कुल कुण्डलिनी देवि कन्दमूल निवासिनी

January 1987

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कुण्डलिनी शक्ति की तुलना विद्युत शक्ति ऊर्जा एवं आभा से की गई है। तडिल्लता समरुचिवि द्यूल्लेखे़त्र भास्वरा सूत्र में उसे बिजली की लता रेखा जैसा ज्योतिर्मय बताया गया है। इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर उसका उल्लेख तडिल्लेखा तन्वी तपनशशि वैश्वानरमयी के रूप में किया गया है। अर्थात्- वह प्रचण्ड अग्निशिखा एवं दिव्य वैश्वानर अग्नि के समतुल्य है। योग कुंडल्योपनिषद् में कहा गया है:-

मूलाधारस्य ब्रहमायात्म तेजो मध्ये व्यवस्थिता। जीवशक्ति कुण्डलाख्या प्राणाकाराय तैजसी॥

मूलाधार के मध्य वह आत्मतेज ब्रह्मतेज रूपी कुण्डलिनी निवास करती है। वही जीवनी शक्ति है। तेजरूप है। एवं प्राण शक्ति है।

इसी प्रकार महायोग विज्ञान में उल्लेख आता है मूलाधार चक्र में आत्म-ज्योति अग्नि रूप दीखती है। स्वाधिष्ठान चक्र में वह प्रवाल अंकुर-सी प्रतीत होती है मणिपूर में विद्युत जैसी चमकती है। नाभिचक्र में वह तड़ित सम प्रकाशवान् है। हृदय कमल के अनाहत चक्र में वह लिंग आकृति की कंठ चक्र में श्वेत वर्ण की तालू चक्र में शुनरुाकार एकरस अनुभूत होती है। भू चक्र में अंगूठे के प्रमाण जलती दीप शिखा-सी भासती है। आज्ञा चक्र में धमशिखा जैसी और सहस्रार चक्र में चमकते परशु-सी दीखती है।

प्रस्तुत अलंकारिक व्याख्या कुण्डलिनी महाशक्ति की विद्युतमयी सत्ता की एक झांकी देती है। वैसे वैज्ञानिक प्रतिपादनों व प्रमाणों के आधार पर हम कुंडलिनी को मानवी विद्युत का प्रचंड अंश कह सकते है। बारूद फुलझड़ी जलाने के काम भी आती है। और डाइनामाइट की तरह पहाड़ों के परखच्चे भी उड़ा देती है। मानवी विद्युत का हलका अंश चेहरे या शरीर के इर्द गिर्द फैले हुए तेजोवलय जैसे रूप में भी देखा जा सकता है। और उसका प्रचण्ड रूप तृतीय नेत्र आज्ञा चक्र खोलकर शिव द्वारा काम देव जला देने जैसा विस्फोट भी कर सकती है। दमयंती के शाप से व्याध भस्म हो सकता है। सगर राजा के हजारों उदत पुत्र जलकर भस्म हो सकते है। गौतम के कोप से इन्द्र ओर चन्द्रमा जैसों की दुर्गति हो सकती है। यादव कुल दुर्वासा के शाप से पारस्परिक कलह में नष्ट हो सकता है।यही प्रचण्ड रूप धारण करने वाली मानवी विद्युत कुण्डलिनी है। प्रकारान्तर से उसे आध्यात्मिक डाइनामाइट कह सकते है। साधारण ऊर्जा मनुष्य के कण कण में विद्यमान है। वह मस्तिष्क हृदय और जननेन्द्रिय मूल में विशिष्ट मात्रा में पाई जाती है। इन तीन अग्नियों को ही वैदिक भाषा में अहितग्नि दक्षिणग्नि गाहपत्याग्नि तीन अग्नियों के नाम से जाना जाता है। यही महाकाली महाचंडी ओर महादुर्गाएं है। सामान्य ऊर्जा दो व्यक्तियों के सान्निध्य से दीर्घप्राण वाले का प्रभाव स्वल्प प्राण वाले पर डालती है। सत्संग ओर कुसरा के रूप में इसका भला बुरा प्रभाव होता है। नर नारी का संयोग इसी ऊर्जा का क्रीड़ा कल्लोल पक्ष है। तपसी इसी योगाग्नि पर तपश्चर्या करते थे जठराग्नि भोजन पचाती और उसे वीर्य स्तर तक ले पहुँचती है। कामाग्नि से पीड़ित नर नारी दीपक की चमक पर पतंगे की तरह जल मरते है। वाणी की अग्नि शत्रु मित्र बनाती शाप वरदान देती रहती है। ओजस तेजस एवं वर्चस का आलोक व्यक्ति की प्रतिभा में फूटता हुआ परिलक्षित होता है। ब्रह्माग्नि सहस्रदल कमल में रहती है और आत्मा को परमात्मा का दर्शन कराती है। हृदय की भावाग्नि दया करुणा मैत्री सेवा आदि के रूप में प्रस्फुटित होती है। कालाग्नि मरण का निमित्त कारण बनती है। मदाग्नि से मनुष्य आलसी ओर रोगी बन जाता है।? ऐसी अनेकों अग्नियों शरीर में है। प्राकृत अग्नि विज्ञान ऐसी 13 अग्नियों का वर्णन करता है। उनके अपने प्रभाव है। इनमें से प्राणाग्नि कुण्डलिनी है। जिसके कारण जीवनी शक्ति जीवट और हिम्मत मनुष्य में फुट फूट कर भरी रहती हैं यह माना गया है। कि यह प्रसुप्त ऊर्जा स्रोत मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में 6 तालों की तिजोरी में बन्द है। ये 6 ताले ही षट्चक्र है। जो भंवर नाड़ी गुच्छक अथवा विद्युत प्रवाह के रूप में काया में अवस्थित है। शास्त्रकारों ने चक्रों एवं कुण्डलिनी की अपनी अपनी तरह से अलंकारिक व्याख्याएं की है।

शाम्भवी तंत्र का कथन है। जिस प्रकार ताली से ताला खोलकर घर में प्रवेश किया जाता है। उसी प्रकार कुण्डलिनी जागरण के उपरान्त मनुष्य सुषुम्ना मार्ग से ब्रह्मलोक पहुंचता है। तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक कहा गया है। सौंदर्य लहरी में इस महाशक्ति की व्याख्या करते हुए आद्य शंकराचार्य ने आज्ञाचक्र तथा सहस्रार को ब्रह्म चेतना का प्रतिनिधि माना है। तथा षट्चक्र वेधन करने पर कैसे कुण्डलिनी शक्ति ब्रह्मलोक तक पहुंचती व परब्रह्म से विहार करती है। इसका वर्णन इस प्रकार किया है।

मही मूलाधार कमपि मणिपूरे हतवहं स्थित स्वाधिष्ठाने हदि मरुतमाकाशमुपरि। मनोअपि भू्रमघ्ये सकलमपिभित्वा कुल पर्थ सहस्रार पदम सहरहसि पत्या विहरसि॥

अर्थात् है। कुण्डलिनी तुम मूलाधार में पृथ्वी को स्वाधिष्ठान में अग्नि को मणिपूर में जल को अनाहत में वायु को विशुद में आकाश को वेधन करती हई आज्ञाचक्र में मन को प्रकाश देती हो योगदर्शान के समाधि पाद सूत्र 36 में कहा गया है। विशोका ज्योतिष्मती उनका यह संकेत कुण्डलिनी की और है। कि इस ज्योतिष्ती के प्रकाशवान होने पर मनुष्य दुख शाको से छूट जाता है।

तैंतीस या तैंतीसकोटि देवताओं की हिंदू धर्म में मान्यता है। यह मेरुदंड में पाये जाने वाले 33 धटकों या गृटकों की और संकेत है। इन खंडों को कशेरु या र्वाटबी कहते हैं। मेरुदण्ड आकृति में सर्पाकार है। प्रत्येक दो कशेरु के मध्य में एक मास निमित्त गद्दी-सी रहती है। जिस पर प्रत्येक कशेरु टिका और सूत्रों से कसा हुआ है। इसी कारण यह अपनी धुरी पर हर दिशा में धुम सकता है। उसे पांच भागो में बाटा जा सकता है। 1 ग्रीवा सरवाइकल कशेरु 2 पीठ थोरक्स कशेरु 3 कटिप्रदेश लम्ब्र कशेरु 4 वस्तिगहवर त्रिक प्रदेश सेक्रल कशेरु 5 पुच्छिकास्थ्चिंचु काक्सीक्स कशेरु। इन तैंतीस खंडों में सन्निहित क्षमता को देवोपम माना गया है।

मेरु दण्ड पोला तो है पर ढोल की तरह खोखला नहीं उसमें मस्तिष्कीय मज्जा भरी हुई प्रत्येक कशेरु के पिछली और दायें बायें अर्धवृत्ताकार छिद्र होता है। जिसमें से छोटे नाड़ी सूत्रों से निमित्त बड़ी नाड़ियां बाहर निकलती है। मेरुदण्ड का निचला भाग शंकु के आकार का है। जिसे फाइलमत टमानेल कहते हैं।

चंचु प्रदेश के कशेरु जितने छोटे है उतने ही चौड़े है। वे अन्दर से पोले भी नहीं है। और एक दूसरे से जुड़े हुए है। ये चार कशेरु मिलकर अण्डे की आकृति वाला अथवा फूल की कली के सदृश आकार बनता है। इसे काक्सीक्स कहते है। इस गोलक को कुण्डलिनी योग में कन्द एवं स्वयं भू लिंग के नाम से पुकारा गया है।

क्षेत्रों के हिसाब से चक्रों का क्रम इस प्रकार है। 1 चंचु प्रदेश मूलाधार 2 त्रिक प्रदेश स्वाधिष्ठान 3 कटि प्रदेश मणिपूर 4 वक्षस्थल अनाहत 5 गीवा विशद चक्र। मेरुदण्ड यही समाप्त हो जाता है। आज्ञाचक्र मस्तिष्क के अग्रभाग में है। और सहस्रार मस्तिष्क के बीचों बीच।

चक्र वेधन चक्र शोधन चक्र परिष्कार चक्र जागरण आदि नामों से इन्हीं गुह्य केंद्रों की क्षमता को प्रकट करने का प्रयत्न किया जाता है।

यहाँ एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि अध्यात्म शास्त्र में शरीर विज्ञान को विशुद्ध रूप से सूक्ष्म विद्या के रूप में माना जाता है। स्थूल शरीर में तो उसकी प्रतीक छाया ही देखी जा सकती है। कभी किसी शारीरिक अंग को सूक्ष्म शरीर से नहीं जोड़ना चाहिए। मात्र उसे प्रतीक प्रतिनिधि भर मानना चाहिए। शरीर के किसी भी अवयव विशेष में वह दिव्य शक्तियाँ नहीं है। जो आध्यात्मिक शरीर विज्ञान में वर्णन की गई है। स्थूल अंगों से उन सूक्ष्म शक्तियों का आभास मात्र पाया जा सकता है।

मूलाधार शब्द के दो खंडों है। मूल आधार मूल अर्थात् जड़ बेस आधार अर्थात् सहायक सपोर्ट जीवन सत्ता का मूल भूत आधार होने के कारण उस शक्ति संस्थान को मूलाधार कहा जाता है। वह सूक्ष्म जगत में होने के कारण अदृश्य है। अदृश्यों को प्रतीक चिन्ह प्रत्यक्ष शरीर में भी रहता है। जैसे दिव्य दृष्टि के आज्ञाचक्र को पिट्यूटरी और पीनियल रूपी दो आंखों में काम करते हुए देख सकते है। ब्रह्मचक्र के स्थान पर हृदय को गतिशील देखा जा सकता है। मूलाधार सत्ता को मेरुदण्ड के सकेकल प्लेक्सस में देखा जा सकता है। अपनी चेतनात्मक विशेषताओं के कारण उसे वह पद एवं गौरव प्राप्त होना हर दृष्टि से उपयुक्त है। प्राण का उद्गम मूलाधार है। पर उसका विस्तार व्यवहार और वितरण तो मेरुदण्ड माध्यम से ही सम्भव होता है।

मूलाधार के कुछ ऊपर और स्वाधिष्ठान से कुछ नीचे वाले भाग में शरीर शास्त्र के अनुसार प्रोस्टैटे ग्लेण्ड है शुक्र संस्थान यही होता है। इसमें उत्पन्न होने वाली तरंगें काम प्रवृत्ति बन कर उभरती है। इससे जो हारमोन उत्पन्न होते है। वे वीर्योत्पादन के लिए उत्तरदायी होते हैं। स्त्रियों का गर्भाशय भी यही होता है। सुषुम्ना के निचले भाग में लम्बर और सेक्रल प्लैक्सस नाड़ी गुच्छक है। जननेंद्रियों की मूत्र त्याग तथा कामोत्तेजन दोनों क्रियाओं पर इन्हीं गुच्छाओं का नियन्त्रण रहता है। यहां तनिक भी गड़बड़ी उत्पन्न होने पर इनमें से कोई एक अथवा दोनों ही क्रियाएँ अस्त व्यस्त हो जाती है। बहुमूत्र नपुंसकता अति कामुकता आदि के कारण प्रायः यही से उत्पन्न होते है। सारी जीवनोपयोगी प्रेरणाओं को केन्द्र यही स्थान है। जिसे कन्द कुण्ड या कामबीज कह सकते हैं। कन्द का एक नाम कूर्म भी है। इसे कच्छपावतार का प्रतिनिधि माना गया है। उसे पैरों को सिकुड़ने फैलाने के कारण वहाँ से निस्सृत शक्तिधाराओं का प्रतीक माना गया है। कन्द की आकृति एक अण्डे के समान मानी गयी है। उसे हाथ पाव सिकोड़े कछुए है उपमा भी दी गई है। समुद्र मथन की कथा में रइ्र मदिरांचल पर्वत के नीचे ही भगवान कूमावतार के रूप में कच्छप बनकर बैठे थे ओर उस भार को अपनी पीठ पर उठाया था यह कूर्म यह कन्द की अंतर्जगत के मथन एवं शक्ति के ऊर्ध्वगमन के रूप में अलंकारिक व्याख्या है।

षट्चक्रों से ही संगति बिठाने वाले मनीषियों ने अन्त प्रभावी ग्रन्थियों के समूह को उनका स्थूल प्रतीक रूप माना है। उनके अनुसार नर व नारी में इन चक्रों में प्रवाहित विद्युत की ही एक मोटी स्थूल प्रतिक्रिया पुरुषोचित दढता एवं स्त्रियोचित कोमलता के रूप में विकसित हुई देखी जा सकती है। तथापि यह सामान्य जैविक क्रिया कलापों की एक झलक मात्र है। वैसे इन एण्डोका्रन ग्लैण्ड्स व उनसे निकलने वाले हारमोन्स के क्षेत्र को जादू का पिटारा कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। ये 6 हारमोन ग्रंथियां इस प्रकार है।

1 पीनियल सिरोटोनिन व मेलेटोनिन 2 पिट्यूटरी गा्रेथ हारमोन 3 थायराइड थायरक्सीन 4 थाइमस रिप्रोडक्टीव हारमोन 5 एडीनेलीन ए सी टी एच 6 गोनेडस टैस्टोस्टेरान नर एवं इस्टोजन मादा।

साधारणतया सर्पिणी कुण्डलिनी एवं सहस्रार आज्ञाचक्र आदि कुण्डलिनी से संबंधित अवयव प्रसुप्त स्थिति में निष्क्रिय पड़े होते है। निद्रा या मूर्छा की स्थिति में मनुष्य भी मतकवत स्थिति में हो जाता है। उसे कुछ भी होशो–हवास नहीं रहता। उसकी वस्तुओं को कोई उठा ले जा सकता है। पर कुछ ज्ञान नहीं रहता है। लज्जा ढकने के कपड़े उतर जाय तो भी बोध नहीं होता किन्तु जब जागृति की अवस्था होती है। तो उसे अपनी सामर्थ्य और हानि होने की जानकारी वापस लोट आती है।

शरीरगत विद्युत शक्ति का सामान्य प्रवाह निष्क्रिय पड़ा रहता है। पर उसे झकझोरकर साधना द्वारा जागृत और द्रुतगामी बना दिया जाता है। तो स्थिति में भारी अन्तर पड़ जाता है।

तेज हवा जब बांस के झुरमुटों में टकराती है। जो बंशी बजने जैसी आवाजें भी होती है ओर सूखे बांसों में रगड़ पड़ने से उनमें अग्नि भी प्रकट हो जाती है। रेल मोटर जैसे द्रुतगामी वाहनों के पीछे पत्ते तिनके धूलिकण भी उड़ते दौड़ते देखे गये है। नदी के बीच पड़ी चट्टानों से पानी टकराता है। तो उछालने लगता है। पनचक्की के पंखे घूमते हैं। तो उनसे आटा पीसने जैसे काम लिए जाते है। भरने ऊपर से नीचे गिरते है। तो उन प्रपातों पर बिजली बनाने के यंत्र लगा दिये जाते है। अंधड़ तूफान चक्रवात भंवर अपनी अपनी असाधारण शक्तियों का परिचय देते है। चक भी जब जागृत और उत्तेजित होते है। तो उनके द्वारा स्थूल सूक्ष्म और कारण तीनों ही शरीर उफनने लगते है। अपनी असाधारण शक्ति का परिचय देते है।

विभिन्न अध्यात्म ग्रंथों में कुण्डलिनी के संदर्भ में अनेक अभिमत व्यक्त किये गए है। यथा त्रिपूरा तंत्र में कहा गया है। जो देवता भोग देते है। वे मोक्ष नहीं देते जो मोक्ष देते है। वे भाग नहीं देते। किन्तु कुण्डलिनी दोनों को ही प्रदान करती है।

महायोग विज्ञान में लिखा है। जिसकी मूलाधार शक्ति सो रही है। उसका सारा संसार सो रहा है। जिसकी कुण्डलिनी जगी समझना चाहिए कि उसका भाग्य जग गया।

महातंत्र में उल्लेख है। जिसकी कुण्डलिनी जगती है। उसकी बैखरी मध्यमा परा और पश्यंति वाणी जागृत हो जाती है। उसका कथन सत्य होकर रहता है।

योगिनी तंत्र में लिखा है। कुण्डलिनी के जगते ही अन्तराल में छिपा वैभव अनायास ही दृष्टिगोचर होने लगता है।

महाभारत का सुप्रसिद्ध आख्यान है। कि भीष्म पितामह दक्षिणायन सूर्य रहने पर मरना नहीं चाहते थे उनकी इच्छा उत्तरायण समय आने पर मरने की थी इसके लिए उन्होंने देवयान को पर लोक प्रयाण का पथ चुना। इस प्रसंग में भी कुण्डलिनी प्रसंग है दक्षिणायन कुण्डलिनी अग्नि है। और उत्तरायण ब्रह्मरंध्र ऊर्जा देवयान मेरुदण्ड मार्ग है। भीष्म की कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया अधूरी थी वे उसी को पूर्ण करने में शरशैय्या पर पड़े–पड़े प्रयत्न करते रहे उद्देश्यपूर्ण होने पर उन्होंने शरीर का त्याग किया।

अथर्व 12 38 1 में कहा गया है। है आत्माग्नि तेरे द्वारा मुझे प्रकाश तेज बल प्रतिभा पराक्रम ओजस सभी मेरे भीतर से उभर रहे है। है। अग्नि तेरे तैंतीस विभाग तेरे ऊपर अनुग्रह करें।

यजु 2 8 में कहा गया है। है दिव्य अग्नि तू आयु वर्चस सुसंतति धन मेधा रति पौरुष बनकर हमें अपना अनुग्रह प्रदान कर।

आधुनिक मनोविज्ञानियों ने कुण्डलिनी को अचेतन मन की प्रसुप्त शक्ति कहा है। चीन और जापान के योगाभ्यासी उसे ची की शक्ति का नाम देते रहे।

अमेरिका के डॉ. ली सेनेल्या नपे अपनी कुण्डलिनी साइकोसिस एण्ड टान्सेन्डेस पुस्तक में कुण्डलिनी की महत्ता बताते हुए लिखा है। कि उसके जागरण से मनुष्य की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। व्यक्तित्व निखरता है। और गृहस्थ मस्तिष्क की उन क्षमताओं का विस्तार होता है। जो आमतौर से सोई हुई ही पड़ी रहती है।

वृहज्जाबालोपनिषद का कथन है। यह कालाग्नि कुण्डलिनी जब अधोगामी होती है। मनुष्य को अशक्त बना देती है। पर जब वह ऊपर उठती है। जो उच्च सिद्धियों को प्रदान करती हुई ब्रह्मलोक तक पहुंचती है।

स्कंद पुराण में एक रोचक कथा आती है। सृष्टि.आरम्भ में ब्रह्माजी ने कठोर दीर्घकालीन तप किया उससे प्रचण्ड अगिन उत्पन्न हई वह भूमि पर गिरी तो भूमि जलने लगी ऊपर उठी तो आकाश जलने लगा उसमें से तेजस की चिनगारियां उठ उठकर देशों दिशाओं को जलाने लगी।

अग्नि ने ब्रह्माजी से कहा में भूख से जली जा रही है मुझे भोजन दीजिए ब्रह्माजी ने एक एक करके अपने शरीर के सारे अंग उसे खिला दिये तो भी उसकी तृप्ति नहीं हुई ओर वह भूखा भूख कह कर चिल्ला कर रुदन करने लगी।

ब्रह्माजी को कोई उपाय न सूझा तो उनने कहा तू कामुक व्यक्तियों के शरीर में घुस जा और उनकी समस्त धातुओं का भक्षण करना। अग्नि ने ऐसा ही किया। उसने असंख्य कामुक नर नारियों को खा लिया किन्तु तृप्ति तब भी न हुई जब प्रजापति ने उसे देवता और ऋषियों के अन्त करण में प्रवेश करने के लिए कहा वहाँ अमृत भरा हुआ पाया अग्नि उसका पान करके तृप्त हो गयी और प्रसन्नतापूर्वक वही रहने लगी

इस कथन का तात्पर्य है। कि कुण्डलिनी का काम क्षेत्र में प्रवेश होता है। तो वह जर्जर कर देती है। किन्तु जब उसका प्रयोग दिव्य प्रयोजनों के लिए होता है। तो वह स्वयं भी प्रसन्न रहती है। ओर आश्रयदाता को भी प्रसन्नतादायक वरदानों से भर देती है।

कुण्डलिनी को दावानल कहा गया है। जो जंगलों को जलाकर खाक कर देती है। वह बड़वानल भी है। जो समुद्र में से ज्वालमाल बनकर उठती और पानी से रहित कर देती है। धरती की मध्यवर्ती अग्नि जब फूटती है। तो भूकम्प आते ओर ज्वालामुखी फूट शक्ति तत्व कुण्डलिनी है। जो ब्रह्मांडीय चेतन सत्ता के साथ जुड़ा है। और विश्व भंडार में से अपनी इच्छा एवं आवश्यकतानुसार शक्ति का खींचता ओर धारण करता रहता है। मूलाधार में बसी हुई सुप्त सर्पिणी अग्नि कुण्ड में पड़ी पड़ी विष उगलती रहती है। इस विष को अमृत बनाया जा सकता है। उसे अमृत रस पान सोम संपर्क हेतु ऊर्ध्वगामी बनाया जाय यही कुण्डलिनी साधना है।


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