरे शरीर की गतिविधियों का संचालन करती हैं। इसके जागरण से दिव्य चक्षु खुल जाते हैं। लिम्बिक सिस्टम व हाइपोथेलेमस में जागृति आने से मस्तिष्क की सभी परतें खुल जाती है। व्यष्टि सत्ता समष्टि चेतना से संबंध जोड़ने में सक्षम हो जाती है।

सहस्रार कुण्डलिनी जागरण की महायात्रा का अंतिम पड़ाव है जो मस्तिष्क मध्य में इन्टरनल कैप्सूल व रेटीकूलर एक्टीवेटिंग सिस्टम में अवस्थित माना जाता है। यहाँ से स्फुल्लिंग सहस्रों की संख्या में उठते हैं। इसीलिए इसे सहस्रार कहा गया है। इसे ब्रह्म लोक एवं ब्रह्मरंध्र भी कहते है। सहस्रार उत्तरी ध्रुव है जो ब्रह्मांडीय चेतना से जुड़कर ब्रह्मानन्द की प्राप्ति कराता है। सहस्रार के जागरण का अर्थ है सारे ग्रे मैटर के केन्द्रों का जागरण सुषुम्ना नाड़ी जो मूलाधार चक्र से चलकर ऊपर बढ़ती है, अपने दोनों ओर बायें से दायें व फिर दायें से बायें इड़ा (गंगा) एवं पिंगला (यमुना) नाड़ियों को लेकर चलती है। इड़ा बायीं ओर होती है। पिंगला दायीं ओर होती है व सूर्य नाड़ी कहलाती है। एवं पॉजेटिव आवेशयुक्त होती है। दो इन के संगम स्िल है, जो सुषुम्ना रूपी सरस्वती से मिलकर मूलाधार व आज्ञा चक्र पर त्रिवेणी संगम बनाते हैं। इड़ा व पिंगला नाड़ियों पैरासिम्पेथेटिक व सिम्पेथेटिक सिस्टम का प्रतिनिधित्व करती है।

वस्तुतः कुण्डलिनी शक्ति का स्थूल एनोटॉमी की शब्दावली में वर्णन करना असंभव है। जो भी परिकल्पना विभिन्न मनीषियों ने की है उसका सार उपरोक्त वर्णन माना जा सकता है। कुण्डलिनी सर्पेण्ट पॉवर जीवनीशक्ति फायर ऑफ लाइफ न जाने कितने नामों से जानी जाती है। षट्चक्र वे धन व कुण्डलिनी जागरण से उद्भूत ऊर्जा व्यक्ति को ब्रह्मवर्चस सम्पन्न बनाती है।


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