विवेकशीलता का स्वर्ग (Kahani)

January 1987

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एक सेनापति चीन के दार्शनिक नानुशिंगें के पास जिज्ञासा लेकर गया। उसने जाते ही पूछा-स्वर्ग और नरक के बारे में बताइए। नानुशिंगे ने उसका परिचय पूछा तो अतिथि ने अपने को सेनापति बताया। सुनकर सन्त हँसे और बोले-शक्ल तो आपकी भिखारी जैसी है। सेनापति तो आप लगते नहीं।

सुनते ही वह लाल पीला हो गया और अपने अपमानों से उत्तेजित होकर तलवार खींच ली और सिर काटने पर उतारू हो गया। नानुशिंगे ने फिर हँसते हुए कहा-तो तुम्हारे पास तलवार भी है? क्या सचमुच लोहे की है? क्या इस पर धार भी चढ़ी है और अगर है तो तुम्हारी कलाइयों में इतना दम-खम भी है कि मेरी गर्दन काट सको?

सेनापति आपे से बाहर हो गया। हाथ काँपने लगे। प्रतीत हुआ कि उसका वार होकर ही रहेगा। नानुशिंगे गम्भीर हो गये। उनने कहा-योद्धा, यही है नरक, जिसकी बात तुम पूछ रहे थे।

योद्धा ठंडा पड़ गया। उसने तलवार म्यान में कर ली। इस पर नानुशिंगें ने ठंडी साँस खींचते हुए कहा-देखा, यही है विवेकशीलता का स्वर्ग। जिज्ञासु का समाधान हो गया। वह घर वास लौट गया।


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