आत्मबोध से ही जीवन सम्पदा की सार्थकता

April 1984

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शारीरिक सामर्थ्य एवं विशेषताओं की दृष्टि से अन्यान्य जीवों से जब मनुष्य की तुलना करते हैं तो उनका पलड़ा कहीं अधिक भारी बैठता है। आकार ही नहीं शक्ति में भी हाथी, ह्वेल, शेर, गैंडा, चीता जैसे जीव मनुष्य से बहुत आगे हैं। अस्तु जो अपने शारीरिक बल का दर्प करते अथवा शरीर की मांसलता को देखकर इतराते रहते हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि इस क्षेत्र में तो दूसरे जीव उन्हें अत्यन्त पीछे छोड़ जाते हैं। मनुष्येत्तर जीवों की अन्य विशेषताएँ मनुष्य को कहाँ प्राप्त है? हिरन तीव्र गति से कुलाचें भरता दौड़ सकता है। घोड़े की रफ्तार देखते ही बनती है। बैल कितने ही क्विंटल का वजन अपने कन्धों के सहारे खींचता है। सिंह की स्फूर्ति एवं शक्ति बेमिसाल है। बुलबुल और सारिका के मधुर कण्ठ मनुष्य को भी मात देते हैं। सर्प एवं कच्छप अनेकों वर्षों तक जीवित रहते हैं। मधु मक्खियाँ अपरिमित मात्रा में मधु संचय करती हैं। कुत्ते की घृाण शक्ति अद्भुत होती है तथा वफादारी के क्षेत्र में वह मनुष्य को भी पीछे छोड़ देता है। गिद्ध में अत्यन्त तीक्ष्ण दृष्टि होती है, मीलों दूर मरे पड़े जीवों का वह पता लगा लेता है। ऊँट का आहार कड़वी नीम है, उसी को खाकर वह भारी श्रम करता है। उन्मुक्त आकाश में विचरण करने की सामर्थ्य तो पक्षियों में ही है। उल्टी धारा को चीरकर तैरती मछलियाँ ही देखी जाती हैं।

कितने ही जीव, पशु पक्षी ऐसे हैं जिन्हें प्रकृति की घटनाओं का, विभीषिकाओं का पूर्वाभ्यास हो जाता है, सुरक्षा की तद्नुरूप व्यवस्था भी वे बना लेते हैं। मौसम की प्रतिकूलताओं का सामना करने की प्रचण्ड जीवट सामर्थ्य भी उन्हें प्रकृति से ही प्राप्त है। हिमाच्छादित प्रदेशों में हिरन-भालू नंग धड़ंग घूमते रहते हैं पर उनका बाल भी बाँका नहीं होने पाता। वनों में घूमने वाले शेर, चीते, रीछ, वानर, हाथी तथा अन्य वनचरों को भीषण सर्दी में कौन गर्म कपड़े प्रदान करता है। शरीर की जीवनी शक्ति ही उनके रक्षा कवच का काम करती तथा सर्दी गर्मी में सुरक्षा प्रदान करती है। आज के विषाक्त वातावरण में भी वे अशक्तता, रुग्णता के अभिशाप से कोसों दूर हैं।

इस प्रकार सृष्टि की इस विलक्षण रचना में अनेकों जीव ऐसे हैं जिन्हें कितने ही क्षेत्रों में मनुष्य से कहीं अधिक विशिष्टता हासिल है। डील-डौल, बल पौरुष, शब्द स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि की ग्रहण क्षमता, श्रमशीलता, प्रतिरोधात्मक शक्ति सहयोगात्मक वृत्ति, दीर्घायुष्य आदि विशेषताएँ उनकी विशेष स्तर की हैं। उन विशेषताओं की दृष्टि से मनुष्य कहीं पिछड़ा है। पर मात्र शारीरिक क्षमताओं के आधार पर अन्य जीव जन्तुओं पशु पक्षियों की वरिष्ठता सिद्ध नहीं हो जाती। जो बातें अतिरिक्त विशेषताएँ मनुष्य को पशुओं से अलग करती उसका वर्चस्व सिद्ध करती अथवा महान बनाती हैं वे अन्य किसी भी मनुष्येत्तर जीव को प्राप्त नहीं हैं। प्रख्यात विचारक डा. सी. एम. जोड़ ने मानवी विशिष्टताओं को तीन विभूतियों के रूप में विभक्त किया है- बौद्धिक क्षमता, नैतिक भावना तथा सौन्दर्य की अनुभूति होना।

मनुष्य विचार कर सकता है जबकि अन्यान्य जीव ऐसा नहीं कर सकते। अपनी नैसर्गिक जिज्ञासा से अभिप्रेरित होकर वह प्रकृति के अगणित रहस्यों को अनावृत्त करने के लिए प्रवृत्त हुआ। ज्ञान विज्ञान की असंख्यों धाराएँ उसकी ही परिणति हैं। इतिहास भूगोल, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान, रसायन शास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन शास्त्र जैसे विषयों के आविष्कार से लेकर युग की अगणित वैज्ञानिक उपलब्धियों के पीछे मानवी बुद्धि की चमत्कारी सामर्थ्य ही काम करती दिखायी पड़ती है। उसका ही अंश पाकर कोई कलाकार बन जाता है तो कोई साहित्यकार, कोई विचारक बनता है तो कोई मनीषी। वैज्ञानिक आविष्कारक प्रभृति प्रतिभाएँ बुद्धि के गर्भ से ही पद होती हैं। संसार का काया पलट कर देने तथा पाषाण युग से आज के परमाणु युग में मानव को ला पटकने का श्रेय यदि किसी को जाता है तो निश्चित ही वह विलक्षण बुद्धि को जाता है। शिश्नोदर जीवन के इर्द-गिर्द घूमते रहने तथा किसी प्रकार शरीर का परिपोषण करते रहने भर की समझ तो अन्य जीवधारियों को भी प्राप्त है। निश्चित ही परमात्मा ने अतिरिक्त बुद्धि का एकमात्र अनुदान मनुष्य को देकर अपनी उदारता का परिचय दिया है। साथ ही यह जिम्मेदारी भी सौंपी है कि वह उस अनुदान का सदुपयोग करें।

मनुष्य की दूसरी विशेषता भावना नैतिक भावना के रूप में मिली हुई है। नैतिक मर्यादाओं का अनुबन्ध पशुओं के लिए कोई महत्व नहीं रखता पर मनुष्य के साथ ऐसी बात नहीं है। बुरे से बुरे व्यक्ति भी अपने सगे सम्बन्धियों पत्नी बच्चों के प्रति कर्त्तव्य परायण होते हैं। न्यूनाधिक रूप से नैतिकता की भावना हर किसी में पायी जाती है। अशिक्षित व्यक्ति को भी अच्छे बुरे का ज्ञान होता है। असभ्य और बर्बर जातियाँ भी अपने समुदाय परिकर में मर्यादाओं का निर्वाह करती देखी जाती हैं। व्यभिचारी भी माँ बहन के रिश्तों का ध्यान रखते हैं। पशुओं के लिए माँ बहन तथा पत्नी के बीच कोई भेद नहीं रहता। नैतिक भावना के बीजांकुर हर मनुष्य में विद्यमान हैं। पोषण एवं विकास के लिए वह छटपटाता रहता है। उस भावना पर कुकृत्यों द्वारा जब भी कुठाराघात होता है, आत्मा की प्रताड़ना भी मिलती है। जो उसकी उपेक्षा करते हैं, आत्म गरिमा से गिर जाते तथा नर पशुओं की श्रेणी में जा पहुँचते हैं।

सौन्दर्य की भावना- रस की कामना मनुष्य की तीसरी विशेषता है जो उस पशु समुदाय से अलग करती है। प्राकृतिक सौन्दर्य तथा रूप-लावण्य उसके मन को मुग्ध कर देता है। उदीयमान रवि, शुभ्र शीतल चन्द्रमा, मोतियों की तरह चमकते सितारे खिलते-महकते पुष्प, कलकल निनादिनी सरिता, कलरव करते पक्षी सभी मानव मन को एक अनिवर्चनीय आनन्द से भर देते हैं। रस की कामना से ही अभिप्रेरित होकर मनुष्य ने संगीत गायन, वादन आदि को जीवन में स्थान दिया। जिस शिश्नोदर परितृप्ति के क्षणिक आनन्द में दूसरे जीव सन्तुष्ट होते देखे जाते हैं। मानव को वह निमग्न सहज ही वह अनुभूति नहीं देता। अपनी सौन्दर्य भावना तथा रस की कामना की परितृप्ति के लिए ही मनुष्य मनोरंजन के विविध सरंजाम जुटाता है। मनुष्य सौन्दर्य उपासना के फलस्वरूप ही ललितकलाओं आविर्भाव हुआ। अजन्ता-एलोरा जैसी अद्भुत कलाकृतियाँ माइकेल एन्जेलो एवं पिकासों के चित्रांकन इस शाश्वत सौन्दर्य साधना की ही परिणति हैं।

उच्चस्तरीय आनन्द प्राप्ति की कामना मूल वृति रूप में हर मनुष्य में पायी जाती है। भ्रमवश वह विषयों की क्षणिक परितृप्ति को ही सच्चा सुख मान बैठता है। अग्नि में घृत डालने की तरह वह अतृप्ति की अग्नि और भी प्रज्वलित होती जाती तथा अपने दावानल में मनुष्य की समस्त क्षमताओं को भस्मीभूत कर डालती है। अन्ततः पश्चात्ताप ही हाथ लगता है। सौन्दर्य की भावना आत्म दर्शन की ओर अभिमुख हो सके तो मनुष्य सौन्दर्य के मूल स्रोत के पास पहुँचकर वह सब कुछ प्राप्त कर सकता है जिसके लिए जीवन पर्यन्त भटकता रहता है।

मनुष्य को मिली अतिरिक्त विशेषताएँ- अनुदान उसकी विशिष्टता सिद्ध करते हैं पर इस तथ्य का भी बोध कराते हैं कि वह कभी भी आत्म गरिमा को भूले नहीं। पशुओं की तरह वह भी अपनी क्षमताओं को नष्ट करता रहा तो प्राप्त उन विशेषताओं की सार्थकता कहाँ रही? मनुष्य की विशिष्टता क्या रही? निश्चित उनकी सार्थकता इस बात में सन्निहित है कि सुर दुर्लभ जीवन का मनुष्य सदुपयोग करें। क्षमताओं को व्यर्थ न गँवाये। जिन प्रयोजनों के लिए वे मिली हैं उनकी पूर्ति में उन्हें लगाये। इसी में जीवन की सार्थकता है और मनुष्य जीवन की गरिमा भी सन्निहित है।


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