कुण्डलिनी के वशीभूत ब्राह्मी चेतना के क्रिया कलाप

January 1987

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मानवी काया में दिव्य सचेतन बिजली के भंडार भरे पड़े है। इनमें से जीवन यापन विद्या में थोड़ा ही प्रयुक्त होता है। खाने कमाने सोने नित्यकर्म विनोद आदि में इसका थोड़ा-सा ही अंश काम में आता है। अभ्यास के अनुरूप उतना ही भाग काम में लाने का अनुभव होता है। शेष सामर्थ्य है। तो सही पर प्रसुप्त स्थिति में यदि उसे जागृत करके सक्रिय सुनियोजित किया जा सके तो उससे इतने अधिक और इतनी विविधता भरे महान कार्य सम्पन्न होते रह सकते है। कि उन्हें आश्चर्यजनक स्तर तक विकसित हुआ देखा जा सकता है। ऐसे व्यक्तियों की गतिविधियां और विभूतियां इतनी विलक्षण होती है जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। साधारणतया समग्र शरीर और मस्तिष्क में संव्याप्त विद्यात् शक्ति का मात्र सात प्रतिशत भाग ही व्यस्त लोगों के दैनंदिन जीवन में प्रयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त जो भाग शेष रह जाता है उस अविज्ञात को कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया के माध्यम से सक्षम बनाया जाता है इस भंडार में से जो जितना कुरेद लेता है। बटोर लेता है। वह उतना ही सुसम्पन्न बन जाता है।

वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है। कि मानवी मस्तिष्क की संरचना अत्यन्त जटिल है। उसमें प्रत्येक न्यूरान करीब 60000 सिनेप्सो से जुड़ा रहता है। एक न्यूरॉन से दूसरे न्यूरान को सब संकेत 360 मील प्रति घंटे की गति से मिलते है। फिर वे अपने स्थान पर आ जाते है। ये संकेत मस्तिष्कीय विद्युत शक्ति से मिलते है। स्वीडन के जीव विज्ञानी होलडर के अनुसार इस विद्युत से ही चिन्तन कोशिकाएं ज्ञान तन्तुओं के लिए संवेदनशील बनती है। प्रतिभा पराक्रम एवं विवेक का जागरण इन्हीं कोशिकाएँ की स्फुरणा का परिणाम है।

सुविख्यात मनीषी वैज्ञानिक आइन्स्टीन के अनुसार मानव स्मृति कोश में 200 अरब सूचनाएं संग्रहित करने की शक्ति होती है। जो एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के तीस वाल्यूम में अंकित कुल सूचनाओं का पांच गुना है। दस अरब न्यूरान्स एवं दस खरब सिनेप्स समूहों से बिना मस्तिष्क अद्भुत विलक्षणताओं का भण्डार और एक जादूई पिटारा है। डॉ. डी सी रीफ एल एच स्नीडर डॉ. विलियम होरविज डॉ. मार्टिन डबलू बार आदि अनेक वैज्ञानिक एवं विशेषज्ञ मस्तिष्क की विलक्षणता से चकित होकर कहते है। ऐसा सुपर कंप्यूटर बना पानाप मानव के बस की बात नहीं।

किन्हीं किन्हीं में अद्भुत विलक्षण प्रतिभा की झलक बाल्यकाल में ही दीखने लगती है। यह जागृत कुण्डलिनी की ही चमत्कृति है। आचार्य शंकर ने तीन वर्ष की आयु में मातृभाषा मलयालम सीख ली थी। माता पिता से सुन सुन कर पुराणादि के विशिष्ट प्रसंग याद कर लिए थे। पांच वर्ष की आयु में उनका यज्ञोपवीत संस्कार करा के विद्यमान के लिए भेजा गया। सात वर्ष के होते होते उन्होंने वेद वेदान्त वेदांगों का पूर्ण अध्ययन कर लिया था आठ वर्ष की अवस्था में संन्यास दीक्षा ले ली। कुछ ही दिनों में वे सिद्ध योगी हो गये। 24 वर्ष की आयु तक वे वे प्रमुख भाष्य आदि का लेखन पूरा कर चुके थे।

भारतीय संस्कृति का पुरातन इतिहास इस तथ्य का साक्षी है। कि आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में ऋषिगण जीवन के प्रारम्भ से ही अग्रगामी रहे है। ऐसे अनेक आख्यान पढ़ने को मिलते है। जो जागृत अविज्ञात सम्पदा की फलश्रुतियों की एक झलक दिखाते है।

हो सकता हैं किन्हीं को इन आख्यानों में अतिश्योक्ति जान पड़े। पर ऐसे आधुनिक उदाहरण भी हमारे सामने है। गाहमबेल ने 20 वर्ष की आयु में टेलीफोन का और बिल्वरराइट ने वायुयान का 32 वर्ष में आविष्कार किया। एली हिवटली ने 24 वर्ष में कपास ओटने की मशीन और ब्लेस पास्कल ने 32 वर्ष में परिकलन यंत्र प्रथम बार बनाया जेम्सक्रिस्टन ने 22 वर्ष की आयु में अरबी ग्रीक यहदी तथा फलैमिश सहित विश्व की अनेक भाषाएं सीख ली थी। गिनीज बुक ऑफ वर्ड रिकार्ड्स में इन सभी का एक कीर्तिमान के नाते उल्लेख है।

प्रसिद्ध कवि गेटे ने 24 वर्ष प्रसिद्ध काव्य थॉट्स इन द डिस्टेटो आव जीसस काइस्ट इन टू हैल लिखा। विक्टरह्यूगो ने 24 वर्ष की आयु तक तीन हजार कविताएं लिखी। संत ज्ञानेश्वर ने 25 वर्ष में प्रसिद्ध ज्ञानेश्वरी गीता पर लिखा। सिकन्दर 20 वर्ष में विश्व विजय के लिए निकला था। मुगल सम्राट अकबर ने 26 वर्ष में गद्दी को भली भांति संभाला और काफी ख्याति पाई। सम्राट अशोक 20 वर्ष में और शिवाजी 22 वर्ष में गद्दी पर बैठे थे।

कुण्डलिनी विज्ञान का अनुसंधान विवेचन वस्तुतः प्रसुप्त की जागति का विज्ञान ही है। यदि ऐसा योग साधना उपचारों द्वारा सम्भव हो सके तो शारीरिक बलिष्ठता और मानसिक प्रतिभा असाधारण रूप से बढ़ाई जा सकती है। शौर्य पराक्रम साहस जैसे गुण और स्फूर्ति तत्परता तन्मयता सुभबुभक्त का स्तर इतना असामान्य हो सकता है। कि उसके माध्यम से किये गए क्रिया कलाप बहुमुखी सफलताएं अपनी ओर खीचते घसीटते चले जाते है।

मनुष्य की आकृतियों तो लगभग एक जैसी होती है। पर उनकी प्रकृति में इतना पाया जाता है। कि उसे देखकर हतप्रभ रह जाना पड़ता है। कितने ही लोग हाथ पैर सिर सही होने पर भी गई गुजरी अनगढ़ स्थिति में पड़े रहते है। ओर ज्यों त्यों करके जीवन की गाड़ी धकेलते है। किन्तु वैसे ही परिस्थितियों में जन्में तथा पले व्यक्ति अपने विकसित मनोबल के कारण ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर लेते है। जिनमें सफलताओं को श्रेय पर्वत जितना जमा हो जाता है। वे प्रतिकूलताओं के बीच रहते है। पर उन्हें अनुकूल बनाने में देर नहीं लगती। उनका बढ़ा हुआ मनोबल ऐसी रहा सकता है। जिस पर चलते हुए लम्बे लक्ष्य को सरलतापूर्वक पार किया जा सके और मार्ग के व्यवधानों को कुचलते हुए अभीष्ट केन्द्र तक सरलतापूर्वक पहुंचा जा सके। यह जागृत मन शक्ति का ही चमत्कार है।

शरीर पर मन असाधारण प्रभाव होता है। प्राण विद्युत की पर्याप्त सप्लाई न हो पानं है स्थिति में हमारे शरीर के सभी क्रिया−कलाप ढीले और धीमे पड़ जाते है। इसका परिणाम रुग्णता और दुर्बलता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इस कठिनाई को हल करने के लिए आमतौर से औषधि उपचार का प्रचलन है किन्तु देखा गया है। कि भूल कारण का निवारण न होने पर औषधियों के दबाव से रोग अपना स्वरूप भर बदलते रहते है। एक से दूसरी शकल बना लेते पर पीछा नहीं छोड़ते इस व्यथा से पूरी तरह मुक्त होने के लिए शरीरगत विद्युत भंडार को बढ़ाया और रुग्ण अवयवों पर उसका प्रयोग किया जाय तो उसका आशातीत प्रभाव हो सकता है।

मन लोभ मोह के विचारो वासना तृष्णा की धमाचौकड़ी से खाली रहे तो मनुष्य प्रतिभावान तेजस्वी एवं अग्रगामी महामानवों में गिना जा सकने योग्य ताना बाना बुन सकता है। ऐसे व्यक्ति साधारण परिस्थितियों में भी साधनों और सहयोगियों का अभाव होते हुए अपने व्यक्तिगत चुम्बकत्व द्वारा जो आवश्यक है। उसे निखिल ब्रह्मांड में से अपने लिए खींच बुलाते है। ऐसे तेजस्वी व्यक्ति अपने बलबूते आगे बढ़ते है। और बास की तरह झुरमुट बनाते हुए असाधारण ऊंचाई तक जा पहुंचते है। यह उनकी आन्तरिक जीवट का प्रतिफल है। इसी को कुण्डलिनी कहते है इसके जागृत होने पर मनुष्य निर्भय और निश्चिन्त बन जाता और कठिनाई समस्याओं और आक्रमणों के विरुद्ध इस प्रकार लोहा लेता है। मानो उसे खेल के मैदान में कला कौशल भर दिखाना है।

इन्द्रिय शक्ति सर्वविदित है। हाथ पाव आंख कान जिह्वा आदि से सभी काम लेते है पर इनमें एक अदृश्य परत भी है। जैसे कि शरीर के अंतर्गत अदृश्य प्राण प्राण को हम प्रत्यक्ष अनुभव नहीं करते तो भी उसके अस्तित्व से इन्कार नहीं कर सकते इसी प्रकार इंद्रियों के सामान्य किया कलाप के अतिरिक्त बहुत कुछ उच्चस्तरीय कर गुजरने की जानने समझने की क्षमता कहते है। यह सर्व साधारण में दृष्टिगोचर नहीं होती पर जिनकी अन्त क्षमता प्रस्फुटित हो उठती है उनकी अतीन्द्रिय क्षमता भी काम करती है।

पूर्व जन्मों की स्मृति अपना ओर दूसरों का भविष्य ज्ञान दूरवर्ती घटनाओं की बना माध्यम के जानकारी अपने विचार दूसरों तक पहुंचाना दूसरों के विचार एवं उद्देश्य संभव लेना आदि बातें अतीन्द्रिय क्षमता के अंतर्गत ही आती है। उन्हें परामनोविज्ञान क्षेत्र में मान्यता मिली है। और संसार भर में इस स्तर के अनेकों प्रमाण उपलब्ध हुए है। योग विज्ञान के अनुसार कुंडलिनी साधना की सहस्रार चक्र पर असाधारण प्रतिक्रिया होती है। अतीन्द्रिय क्षमताओं के दिव्य संस्थान अपनी मूर्छना छोड़ कर सक्रिय बनते है। और वह देखने सुनने जानने लगते है। जो साधारण स्थिति में असम्भव ही लगता है। अन्तरिक्ष की असंख्यों हलचलों को ध्वनियों एवं प्रकाश किरणों को हमारी भौंड़ी इन्द्रिय क्षमता देख समझा नहीं पाती। काम चलाऊ मोटी जानकारियाँ दे सकने के स्तर पर ही उनका निर्माण हुआ। यदि अतीन्द्रिय क्षमता विकसित की जा सके तो सृष्टि के रहस्यों को अविज्ञात को समझ सकना योगाभ्यासी सिद्ध पुरुषों की भांति ही सम्भव हो सकता है। ये कभी कभी किन्हीं किन्हीं में पूर्वजन्मों के संचित संस्कारों के कारण जागी हुई पाई जाती है। कुछ इसे साधना पुरुषार्थ से पा लेते है।

कुण्डलिनी साधना से प्राप्त अतीन्द्रिय सामर्थ्य के प्रामाणिक उदाहरण भारतीय धर्म इतिहास में अच्छी खासी संख्या में देखने का मिलते है।

संजय राजमहल में बैठे - बैठे ही महाभारत के प्रत्येक मोर्चे की छोटी से छोटी घटना भी धृतराष्ट्र का सुनाते थें

चैतन्य महाप्रभु न भगवान कृष्ण की लीलाभूमि को दिव्य दृष्टि से देख लिया था। वे बंगाल से चलकर वृन्दावन पहुंचे और वहां तीर्थ की स्थापना की।

जिन दिनों स्वामी विवेकानन्द इंग्लैंड में थे उन्हीं दिनों जमशेद जी टाटा लोहे का कारखाना लगाने की स्वीकृति लेने वहां गये थे। स्वामी जी से मिल तथा कहा कोई ऐसा स्थान बतलाये जहां लोहे खनिज कोयला और पानी यह तीनों चीजें पर्याप्त मात्रा में मिल सके। स्वामी जी ने दिव्य दृष्टि से देखकर बतलाया कि बिहार के सिह भूमि जिले में साकनी नदी के किनारे फैक्ट्री डालना ठीक रहेगा। वहां आस पास सभी आवश्यक पदार्थ पर्याप्त मात्रा में मिल।

शरीर क्षेत्र और मन क्षेत्र में अनेक प्रकार के चक ग्रंथि समुच्चय प्लेक्सस नाड़ियां के दिव्य प्रवाह मौजूद है। इनमें से कुछ स्थूल शरीर में होते है। कुछ सूक्ष्म और कारण शरीर में इन्हीं को जागृत करने के लिए अनेक स्तर की तपश्चर्याएं तथा योग साधनाएं की जाती है। यह कार्य स्व उपार्जन की विधि अपनाने पर समय साध्य और कष्ट साध्य है। किन्तु यदि स्थूल शरीर की भांति सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरीर के अंग प्रत्यांगों को जागृत करने में किसी की सहायता मिल सके तो लम्बी साधना करने की अपेक्षा स्वल्प साधना से ही वे लाभ मिल सकते है। जिन्हें सामान्य नहीं समझा जा सकता।

ऊपर की पंक्तियों में केवल उन तथ्यों की चर्चा की गई है। जो शरीर और मन की परिधि में है। जिन्हें समुन्नत करने से कुण्डलिनी साधना में सफलता का असाधारण सुयोग मिलता है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मांडीय चेतन और बहम चेतना के दो क्षेत्र और भी रह जाते है। उन्हें सशक्त करने में आत्म विद्युत की तरंगें बड़े काम आ सकती है।

ब्रह्मांडीय चेतना प्रकृति को कहते हैं। शास्त्रकारों ने इसे माया नाम दिया है। इसी की हलचलें इस सृष्टि के सारे क्रिया कलापों को संचालित करती एवं व्यवस्थित रखती है। वैज्ञानिकों ने इस प्रकृति चेतना की उथली परतों को खोलकर अनेक प्रकार के आविष्कार किये है। पर जो क्षेत्र अभी तक पाया जा सकता है। उसे पर्वत की तुलना में राई भर हाथ लगने के समतुल्य समझा जा सकता है। अभी जानने को बहुत कुछ शेष है। उसे सम्भवत यंत्र उपकरणों की सहायता से बुद्धि की घुड़दौड़ से उपलब्ध न किया जा सकेगा। इसलिए मनुष्य की जागृतचेतना का स्तर इतना सूक्ष्म होना चाहिए जो प्रकृति के अन्तराल को पारदर्शी काच की तरह देख समझ सकें यह स्तर कुण्डलिनी क्षेत्र में प्रचण्डता उत्पन्न करके हस्तगत किया जा सकता है।

संतानोत्पादन की एक शाखा ऐसी है जो यौनाचार तक सीमित न रहकर गुण सूत्रों एवं जीन्स घटकों तक चली जाती है। जेनेटिक्स के नाम से यह विज्ञान की शाखा जानी जाती है। साधारणतया पशु प्राणियों की तरह मनुष्य भी बच्चे जनता रहता है। पर उनके अन्दर उच्चस्तरीय विशेषताएं उत्पन्न कर सकना मनुष्य के वश की बात नहीं त्वचा का रंग एवं चेहरे की आकृति से ही अभिभावकों की स्थिति झलकती है। किन्तु शिशु का अन्तराल कैसा होना चाहिए उसके व्यक्ति में स्किन विशेषताओं का समावेश होना चाहिए इसका निर्धारण कर सकना सामान्य मनुष्य के बलबूते की बात नहीं है। किन्तु जागृत कुण्डलिनी इस मनोकामना को पूर्ण कर सकती है। इस कथन के प्रमाण स्वरूप साधना बल से सूक्ष्म अदृश्य देव शक्तियों के आकर्षण द्वारा बिना किसी प्रकार के शरीर संपर्क के गर्भाधान और प्रतिभाशाली पुत्र जन्म की अनेक घटनाएं भारतीय पुराणों में देखी जा सकती है।

कुन्ती ने सूर्य की शक्ति से कर्ण धर्मराज से युधिष्ठिर वायु से भीम एवं इन्द्र से अर्जुन दिया था। सह पत्नी मादी को भी वह विद्या सिखाई थी उसने अश्विनी कुमारों की शक्ति से नकुल सहदेव को जन्म दिया था। इसी प्रकार माता अंजनी ने भी वायु देव की शक्ति से पवन पुत्र हनुमान जी को उत्पन्न किया था। जैनेटिक इंजीनियरिंग के वे प्रयोग जो आज इक्कीसवीं सदी का विज्ञान करता देखा जाता है। इन घटना प्रसंगों के समक्ष बोने नजर आते है। यही नहीं विशिष्ट आध्यात्मिक प्रयोगों से असाधारण क्षमता सम्पन्न संतति पैदा करने के प्रयोग पुराण काल में खूब हुए है। राम आदि चारों भाई तो पुत्रेष्टि प्रयोग से हुए ही थे। द्रुपद ने भी यज्ञ प्रयोग से द्रौपदी और धृष्टद्युम्न पैदा किए थे। द्रौपदी सौंदर्य विवेक शौर्य सभी क्षेत्रों में असाधारण थी। धृष्टद्युम्न महाभारत में पाण्डव सेना के प्रधान सेनापति थे।

वृत्तासुर का जन्म भी यज्ञ के तंत्र प्रयोग से हुआ था उसके शरीर पर किसी अस्त्र−शस्त्र का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता था आध्यात्मिक साधना से अनुप्राणित ऋषि दधिचि की हड्डियों से बने वज्र से ही उसे मारा जा सका था। प्राणवान वातावरण में साधना द्वारा जागता प्रचण्ड जैव विद्युत गर्भस्थ शिशुओं में विलक्षण प्रतिभाएँ जागृत कर देती है। इसी आधार पर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में लव कुश महर्षि कण्व के आश्रम में भरत महर्षि जमदग्नि के आश्रम में वत्सराज उदयन आदि अद्भुत प्रतिभा लेकर जन्मे विकसित हुए।

ब्रह्मांडीय चेतना का प्रकृति का एक परम्परागत ढंग लुढ़क रहा है। उसमें सीमित या व्यापक परिवर्तन कर सकने की क्षमता ब्रह्मांडीय चेतना के स्पर्श एवं उलट-पुलट से सम्भव है। इस प्रकार मनुष्य चाहे तो अपनी अध्यात्म ऊर्जा के सहारे ब्रह्मांड की भूगोल की परिस्थितियों में आवश्यक एवं उपयोगी परिवर्तन कर सकता है। ब्रह्मांडीय चेतना उससे बहुत बड़ी सीमा तक प्रभावित हो सकती है।

दक्षिणेश्वर में प्रकृति पर चेतना के प्रभाव की चर्चा चल रही थी एक भक्त बोले के प्रकृति के स्वभाव से एक पौधे में एक ही प्रकार के फूल लगते है। पर क्या चेतना के प्रभाव से दो तरह के भी उग सकते है। परमहंस जी ने कहा है।

दूसरे दिन जब भक्त आये तो उन्हें बगीचे में एक ही डाली पर गुलाब के दो फूल एक लाल एक सफेद खिले दिखे। आश्चर्य में भरे हुए वे परमहंस जी के पास पहुँचे तो वे मुस्कुरा भर दिए। शक्ति सम्पन्न महापुरुषों के लिए यह एक सामान्य उपक्रम है। पर जन सामान्य को चेतन सत्ता की सामर्थ्य का विश्वास दिलाने के लिए ही वे कभी कभी ऐसे प्रयोग करते है। यह प्रदर्शन के लिए नहीं होता न ही होना चाहिए।

भागीरथ जी द्वारा तपशक्ति से स्वर्ग में प्रवाहित गंगा को पृथ्वी पर प्रवाहित करने का सर्वविदित आख्यान प्रकृति गत चेतना से तादात्म्य व उस पर मानवी चेतना के अधिकार का सूचक है। अत्रि पत्नी अनुसूया जी ने चित्रकूट क्षेत्र में सुरसरि की एक मंदाकिनी रूप में अपने तपोबल से प्रवाहित की थी। ये प्रसंग यहां उस विज्ञान की महत्ता समझाने के लिए दिये गये है। जिसे साधारणतया प्रत्यक्षवादी नकारते देखे जाते हैं। ये सारे प्रकृतिगत परिवर्तन आज भी संभव हैं।

ब्राह्मीचेतना परमात्म सत्ता को कहते हैं। वह सृष्टि का अधिपति है। इतना ही नहीं उसने प्रकृति का और अपना निज का समूचा ढांचा मानवी काय कलेवर में समाहित कर रखा है। जो ब्रह्मांड में है। सो पिंड में मौजूद है। जो परमात्मा में है। उसे आत्मा में देखा और पाया जा सकता है।

परब्रह्म अकेला एक व्यक्ति जैसा नहीं है। उसके साथ स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर की अगणित आत्माएं जुड़ी हुई है। इनमें से कुछ का स्तर अति साधारण है। कुछ का प्रमुख देव शक्तियों जैसा पर सभी स्वच्छन्द नहीं है। ब्रह्म के साथ वे उसी प्रकार जुड़ी हई है। जस प्रकार की धागे में माला के मनके गुंथे होते हैं। बिजली अपने तारों के टेड़े–मेड़े मोड़ों को पार करती हई संबद्ध समूचे तन्तु जाल में बिखर जाती है। इस बनावट के किसी भी कोने में विद्युत की उपस्थिति देखी जा सकती है। और अभीष्ट प्रयोजनों में काम लाई जा सकती है। इस प्रकार कुण्डलिनी न केवल ब्रह्मांडीय चेतना के हर क्षेत्र के साथ सम्बन्ध जोड़ सकती है। वरन् परमात्मा के साथ जुड़े हुए हर स्तर की आत्मा के साथ आवश्यकतानुसार अपने सम्बन्ध बना सकती है। यह सम्बन्ध स्थापन निरुद्देश्य नहीं होते उसके पीछे महत्वपूर्ण कारण रहते है। ओर वे इस सम्बन्ध सूत्र के सहारे पूरे भी होते है। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। यदि साधक प्रकृति और परमेश्वर के प्रत्येक घटक के साथ अपना संबंध जोड़ लेता है। ओर उस अनुबन्ध के सहारे उपयोगी कृत्य करता है। तो उसे ऐसा ही समझा जा सकता है। जैसा कि ईंधन आग के साथ जुड़कर अग्नि रूप हो जाता है।

एक्सचेंज की मारफत टेलीफोन का कनेक्शन किसी नगर किसी व्यक्ति से मिलाया जा सकता है। इसी प्रकार ब्रह्म चेतना के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेने पर विश्व के किसी भी व्यक्ति या प्राणी तक अपना संदेश संकेत विदान वह है जिसने आत्मज्ञान पाया और अपने को उत्कृष्ट बनाया अहंकारी से मनुष्य राक्षस बनते है। सज्जनता और नम्रता के बलबूते ही मनुष्य देवत्व से अलंकृत है।

अनुरोध आग्रह पहुँचाया जा सकता है। और साथ ही उसकी क्षमता या इच्छा के अनुरूप उतर भी पाया जा सकता है ब्रह्म संस्थान ब्रह्ममय है। यहीं पर सहस्रार कमल अवस्थित है। इसे उतरी ध्रुव भी कहा जाता है। ब्रह्मांडीय चेतना प्रकृति शक्ति का शरीर में अवस्थित क्षेत्र मूलाधार चक्र है। विद्युत प्रसारण का मूल केन्द्र इसी को माना गया है मूलाधार और सहस्रार को परस्पर देवयान मार्ग से मेरुदण्ड जोड़ता है। यह ब्रह्मदंड भी है। षटचक्रों एवं इड़ा पिंगला सुषुम्ना का त्रिवेणी संगम भी यही है। कुण्डलिनी महाविज्ञान का यह सारा ऊहापोह इस चिर पुरातन विद्या की महत्ता एवं साधना पराक्रम से अप्रत्याशित को भी कर दिखाने चेतना पर नियंत्रण स्थापित कर सकने की मानवी सामर्थ्य का रहस्योद्घाटन करता है।


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