‘प्रज्ञा’ मानव को प्राप्त दैवी अनुदान

April 1984

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सुविधा साधन जो मनुष्य को प्राप्त है, वे विज्ञान के अनुदान हैं। दूसरी और अध्यात्म के वरदान रूप में उसे प्रतिभा मिली हुई है। दोनों की ही प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए अपनी-अपनी उपयोगिता और आवश्यकता है। पदार्थों की अनगढ़ता को मिटाने, उन्हें उपयोगी बनाने में विज्ञान की अपनी भूमिका है। शरीर निर्वाह, उदर पोषण, प्रजनन उमंगों एवं सुरक्षा सुविधा के अन्यान्य साधनों को अपना सकना इसी आधार पार सम्भव हो पाता है। यदि मानवी काया में जन्म लेने का एकमात्र उद्देश्य शरीर यात्रा ही हो तो इन उपलब्धियों से सन्तुष्ट रहा जा सकता है।

विधाता ने मनुष्य को इसी सीमा तक परिबद्ध रहने के लिए इस धरती पर नहीं भेजा। शरीर यात्रा से एक कदम और आगे बढ़कर आनन्द, सन्तोष, सम्मान, श्रेय, कीर्ति, उत्कर्ष जैसी कुछ उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ प्राप्त करनी हों, तो उसी आन्तरिक वरिष्ठता का अवलम्बन लेना होगा, जिसे प्रतिभा एवं अध्यात्म की भाषा में मानवी गरिमा कहा गया है। इसका सीधा सम्बन्ध दृष्टिकोण व्यवहार की उस उत्कृष्टता से है, जिसे व्यक्तित्व कहते हैं। व्यक्तित्व सम्पन्न ही महामानव कहलाते हैं, भले ही सुख सुविधाओं की दृष्टि से वे विपन्न ही क्यों न हों?

यदि सुविधा और प्रतिभा के समन्वय की, समग्रता के स्वरूप और आनन्द की अनुभूति की जा सके तो समझा जाना चाहिए कि आत्म-बोध सही अर्थों में हो गया। इससे दुरुपयोग के सीमा बन्धन का, वैभव के सुनियोजन एवं प्रतिभा चातुर्य के सदुपयोग का लक्ष्य भी सध जाता है। इसीलिए कौशल प्रतिभा एवं वैभव सुख-सुविधा के साथ उस ‘सुमति’ की भी आवश्यकता पड़ती है, जिसे परिष्कृत भाषा में ‘प्रज्ञा’ के नाम से पुकारा जाता है।


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