कुण्डलिनी एक प्रचण्ड प्राण ऊर्जा

January 1987

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गिरना हमेशा बुरे अर्थों में लिया जाता है एवं उठना अच्छे अर्थ में। यह सिद्धान्त कायसत्ता के क्षेत्र में विशेषकर जननेन्द्रियों में सन्निहित प्राणशक्ति के ऊपर विशेष रूप से लागू होता है। मूलाधार को योनि एवं सहस्रार को लिंग बताते हुए अध्यात्मशास्त्र में अलंकारिक विवेचन तो किया गया है पर क्रिया प्रसंग में वैसा कुछ नहीं है। मूलाधार स्थित शक्ति को कामाचार में नष्ट न कर मस्तिष्क में ले जाना चाहिए ताकि उसका सुनियोजन सद्ज्ञान संवर्धन ध्यान द्वारा प्रसुप्ति के जागरण में हो सके। सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति शिवलिंग के साथ लिपटी प्रसुप्त सर्पिणी की तरह पड़ी रहती है। समुन्नत स्थिति में विकास होते होते यह शक्ति ऊँचे उठकर मस्तिष्क के सर्वोच्च स्थान क्षीरसागर मस्तिष्क के ग्रे मैटर में अवस्थित सूक्ष्म स्नायु तन्तुजाल सहस्रार पर जा बिराजती है। एक छोटा-सा शिवलिंग ऊर्ध्वगमन के बाद कैलाश पर्वत का रूप ले लेता है। खिले हुए सहस्रदल कमल के रूप में उसका विकास होता है एवं क्रमश मस्तिष्क के सारे सोय केन्द्र जाग पड़ते हैं। यह लघु का विराट में विस्तार है।

इस नियंत्रण में मेरुदण्ड का आश्रय लिया जाना अत्यावश्यक है। उसे मोड़कर सुषुम्ना की चेतना धारा को उच्चस्तरीय प्रयोजनों में नियोजित किया जा सके तो विषयानन्द की तुलना में हजार गुना आनन्द ब्रह्मानन्द में पाया जा सकता है। बंध मुद्राओं प्राणायाम आसनादिक के विभिन्न उपचार इसी उद्देश्य को लेकर किये जाते हैं। सिद्धान्त या वज्रासन में शक्तिचालिनी मुद्रा व विशिष्ट बंधों व प्राणयोग का आश्रय लेकर मूलाधार की शक्ति के उद्दीपन जागरण उर्ध्वगमन एवं उसे पूर्णता के केन्द्र से जोड़ने का प्रयत्न किया जाता है। इन सभी प्रयोगों को जो कि हठयोग या क्रियायोग से संबंधित है कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया का प्रारम्भिक माध्यम भर मानना चाहिए। भ्रान्तिवश इन्हीं उपचारों को सब कुछ मान लिया जाता है जबकि ये मात्र चौक के प्रयोग द्वारा ठण्डी मोटर गाड़ी में गर्मी पैदा करने के समतुल्य हैं।

यह प्रसंग यहाँ करना अनिवार्य है क्योंकि कुण्डलिनी को कामबीज भी कहा गया है। इसके प्रतीक रूप में शिवलिंग की स्थापना की जाती है। शिवलिंग का रुद्राभिषेक करते हैं तो तीन टाँग की तिपाही पर जलघट रखा जाता है और उसमें से एक एक बूँद पानी गिराने का प्रबन्ध किया जाता है। यों नारी योनि में भी मदनाँकुर होता है। पुरुषशिशन के अधोभाग में भी नारी योनि है। इन्हीं विपरीतताओं के जागृत होने पर लिंग परिवर्तन के प्रसंब घटते रहते हैं। नर नारी बन जाती है और नारी नर। इसका कारण प्रसुप्त क्षेत्रों में ऊर्जा आवेश का पहुँच जाना है। कामुकता भी इन्हीं कारणों से उभरती रहती है। यह अनुपयुक्त क्रम बनने न पाए, इसलिए मस्तिष्क का ज्ञान रूप अमृत टपका कर उसे शान्त करते रहा जाता है। इसी अमृत को सोमरस कहते हैं। खेचरी मुद्रा की सोऽहम् साधना में सोमरस पान की प्रक्रिया पूरी की जाती है। जिस तिपाही पर रुद्राभिषेक का जल घट रखा जाता है, वह इड़ा पिंगला सुषुम्ना इन तीन नाड़ियों का प्रतीक है। रुद्राभिषेक को कुण्डलिनी साधना का एक दृश्य प्रतीक माना गया है। इस वर्णन में अलंकारिक माध्यम से इस तथ्य का प्रतिपादन है कि कुण्डलिनी के अधिपति शिव प्रत्यक्ष और समर्थ परमेश्वर है। उनके निवास स्थान कैलाश पर्वत और मान सरोवर की तरह पवित्र समझे जाँय, उन्हें नर नारी की घृणित जननेन्द्रिय मात्र न मान लिया जाय। वरन् उनकी पवित्रता और महत्ता के प्रति उच्च भाव रखते हुए उनके सदुपयोग शक्ति के सुनियोजन की आराधना में तत्पर रहा जाय। साहस और कलाकारिता के पुरुषार्थ और लालित्य के कर्म और भावना के इन केन्द्रों को प्रजनन मात्र से निरस्त न बना दिया जाय वरन् नर नारी की जननेन्द्रियों के निकटस्थ मूलाधार चप्र की शिव शक्ति को उच्च आदर्शों के लिए प्रयुक्त किया जाय।

हठयोग के साधनाकाल के इस प्रचलन की अश्लील कल्पना करने वाले पुरुष शिशन और नारी योनि के साथ संगति बिठाते हुए “संभाग से समाधि” की चर्चा करते है। यह कथन सही नहीं, बड़ा बेतुका भद्दा एवं दिशाहीन करने वाला है। वस्तुतः हृदय मस्तक जैसे पवित्र इन स्थानों तक अनाचार की अतिवाद की गन्दगी नहीं पहुँचनी चाहिए। कि इन्हें अधिकाधिक पवित्र रखते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। और ऊर्ध्वरेता बनना चाहिए। यह मर्यादा स्त्री और पुरुष दोनों को ही निबाहनी चाहिए। शास्त्रकारों ने कुण्डलिनी की प्रकृति का निरूपण करते हुए कामकला से उसकी संगति बिठाई है। पर उसका अर्थ कामुकता नहीं वरन् कायसत्ता में उत्साह व उल्लास करने वाली शक्ति से लिया जाता है। मूलाधार को कामबीज भी कहते हैं एवं सहस्रार को ज्ञानबीज। दोनों के समन्वय परिष्कार से विवेकयुक्त क्रिया बनती है। जीवन का सर्वांगपूर्ण विकास व्यक्तित्व का परिष्कार चिन्तन के स्तर में निखार इसी शक्ति पर निर्भर है। कुण्डलिनी योग इसी सुयोग संयोग की व्यवस्था के निमित्त की जाने वाली साधना है।

श्वेताश्वेतर उपनिषद् में कुण्डलिनी को “योगान्नि” अथवा नचिकेत अग्नि कहा गया है और उसकी तुलना पवित्र यज्ञाग्नि से की गई है। कहा गया है कि जिसके शरीर में यह दिव्य अग्नि प्रज्वलित रहती है उसके न शरीर में रोग होता है न मन में विक्षोभ। चैनिक योग प्रदीपिका में आई लोहैन ने इसे स्प्रिट फायर कहा है और आत्मा की ज्वलन्त अग्नि के रूप में उसकी विवेचना की है।

पाश्चात्य योग विद्या विशारद सर जॉन वुडरफ ने इसे सर्पन्ट फायर के नाम से सम्बोधित किया है। थियोसोफिकल सोसायटी की जन्मदाता मैडम ब्लेवटस्की ने इसे विश्वव्यापी वैद्युतीय शक्ति कास्मिक इलेक्ट्रिसिटी कहा है और इसकी गति को 345000 मील प्रति सेकेंड बताया है। जबकि प्रकाश की गति 1, 85000 मील प्रति सेकेंड एवं विद्युत तरंगों की गति 288000 मील प्रति सेकेंड है। वैज्ञानिकों के अनुसार विचार तरंगों की गति विद्युत तरंगों से सात गुनी अधिक अर्थात् 22,65120 मील प्रति सेकेंड है। वैज्ञानिकों के अनुसार विचार तरंगों की गति विद्युत तरंगों से सात गुनी अधिक अर्थात् 2265120 मील प्रति सेकेंड है। विचार क्षण मात्र में ही पृथ्वी लगभग चालीस बार परिक्रमा लगा सकते हैं।

अध्यात्मिक शक्ति होते हुए भी कुण्डलिनी की संगति पूर्णरूपेण शारीरिक विद्युत के साथ जुड़ जाती है। डॉ. वसन्त जी रेले ने अपनी पुस्तक “द मिस्टीरियस कुण्डलिनी” में इसे नर्वस फोर्स कहा है। इस पुस्तक की भूमिका सर वुडरफ ने लिखी है। उनके अनुसार रेले जहाँ कुण्डलिनी की संगति दायीं वेगस नर्व से बिठाते हैं वहाँ वे स्वयं उसे एक “गण्डपोटेन्शियल” और भी बड़ी शक्ति मानते हैं। कुण्डलिनी उनके अनुसार “डायनेमिक रियल” वह प्रसुप्त ऊर्जा है जिसे पदार्थ सत्ता की इन्वाँल्यूशन प्रक्रिया के विपरीत इवाँल्यूशन के माध्यम से ऊँचा उठाकर व्यक्तित्व को प्रखर समुन्नत बनाया जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति वसन्त रेले के अनुसार स्थिर रूप में अपने सामान्य स्वरूप में रहती है किन्तु गत्यात्मक रूप में यही प्राणशक्ति बन जाती है। वे कहते हैं कि हठयोग प्रदीपिका शिव संहिता एवं षट्चक्र निरूपण जैसे ग्रन्थों का विवेचन यह बताता है कि यह ब्रह्मांडव्यापी समष्टिगत महत चेतन शक्ति का व्यष्टि रूप है।

हठयोग के ज्ञाता पाश्चात्य वैज्ञानिक श्री हडसन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक साइन्स ऑफ सीअरशिप में कहा है कि चमत्कारी शक्ति कुण्डलिनी को पवित्र मन और कामना रहित होकर किसी सुयोग्य योगज्ञाता गुरु के मार्गदर्शन में ही जागृत करना चाहिए। अन्यथा कुण्डलिनी शक्ति नीचे की ओर प्रवाहित होकर विषय वासनाओं और कामुक विचारों के आवेग को बढ़ा सकती है। फिर इस शक्ति का क्षरण वासना तृप्ति स्वार्थ साधन के रूप में होने लगता है।

जैन योगाचार्यों ने कुण्डलिनी शक्ति को तेजोलेश्या के रूप में वर्णित किया है। उसकी उपलब्धि के दो साधन बताये हैं। प्रथम है। अनन् और जल की अति सीमित मात्रा ग्रहण करते हुए तपस्या करना तथा दूसरा है। सूर्य की आतापना लेना अर्थात् सूर्योपासना द्वारा शक्ति संग्रह करना तेजोलेश्या का उद्गम स्रोत सूक्ष्म द्वारा शरीर माना गया है। वही स्थान कुण्डलिनी शक्ति का भी है। तेजोलेश्या को सावित्री साधना का स्वरूप माना जा सकता है।

कुण्डलिनी शक्ति की व्याख्या करते हुए योग विज्ञानियों ने कहा है। कि यह वाइस ऑफ साइलेन्स मौन की भाषा है। लोग लौकिक अग्नि या विद्युत का प्रभाव जानते तथा उपयोग करते है। यदि वे इस स्प्रिचुअल या मेटाफिजीकल अग्नि का प्रयोग भी जान ले तो आत्मिक क्षेत्र की असंख्यों सिद्धियां हस्तगत कर सकते है।

डॉ. स्कॉट ने कहा है। कि यह क्रिस्टल है जिसके सहारे जीवनश् रूपी टाजिस्टर अपनी ध्वनि बजाता है। शरीर शास्त्री अपने ढंग से उसकी व्याख्या करते है। और उसे स्पाइनल कार्ड तथा मूलाधार को गैग्लियान इम्पार के रूप में निरूपित करते है। उसकी उपमा जेनरेटर डायनेमो बैटरी चुम्बक आदि से की माना सभी ने यह है। कि यह काम क्षेत्र में दहकता हुआ कुण्ड है और उससे ऊपर उठता हुआ प्रज्वल सचमुच असाधारण शक्ति का केन्द्र है।

डॉ. हैनरी लिण्डाल ने ब्रह्मांडव्यापी चेतन विद्युत भौतिक जगत में काम करने वाली बिजली के उद्गम स्रोतों की व्याख्या करने के साथ ही मानव शरीर में काम करने वाली बिजली की भी विवेचना की है। ब्रह्मांड में पृथ्वी के चारों ओर विद्युत्चुम्बकीय धाराओं का एक जाल-सा फैला हुआ है। एवं यह धन विद्युत विभव तीन लाख वोल्ट की सामर्थ्य का है। हर जीवधारी पर 5 वोल्ट प्रतिमीटर की औसत से यह दबाव बना हुआ है। इसी ब्रह्मांडीय विद्युत का व्यष्टिगत अंश कुण्डलिनी शक्ति के रूप में मेरुदण्ड में विराजमान होता है। डॉ. लिण्डाल ने कहा है। कि जीवकोशी नाड़ी तंतुओं तथा विभिन्न अवयवों के काम करने में बड़ी मात्रा में विद्युत शक्ति का निरन्तर व्यय होता रहता है। इसका उद्गम हृदय नहीं मस्तिष्क है। वही जीवन के उद्भव तथा अन्त का आधार है। किन्तु यह उद्गम एकाकी नहीं हैं मेरुदण्ड के ऊपरी सिरे पर स्थिति मस्तिष्क ग्रेमैटर एवं सुषुम्ना का निचला हिस्सा दोनों ही इस प्राण विद्युत के उत्पादन में अपने अपने पक्ष का निर्वाह के करते है। मस्तिष्कीय ग्रेमैटर में रेटीकूलर एक्टीवेटिंग सिस्टम के रूप में विद्युत्स्फुल्लिंग निरन्तर उभरते रहते है। इस विद्युत का एक बहुत बड़ा भाग उस क्षेत्र का भी होता है। जिसे दक्षिणी ध्रुव या कामकेन्द्र की संज्ञा दी जाती है। डॉ. हिरोशी मोटोयामा ने अपनी ए एम आई मशीन द्वारा विद्युत का सघन अनुपात इसी केन्द्र बिन्दु पर पाया है। वैज्ञानिकों ने काम केन्द्र पर जो विस्तृत अन्वेषण किया है। उसका कारण यह है। कि कुण्डलिनी क्षेत्र जीवन संचार का महत्वपूर्ण क्षेत्र है। नया प्राणी उत्पन्न करने के साधनों से भरपूर होने के कारण उसकी सत्ता और महत्ता शरीर के अन्य सब अवयवों की तुलना में विशेष रूप से संवेदनशील और क्षमता सम्पन्न है। सेक्रल प्लेक्ससव व काडइक्वाईना की संरचना मस्तिष्क के समान ही अत्यन्त पेचीदा व फिजियोलॉजी की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस तथ्य को भी ली सनेला ने अपनी पुस्तक कुण्डलिनी साइकोसिस आर टान्सेन्डेन्स में डॉ. डी ई वुलरीज ने द मशीनरी ऑफ ब्रेन में एवं डॉ. सी नारन्जो आर आर्नस्टीर ने साइकोलॉजी ऑफ मेडीटेश में भिन्न भिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया है।

डॉ. केरिगटन ने अपनी आधुनिक मनोविज्ञान और भारतीय दर्शन पुस्तक में लिखा है। कि ऐसे अनेक उदाहरण देखे गए है। जिनमें प्राण परमाणुओं वाला शरीर रहने या न रहने पर भी अपना अस्तित्व बनाए रखता है। उसके शरीर से जुड़ा रहने पर भी प्राण घटकों की सत्ता उसी क्षेत्र में बनी रहती है। इसी शोध से संबंधित एक विलक्षण खोज योगियों के शरीर से ध्यान साधना की

चरमावस्था समाधि प्रक्रिया के दौरान बाहर निकलने वाले आयडियोप्लाज्म अथवा साइकोप्लाज्म के रूप में की गया है। वैज्ञानिकों कहते है। कि यह वाष्प अवस्था में शरीर से बाहर निकलता रहता है। एवं सिर के शीर्षभाग स्तन उंगलियों के पोर होठ तथा चेहरा नाड़ी चक्र एवं जननेंद्रियों के आसपास इसका सघन अनुपात देखा गया है। रूसी वैज्ञानिकों सेमियन किलियन द्वारा बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी के अध्ययन व चित्रांकन के बाद सूक्ष्मशरीर कुण्डलिनी की प्राण शक्ति के संबंध में इस अनुसंधान कार्य बड़ी ख्याति प्राप्त की है। मेनुअल स्वीडनबोर्ग ने इसे ईथर के दश्य बादल की संज्ञा दी है। जिसे विशेष फिल्टस का प्रयोग कर हाईवोल्टेज प्रोजेक्शन द्वारा चित्रांकित किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने इसकी बनावट मकड़ीदार जाले व गंध ओजोन होने पर इसकी सघनता घटती बढ़ती है भावनाएं भी इसके प्रभाव को कम अधिक करती है। इसकी उपस्थिति का प्रत्यक्ष प्रमाण लायल वाटसन ने अपनी पुस्तक सुपरनेचर में दिया है जिसमें किसी व्यक्ति का कोई अंग कट जाने पर भी उसे उस अंग की प्रत्यक्ष अनुभूति दर्द जलन खुजली इस रूप में होती रहती है। फेन्टम लिम्ब इफेक्ट नाम से जाने जाते इस प्रसंग में यह प्रमाणित किया गया है। कि सूक्ष्मशरीर की सत्ता एक्टोप्लाज्म के रूप में बनी रहती है। एवं वही सारी संवेदनाएं प्रत्यक्ष ज्ञान के न होने पर भी मनुष्य को अनुभव होती रहती है।

टिवेटन बुक ऑफ डेड चाइनीज बुक ऑफ सोल में प्रत्यक्ष शरीर ओर प्राण शरीर की सत्ता पृथक पृथक मानी गई है। यद्यपि वे दोनों साथ साथ रहते है। पर कभी कभी प्राण शरीर पृथक होकर अन्यत्र रहने लगता व आवश्यकतानुसार नया प्राण शरीर बना लेता है। इसी प्रकार मनुष्य की कई बार दुहरी उपस्थिति भी देखी गई है।

डॉ. सील एवं जे टैजर ने अपनी पुस्तक द पॉजेटिव साइन्सेज ऑफ एन्सीएण्ट हिन्दूज में लिखा है कि हिन्दू धर्म के साधना विधान और कर्मकाण्ड प्राण शरीर का अधिकतम उपयोग करते हुए सम्पन्न होते है। इस प्राण शरीर को दिव्य चक्षुओं से देखा जा सकता है। कुछ वर्ष पूर्व थियोसोफीस्ट पत्रिका में एक लेख एनोटॉमी ऑफ तत्राज नाम से विषय छपा था।

थियोसोफीस्ट वैज्ञानिक सी डब्यू लेडबीटर ने मेरुदण्ड में अवस्थित छह चक्रों का विवेचन अपनी द चका्रज पुस्तक में किया है। व कहा है। कि प्राण शरीर एक विशेष प्रकार की विद्युत से विनिर्मित होता है। और ऐसा ही कायसत्ता में विराजमान है। जैसे कि घोंसले में पक्षी बैठा होता है। कितने ही अन्य वैज्ञानिकों ने प्राण को फायर ऑफ लाइफ कहा है। इस अग्नि की जितनी मात्रा शरीर में होती है। वह उतना ही चैतन्य उत्साही साहसी और प्रतिभावान होता है। इसमें शिथिलता आने पर मोटा ताजा शरीर भी डरपोक आलसी और निराश प्रकृति का पाया जाता है। इस विद्युतशक्ति को प्रयत्नपूर्वक बढ़ाया भी जा सकता है। योगाभ्यासों की रचना इसी दृष्टि से हुई है। कुण्डलिनी योग तो वस्तुतः प्राण विद्या के ऊपर ही आधारित है।

कुण्डलिनी जागरण का सार संक्षेप यह है। कि निखिल ब्रह्मांड में से प्राण चेतना को आकर्षित करके अपने निज के प्राण में उस महत चेतना की बड़ी मात्रा मिलाकर उच्च स्तरीय शक्ति प्राप्त की जाय और इस सामर्थ्य को अभीष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त करने योग्य अभ्यास कर लिया जाय। यह क्षमता संयम से बढ़ती है एवं शक्ति क्षरण करने पर क्रमश घटती व नष्ट होती जाती है।

यूरोपिन तांत्रिकों में जेकब बाहम की बहुत ख्याति रही है। उनके जर्मन शिष्य जॉर्ज मिशेल की पुस्तक थियोसोफिकल प्रक्टिका में कुण्डलिनी जागरण व षट्चक्रों के प्रसंग में उसे गोपनीय रखने की भी हिदायत दी है। क्यों कि पता चलने पर अनधिकारी उसे लूट ले जाने का षड्यंत्र रचने है। ऐसी दशा में बहकावे में आने वाले बहुमूल्य रत्नराशि का मधपो को सौंपकर अपनी और उनकी उभयपक्षीय हानि करते है।


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