नारदजी का एक भक्त था। वे उसे वानप्रस्थ लेने की शिक्षा देते, पर वह जिस-तिस बहाने टालता ही रहता। दिन गुजरे और वह बूढ़ा होकर मर गया। नारद जी उधर से गुजरे और भक्त को न पाया तो दिव्य दृष्टि से खोजा। देखा तो वह बैल बनकर उसी घर में रह रहा था। नारद जी ने का में कहा- “अब तो चलो, इस दुर्गति में पड़े रहने से क्या लाभ है?” बैल ने कहा- “कठिन श्रम करके परिवार पालता हूँ। अभी फुरसत कहाँ?” बहुत दिन बाद नारद जी उधर से गुजरे तो बैल मर चुका था- वह कुत्ते की योनि में पाकर उसी घर में रह रहा था। नारद जी पहचान गये, कहा- अब तो चलना चाहिए। कुत्ता बोला- चोरों के उपद्रव बढ़ गये हैं, घर न रखाऊँ तो परिवार पर क्या बीतेगी? इस बार नारद का चक्कर लगा तो उनने साँप रूप में उसे पाया। कुशल क्षेम पूछी तो कहा- “घर में चूहे बहुत हो गये हैं। अनाज खाकर परिवार को घाटा देते हैं सो उनसे निपटता रहता हूँ।”
नारद जी के पीठ फेरते ही घर वालों ने साँप देख लिया और उसे लाठियों से पीट-पीटकर मार डाला। साँप की आत्मा नारद जी के पीछे चल रही थी। उसे व्यामोहग्रस्त का उपदेश देते हुए देवर्षि ने कहा- “व्यामोह हमी लोगों के साथ चिपकते हैं लोगों का काम तो अपने बिना भी चलता रहता।”