किसी शिष्य ने पूछा मनुष्य शक्तियों का भण्डार है फिर वह डूबता गिरता क्यों है? गुरु ने इसके उत्तर में अपना कमण्डलु पानी पर फेंक दिया और दिखाया कि वह ठीक प्रकार तैर रहा है। दुबारा उसे लिया और तली में छेद करके फेंका तो वह डूब गया।
गुरु ने बताया कि असंयम के छेद हो जाने से दुर्गुण घुस पड़ते हैं और मनुष्य को डूबा देते हैं। गाय का दूध यदि छलनी में दुहा जाय तो वह जमीन पर गिरेगा गन्दगी उत्पन्न करेगा। पालने का लाभ न मिलेगा। लाभ तभी है जब दुहने का पात्र बिना छेद का हो। इन्द्रिय शक्ति मानसिक शक्ति को यदि कुमार्ग के छेदों में बहने दिया जाय तो मनुष्य की क्षमता भी इसी प्रकार समाप्त होकर रहेगी।
****
लोमस ऋषि ने अपने पुत्र शृंगी ऋषि को सच्चे अर्थों में आत्म-संयमी तपस्वी बनाया। विद्वता और योग प्रवीणता तो सीमित थी। संयम तप से उनकी वाणी इस योग्य हो गई थी कि शाप वरदान दे सकें। पिता ने उन्हें आश्रम में उपजा अन्न ही खाने दिया था और स्त्रियाँ संसार में होती भी हैं या नहीं यह जानकारी तक उन्हें लगने नहीं दी थी।
दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ में वाक् सिद्धि वाले आचार्य की आवश्यकता पड़ी। यह सिद्धि इन्द्रिय संयम के बिना किसी को उपलब्ध होती नहीं। शृंगी ऋषि को लेने दशरथ और वशिष्ठ लोमश के आश्रम में पहुँचे। दशरथ को वशिष्ठ के इस कथन पर विश्वास न हो रहा था कि आहार और वासना के सम्बन्ध में कोई इतना संयमी हो सकता है।
परीक्षा के लिए अप्सराएँ बुलाई गईं वे मधुर मिष्टान्न लेकर आश्रम में पहुँची। शृंगी ने उन महिलाओं को भी किसी आश्रम के विद्यार्थी ब्रह्मचारी समझा और मिष्ठान्नों को किन्हीं वृक्षों के फल होने का अनुमान लगाने लगे। इस अनभिज्ञता पर दशरथ को विश्वास हो गया कि वे सच्चे अर्थों में इन्द्रिय संयमी तपस्वी हैं।
पुत्रेष्टि यज्ञ के लिए लोमश से अनुरोध करके शृंगी ऋषि को अयोध्या लाया गया। उनके द्वारा उच्चारित मन्त्र सफल हुए। तीनों रानियों के चार पुत्र उसी यज्ञ चरु से जन्मे। इससे पूर्व साधारण ब्राह्मणों द्वारा किये गये कितनी ही बार के यज्ञ, मन्त्र, आशीर्वाद निष्फल हो चुके थे। क्योंकि वे संयमी न थे।
शृंगी ऋषि का वरदान ही नहीं शाप भी वैसा ही अमोघ था। एक बार उनने परीक्षत द्वारा अपने पिता का अपमान देखकर एक सप्ताह में साँप के काटने से मृत्यु होने का शाप दिया था। वह भी कारगर होकर रहा।
****
ऋषि तपस्वी ब्रह्मचर्य पूर्वक रहते थे। वासना संयम के कारण वे सामान्य आहार और तितीक्षारत अभावग्रस्त परिस्थितियों में रहते हुए भी बलिष्ठ, समर्थ, निरोग एवं दीर्घजीवी रहते थे। लक्ष्मण ब्रह्मचर्य साधना से ही अजेय मेघनाद का वध कर सके। भीष्म पितामह को स्वेच्छा मरण की सिद्धि इसी आधार पर उपलब्ध हुई थी। शंकराचार्य, समर्थ रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द आदि को असाधारण क्षमता सम्पन्न कराने में उनका ब्रह्मचर्य ही एक बहुत बड़ा आधार था। गाँधीजी ने तेतीस वर्ष की आयु में आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। उनकी प्रभाव प्रतिभा में इस संयमशीलता का भी बहुत बड़ा योगदान था।