मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है।

April 1984

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घासपात की तरह मनुष्य भी माता के पेट से जन्म लेता है। पेड़ पौधों की तरह बढ़ता है और पतझड़ के पीले पत्तों की तरह जराजीर्ण होकर मौत के मुँह में चला जाता है। देखने में तो मानवी सत्ता का यही आदि-अन्त है। प्रत्यक्षवाद की सच्चाई वहीं तक सीमित है, जहाँ तक इन्द्रियों या उपकरणों से किसी पदार्थ को देखा नापा जा सके। इसलिए पदार्थ विज्ञानी जीवन का प्रारम्भ व समाप्ति रासायनिक संयोगों एवं वियोगों के साथ जोड़ते हैं और कहते हैं कि मनुष्य एक चलता-फिरता पेड़-पादप भर है। लोक परलोक उतना ही है जितना कि काया का अस्तित्व। मरण के साथ ही आत्मा अथवा काया सदा-सर्वदा के लिये समाप्त हो जाती है।

बात दार्शनिक प्रतिपादन या वैज्ञानिक विवेचन भर की होती तो उसे भी अन्यान्य उलझनों की तरह पहेली बुझोअल समझा जा सकता था और समय आने पर उसके सुलझने की प्रतीक्षा की जा सकती थी। किन्तु प्रसंग ऐसा है जिसका मानवी दृष्टिकोण और समाज के गठन, विधान और अनुशासन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। यदि जीवन का आदि-अन्त- जन्म-मरण तक सीमित है तो फिर इस अवधि में जिस भी प्रकार जितना भी मौज-मजा उड़ाया जा सकता हो क्यों न उड़ाया जाय? दुष्कृतों के फल से यदि चतुरतापूर्वक बचा जा सकता है तो पीछे कभी उसका दण्ड भुगतना पड़ेगा, ऐसा क्यों सोचा जाय? अनास्था की इस मनोदशा में पुण्य परमार्थ का- स्नेह सहयोग का-भी कोई आधार नहीं रह जाता। तब मत्स्य न्याय अपनाने, जंगल का कानून बरतने और “जिसकी लाठी तिसकी भैंस” वाली मान्यता का सहज ही बोलबाला होता है। यह जीवन दर्शन मनुष्य को नैतिक अराजकता अपनाने के लिए प्रोत्साहित करता है। समाज के प्रति निष्ठावान रहने की तब कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।

जीवन-मरने के बाद भी बचा रहता है, इस मान्यता को अपनाने से ही कर्मफल के सिद्धान्तों की पुष्टि होती है। नरक स्वर्ग का दण्ड पुरस्कार मिलने- यश-अपयश की चिन्ता करने पर ध्यान जाता है। अन्यथा जब मरण के साथ ही जीवन का अन्त होना हो तो फिर नीति मर्यादा का बाँध टूटे बिना रहता नहीं। तब आक्रमण, आतंक की अपराधी रीति-नीति अपनाने और सरलतापूर्वक अधिक लाभ उठाने के मार्ग पर चल पड़ना ही बुद्धिमता पूर्ण प्रतीत होता है। नास्तिकता का यही दर्शन व्यक्ति को पतित और समाज को न्याय रहित बनने की खुली छूट देता है।

जब दृश्य ही सब कुछ है तो न आत्मा की मान्यता टिकती है और न ईश्वरीय न्याय, विधान, अनुशासन का कोई महत्व प्रतीत होता है। यही है परोक्ष की अवमानना जिसे अनास्था या नास्तिकता कहा जाता है। यह दर्शन की एक शैली नहीं, वरन् सर्वतोमुखी पतन का राजमार्ग है। जो इसे अपनायेंगे तो वे सच्चे मन से नीति निष्ठा की आवश्यकता अनुभव न करेंगे। दबाव से जितना अंकुश सहन कर सकेंगे उतने तक ही वाँछित रहेंगे। अवसर मिलते ही दुष्टता एवं भ्रष्टता अपनाने से चूकेंगे नहीं। इसकी आत्यन्तिक परिणति क्या हो सकती है, उसकी कल्पना करने भर से दिल दहलने लगता है।

मरणोत्तर जीवन का विश्वास ही कर्मफल की पुष्टि करता है। उस मान्यता को जीवित रखकर ही सदाचार और परोपकार की लोकोपयोगी गतिविधियाँ जीवित रखी जा सकती है। यह दार्शनिक आवश्यकता नहीं एक सुनिश्चित सचाई भी है जिसे हर आधार पर सिद्ध किया जा सकता है।

इस सन्दर्भ में फोनोग्राफी, प्रकाश के बल्ब के आविष्कर्ता टामस एडीसन ने अत्यन्त बोधगम्य प्रकाश डालते हुए अपनी पुस्तक “द अल्टीमेट साइन्स” में लिखा है। “प्राणी की सत्ता उच्चस्तरीय विद्युत कण गुच्छकों के रूप में तब भी बनी रहती है जब वह शरीर से पृथक् हो जाती है। मृत्यु के उपरान्त यह गुच्छक विधिवत् तो नहीं होते, पर वे परस्पर सम्बद्ध बने रहते हैं। ये बिखरते नहीं वरन् आकाश में जिस प्रकार मधुमक्खी छत्ता छोड़कर विचरती है उस प्रकार विचरते हैं। मधुमक्खियाँ पुराना छत्ता भी एक साथ छोड़ती हैं, नया भी एक साथ बनाती हैं। इसी प्रकार पुनः जीवन चक्र में प्रवेश करते और नया जन्म धारण करते समय उच्चस्तरीय विद्युत कणों के गुच्छक अपने साथ स्थूल शरीर से आस्थाओं, सम्वेदनाओं का समुच्चय साथ लेकर परिभ्रमण करते रहते हैं।” एक भौतिकविद् के परोक्ष जगत सम्बन्धी ये विचार निश्चित ही कोई सनक या भ्रांति युक्त मान्यता नहीं है, अपितु एक सच्चाई की साक्षी में व्यक्त अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी तथ्य को प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक अब्राहम मेस्लोव ने इस प्रकार लिखा है- “भौतिकशास्त्र और जीवशास्त्र के क्षेत्र में आने वाले स्थूल शरीर के अतिरिक्त जीवधारियों का एक सूक्ष्म शरीर भी है जो अलौकिक क्षमताओं से भरा पड़ा है। यह शरीर मृत्यु के बाद भी बना रहता है।

अमेरिका में “क्लिसा क्लाउड चैम्बर” द्वारा आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी अनेकों प्रयोग किये गये हैं। यह चैम्बर एक खोखला पारदर्शी सिलेण्डर है। इसके भीतर से हवा पूरी तरह निकालकर, भीतर रासायनिक घोल पोत देते हैं। इससे सिलेण्डर में एक मन्द कुहरा छा जाता है। इस कुहरे से यदि एक भी इलेक्ट्रान गुजरे तो फिट किये गये शक्ति सम्पन्न कैमरों द्वारा उनका फोटो ले लिया जाता है। सिलेण्डर में होने वाली हर हलचल का चित्र आ जाता है।

इस चैम्बर में जीवित चूहों और मेंढ़कों को रखकर बिजली की धारा प्रवाहित कर उनको प्राणहीन किया गया। देखा गया कि मरने के बाद चूहों या मेंढ़कों की हूबहू वही अनुकृति उस रासायनिक कुहरे में तैर रही है। उस आकृति की गतिविधियाँ संबंधित प्राणी के जीवन काल की ही गतिविधियों के अनुरूप थीं। क्रमशः यह सत्ता धुँधली होती चली गई और विलुप्त होकर कैमरे की पकड़ से बाहर हो गई।

परामनोवैज्ञानिक विलियम मैकडूगल ने आत्मा के बारे में अनेकों प्रयोग परीक्षण किये हैं जिनमें मरणासन्न रोगी का मृत्यु से पूर्व भार लिया गया और मरणोपरान्त तौल की गई तो उस भार में एक औंस अर्थात्- 30 ग्राम तक की कमी पायी गयी। इससे मैकडूगल इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि शरीरस्थ कोई सूक्ष्म तत्व ही जीवन का आधार है। जिसके न रहने पर भार में कमी हुई है। सम्भवतः जानकारी न रहने अथवा मृत्यु को ही मानवी काया की चरम परिणति मानने वालों ने ‘ऑकल्ट’ की इस खोज को मान्यता न दी हो, फिर भी इससे मरणोत्तर जीवन संबंधी आर्ष मान्यताओं की प्रतिष्ठा कम नहीं होती।

थियोसोफिकल सोसायटी की जन्मदात्री मैडम ब्लावटूस्की के बारे में कहा जाता है कि वे अपने को कमरे में बन्द करने के उपरान्त भी जनता को सूक्ष्म शरीर से दर्शन और उपदेश देती थीं। कर्नल टाउन शेंड के बारे में भी ऐसे ही प्रसंग कहे जाते हैं। पाश्चात्य योग साधकों में से हैवर्टलमान, लिण्डर्स, एण्ड्र जैक्शन, डॉ. माल्थ, जेल्थ, कारिंगटन, डुरावेल मुलडोन, आलिवर लाज, पावर्स, डा. मेस्मर, एलेक्जेण्ड्रा डेविड नील, पाल ब्रण्टन आदि के अनुभवों और प्रयोगों में सूक्ष्म शरीर की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण उपस्थित किए गए हैं। जे. मुलडोन अपने स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर को पृथक करने के कितने प्रदर्शन भी कर चुके थे। इनने इन सबकी चर्चा अपनी पुस्तक “दि प्रोजेक्शन ऑफ एस्ट्रल बॉडी” में विस्तार पूर्वक की है।

शरीर के न रहने पर भी आत्मा का अस्तित्व बने रहने के बारे में जिन पाश्चात्य दार्शनिकों और तत्ववेत्ताओं ने अधिक स्पष्ट समर्थन किया है उनमें राल्फ वाल्डो ट्राइन, मिडनी फ्लोवर, एला ह्वीलर, बिलकाक्स विलिमय वाकर, एटकिंसन, जेम्स, केनी आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। पुराने दार्शनिकों में से कार्लाइल, इमर्सन, काण्ट, हेगल, थामस, हिलमीन, डायसन आदि का मत भी इसी प्रकार का था। डेल्कार्ट सील को पीनियल में अवस्थित मानते थे एवं मृत्यु के बाद उसके नयी काया में अवतरित होने की मान्यता के समर्थक थे।

इस संबंध में सामान्य व्यक्तियों की अनुभूतियाँ भी कम विलक्षण नहीं हैं। न्यूयार्क (अमेरिका) की एक दस वर्षीय बालिका डेजी ड्राइडन पेट की खराबी और टाइफ़ाइड की बीमारी से कृशकाय हो गई थी। इसा अवस्था में पहुँचने पर अचानक कभी-कभी अपने चारों ओर के भौतिक जगत के अतिरिक्त एक अन्य अलौकिक जगत की बातें करने लगती।

दसवें वर्ष जिस दिन उसकी मृत्यु हुई उस दिन उसने अपना चेहरा देखने के लिए दर्पण माँगा। दर्पण में अपना चेहरा देखने के बाद वह अपनी माँ से बोली- “मेरी यह देह जर्जर हो गई है। यह उस खूँटी पर टंगी पुरानी पोशाक की तरह हो गई है जिसे मम्मी तुमने पहनना छोड़ दिया है। मैं भी इस पुरानी देह को उतार कर एली की भाँति दिव्य देह धारण करूँगी।”

एली कौन है? - माँ के पूछने पर डेजी ने बताया यह वही व्यक्ति है जो हवा में तैरता हुआ सा आता है और उसे मृत्यु के बारे में बताता है। आज रात तक मैं भी चली जाऊँगी।” अगले दिन ठीक ऐसा ही हुआ। ठीक दिन के साढ़े ग्यारह बजे उसने अपनी बाहें फैलाई व चिरनिद्रा में सो गयी।

गत शताब्दी का विज्ञान आत्मा के अस्तित्व से इन्कार करने में जितना कट्टर था अब उतना नहीं रहा। शरीर शास्त्र के मूर्धन्य ज्ञाता अब यह मानने लगे हैं कि मरण थकान की परिणति है। भीतरी जीवनी शक्ति के अत्यधिक असमर्थ हो जाने पर मृत्यु के मुख में जाना पड़ता है। इतने पर भी बहुत समय तक शरीर की स्थिति ऐसी बनी रहती है कि यदि उसे समुचित विश्राम देकर थकान मिटाने का उपचार बन पड़े तो कुछ समय उपरान्त मरी हुई काया में फिर जीवन संचार हो सकता है। गहरी थकान को मिटाने के लिए जिस प्रकार समाधि निद्रा का उपाय अपनाया जाता है उसी प्रकार भौतिक विज्ञान में शीत समाधि का सिद्धान्त स्वीकार किया गया है। यदि थोड़ा-सा भी जीवन किसी शरीर में शेष हो तो उसे हिम समाधि में लम्बे समय तक रखने के उपरान्त थकान मिटते ही पुनर्जीवन का आशा की जा सकती है।

दो दशक पूर्व समाचार पत्रों में पश्चिमी जर्मनी की एक घटना प्रकाशित हुई थी। एक अधेड़ महिला ने विष खा लिया था। उसके यकृत और गुर्दो ने काम करना बन्द कर दिया, मात्र हृदय की धड़कन में जीवन के कुछ चिन्ह दिखाई दे रहे थे। डा. लैम्फल ने उसके मृत प्रायः शरीर को पारदर्शी काँच के बक्स में रखकर बर्फ भर दी। 42 दिन उसी अवस्था में रखने के पश्चात् उन्होंने लाश को बाहर निकाल कर धीरे-धीरे गर्मी देना शुरू किया तो उसमें कुछ हलचल मालूम पड़ी। तीन दिन तक इस प्रकार के क्रम से वह महिला जीवित हो उठी। वैज्ञानिकों को इस बात पर सबसे अधिक आश्चर्य हुआ कि कुछ दिनों बाद वह महिला पहले से भी अधिक स्वस्थ एवं सुन्दर दिखाई दे रही थी।

कोश विघटन प्रक्रिया को रोकने के लिए कोश विश्राम पद्धति से शरीर को अति शीत में जमाकर यू.एस.ए. स्थित लाइफ एक्स्टेंशन सोसायटी (जीवन वृद्धि संस्थान) द्वारा अनूठे प्रयोग किये गये हैं। उनका विश्वास है कि इस पद्धति से कोशों को नव जीवन जैसी गतिविधि अपनाने के लिए सधाया जा सकेगा। इसके लिए चूहों को 5 डिग्री से.ग्रे. पर जमाकर बाद में सामान्य ताप देकर पुनर्जीवित करने में सफलता प्राप्त कर ली गई है। बिल्ली और कुत्तों को 203 दिन बाद पुनर्जीवित करने में भी सफलता प्राप्त कर ली गयी है। अब ये प्रयोग मनुष्य की आयु बढ़ाने जीवकोशों की मरण प्रक्रिया को निरस्त कर उनकी क्रियाशीलता बढ़ाने के रूप में भी किये जा रहे हैं। “एजींग” पर की जा रही यह शोध सम्भवतः मानव को अमर बनाने की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण योगदान दे।

लेकिन मृत शरीर को पुनर्जीवित करने के प्रयास में रत पदार्थ विज्ञानी वर्तमान परिस्थितियों में यह मानने के लिए भी अब विवश हैं कि मरने के उपरान्त भी आत्मा की सत्ता बनी रहती है और उस स्थिति में भी उसकी जीवनचर्या किसी न किसी रूप में चलती रहती है।


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