मनुष्य की आकृति-प्रकृति ही नहीं बल्कि उसकी समूची कार्य संरचना की अन्य प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठ व अद्भुत है। बाहर से कोमल दीखने वाला यह शरीर अन्दर से पूर्णतः सशक्त व अनेकानेक सामर्थ्यों का पुंज है। उसमें प्रगति की असीम सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। यदि उन शक्ति स्रोतों को परख लिया जाय और परम पुरुषार्थ द्वारा आत्मोन्नति के लिए कटिबद्ध हुआ जाय तो प्रतीत होगा कि प्रगति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने हेतु आवश्यक वे सभी विशेषताएँ अपने भीतर ही विद्यमान हैं जिनका पहले अभाव प्रतीत होता था अथवा जिनकी जानकारी ही नहीं थी।
मनुष्य का शरीर पंचतत्वों से बना है। इसके अन्तर्गत मिट्टी, जल, वायु, अग्नि और आकाश आते हैं। वैज्ञानिकों ने भी उपकरणों के माध्यम से शरीर के रासायनिक तत्वों का विश्लेषण करके पाया कि इसमें 65 प्रतिशत ऑक्सीजन, 18 प्रतिशत कार्बन, 10 प्रतिशत हाइड्रोजन, 3 प्रतिशत नाइट्रोजन, 2 प्रतिशत कैल्शियम, 1 प्रतिशत फास्फोरस, 0.35 प्रतिशत पोटैशियम, 0.25 प्रतिशत सल्फर, 0.15 प्रतिशत सोडियम, 0.15 प्रतिशत क्लोरीन, 0.50 प्रतिशत मैग्नेशियम, 0.04 प्रतिशत लोहा और शेष 0.46 प्रतिशत भाग में आयोडीन, फ्लोरीन तथा सिलिकन है। कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने इन रासायनिक संघटकों को और भी छोटे से घेरे में सीमित कर दिया है। उनके अनुसार शरीर में 64 प्रतिशत जल, 16 प्रतिशत प्रोटीन, 14 प्रतिशत चर्बी, 5 प्रतिशत लवण और 1 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है। यह पदार्थ कितनी मात्रा में है और उनका क्या उपयोग हो सकता है, इसका विवेचन करते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि- शकर इतनी है जिससे सौ कप चाय मीठी हो सके। चूना इतना है कि जिससे मुर्गी का एक छोटा दरबा पोता जा सके। लोहा इतना है जिससे 1 इंच लम्बी कील बन सके। मैग्नेशियम इतना है कि जिससे 6 छोटी तस्वीरों में रंग भरा जा सके। पोटैशियम इतना है जिससे बच्चों की बन्दूक का एक पटाखा बन सके। गन्धक इतना है जिससे एक कुत्ते की जूँ मारी जा सके। फास्फोरस इतना कि जिससे बीस माचिस बाक्स बन जाय। चर्बी की मात्रा इतनी है, जिससे एक दर्जन साबुन के बार बनाये जा सकें। ताँबा इतना है जिससे एक पैसा ढल सके। पानी इतना जिससे एक दो माह के शिशु को नहलाया जा सके।”
उपरोक्त रासायनिक संगठनों के आधार पर अर्थशास्त्रियों ने 1936 में मानवी काया की कीमत मात्र 7 रु. 35 पैसे लगाई थी। बाद में इसमें 257 प्रतिशत की वृद्धि हुई, अतः अब 26 रु. 25 पैसे इसकी कीमत लगायी जा रही है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि स्थूल और रासायनिक दोनों ही दृष्टि से शरीर का सचमुच कोई भी मूल्य और महत्व नहीं है। तभी तो भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने विषयासक्त लोगों को बार-बार चेतावनी दी है, हे मनुष्यों! इस स्थूल शरीर का कोई मूल्य नहीं है। इसी के सुखों में डूबे मत रहो। इसमें संव्याप्त आत्म-चेतना की भी शोध और उपलब्धि करो, तभी दुःखों से निवृत्ति हो सकती है और उस परम लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव है, जिसके लिये यह काया मिली है।
मनुष्य शरीर के यन्त्र भाग पर अन्यान्य दृष्टियों से विचार करते हैं तो पता चलता है, कि किसी सम्पन्न व्यक्ति के भव्य भवन के समान मनुष्य को भी यह असाधारण देन- एक अमूल्य वरदान है। यदि उसका उच्च प्रयोजनों हेतु उपयोग किया जा सके तो मनुष्य के इसी शरीर से सभी असम्भव समझे जाने वाले कार्य सम्भव हैं।
मनुष्य के इस नश्वर शरीर में जन्म के समय 270 हड्डियों होती हैं। आयु बढ़ने के साथ-साथ उनमें से कुछ हड्डियाँ आपस में जुड़ने लगती हैं तदनुरूप उनकी संख्या घट जाती है और कुल 206 रह जाती हैं। ये हड्डियाँ आपस में 180 जोड़ों द्वारा जुड़ी हैं। इन्हीं के कारण शरीर का इधर-उधर मुड़ पाना सम्भव होता है। अस्थियों में छोटे-छोटे छेद होते हैं और भीतर से पोली होती हैं। छोटे छिद्रों के माध्यम से रक्त वाहिनियाँ भीतर प्रवेश करती हैं और अस्थियों को आहार-पोषण पहुँचाती हैं। सुरंग की तरह पोले स्थान में तीन प्रकार की कोशिकाएँ होती हैं। एक वे जो टूटने पर हड्डियों को जोड़ देती हैं। दूसरी वे जो हड्डियों की क्षमता बढ़ाती हैं और उनके कूड़े को साफ करती हैं। तीसरी वे जो रक्त द्वारा प्राप्त आहार से अस्थियों की पोषण व्यवस्था जुटाती हैं। अस्थि संस्थान सम्बन्धी इन तथ्यों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि बाह्य सौन्दर्य के आवरण में छिपे भीतरी कठोर कंकाल रूपी यह ढाँचा कुरूप दीखता भर है। वस्तुतः उसके मुड़ने, भार ढोने, घूमने आदि की अपनी जो विशेषताएँ हैं, वे ऐसी हैं जिनका दृश्यमान न सही, उपयोगिता की दृष्टि से महत्व एवं सौन्दर्य असाधारण है। इसका एक छोटा-सा उदाहरण “आर्चेज ऑफ फुट” के रूप में देखा जा सकता है। लगता है किसी कुशल इंजीनियर ने सोच-समझकर पैरों के मोड़ों पर इन कमानियों को बिठा रखा है।
मानव शरीर खनिज पदार्थों की एक समग्र खान है। अन्य रासायनिक पदार्थों की तरह उसमें खनिजों की मात्रा व भिन्नता भी अच्छी-खासी है। आर्सेनिक, क्रोमाइड, कैल्शियम, क्लोरीन, कोबाल्ट, ताँबा, फ्लोरिन, लोहा, मैग्नेशियम, फास्फोरस, पोटैशियम, सिलीकॉन, सोडियम, गन्धक, जस्ता, एल्युमीनियम, आयोडीन इत्यादि में से कोई थोड़ी मात्रा में होता है कोई अधिक, पर आवश्यकता उन सबकी अनिवार्यतः शरीर को होती रही है। निर्धारित मात्रा में तनिक-सी कमी पड़ जाने से देह का सूक्ष्म ढाँचा ही लड़खड़ाने लगता है।
कुल मिलाकर शरीर में लगभग साढ़े 6 पौण्ड खनिज पदार्थ होते हैं। आयोडीन सम्पूर्ण शरीर में एक राई के बराबर होगी, पर व्यक्तित्व के विकास, मानसिक सक्षमता में वृद्धि में उसकी सहायता से ही गाड़ी चलती है। एल्युमिनियम की जो थोड़ी-सी मात्रा रहती है, मस्तिष्क की क्रियाशीलता को मात्र उतने से ही बड़ी गति मिलती है। लोहा 1/10 औंस ही है, पर आक्सीजन ग्रहण करके सम्पूर्ण शरीर में पहुँचाने ओर वापस कार्बन-डाई-आक्साइड लेकर फेफड़ों तक पहुँचाने का कार्य लाल रक्त कण इस लोहे की शरीर द्रव्यों में उपयुक्त मात्रा होने पर ठीक तरह कर पाते हैं। एक वर्ग मिलीमीटर जगह में लाल रक्त अणुओं की संख्या 50 लाख रहनी चाहिए। यदि यह संख्या घट जाय तो शारीरिक और मानसिक थकान घेर लेगी और चेहरा पीला पड़ जायेगा। इस संकट से बचाने में यह थोड़ा-सा लोहा ही गज़ब करता है। जन्म के समय 6 महीने तक की निर्वाह व्यवस्था का जुगाड़ तो बालक अपने बलबूते बिठाकर इतना लोहा अपने साथ माँ से लेकर आता है। पीछे उसकी मात्रा खुराक से पूरी की जाती है कमी उसमें भी नहीं पड़नी चाहिए। हड्डियों का ढाँचा कैल्शियम और फास्फोरस पर खड़ा है। कैल्शियम की मात्रा 3 पौण्ड व फास्फोरस की लगभग दो पौण्ड होती है। शरीर के समस्त जीव कोण कैल्शियम रूपी सीमेन्ट से ही तो जुड़े हैं।
गन्धक की अल्प-सी मात्रा पर बालों और नाखूनों का स्वास्थ्य निर्भर है। कोबाल्ट रक्त बनाने की प्रणाली में आवश्यक भूमिका निभाता है। चमड़ी की कोमलता अन्यान्य घटकों के अलावा सिलीकॉन पर निर्भर है। दाँतों को सफेद और चमकदार बनाने में फ्ल्युरीय एवं फ्ल्युरॉइड की उपस्थिति आवश्यक मानी जाती है। ये सभी खनिज प्रायः हमें अपने नित्य के शाकाहारी भोजन से ही प्राप्त हो जाते हैं। भोजन में सब खनिजों की समुचित मात्रा न भी हों तो भी हमारे पाचक रस उन्हें परिवर्तित करके इस योग्य बना लेते हैं कि अभीष्ट मात्रा में उपरोक्त खनिजों की आवश्यकता पूरी होती रहे।
योगियों की गणनानुसार शरीर में 72000 नाड़ियाँ हैं। चिकित्सकों के हिसाब से इनकी लम्बाई 5 हजार फीट है। सन्देश लाने और ले जाने की दौहरी व्यवस्था के लिये शरीर में 20 हजार फुट तो केवल नसों का जाल बिछा है। एक फीट बिजली का साधारण तार 25 पैसे में आता है। अतः इतनी लम्बाई का तार बिछाने का मूल्य ढाई हजार होता है। यदि इस लागत में गुर्दों के रूप में कार्यरत जल फिल्टर करने का संयन्त्र, हड्डियों के बीच-बीच में विद्यमान डिस्क रूपी शॉक एब्जार्बर, शरीर में ही लीवर तथा हारमोन ग्रन्थियों में पाचक रस तथा एन्जाइम्स रूपी औषध निर्माण क्रेन जैसी माँसपेशियों की शक्ति, वातानुकूलित और प्रकाशदायक त्वचा तथा कैमरे रूपी आँखों का सम्मिलित मूल्य जोड़ा जाय तो हर शरीर अरबों-खरबों रुपये की लागत का बैठेगा। इसे बना सकना मनुष्य के बस की बात नहीं।
मात्र मनुष्य के मस्तिष्क को ही लें तो इसे तो और भी विलक्षणताओं से भरा हुआ हम पाते हैं। इस जैसा टेप रिकार्डर, मूवी कैमरा और एक समग्र विलक्षण कम्प्यूटर न आज तक संसार में कोई बना और न आगे बन सकना सम्भव है। मानव निर्मित ‘टेप रिकार्डर’ की क्षमताएँ सीमित हैं। वह चारों तरफ की विभिन्न आवृत्तियों को अलग-अलग नहीं पहचान पाता, न ही पकड़ सकता है। उसकी मशीन अपनी इच्छा से नहीं चल सकती। शब्द के साथ दृश्य का स्मरण नहीं करा सकती। इसके विपरीत मनुष्य के मस्तिष्क में पाये जाने वाले ईश्वर प्रदत्त टेप रिकार्डर कम्प्यूटर की क्षमता का मापन एवं उसका मूल्याँकन कैसे किया जाये?
एक साधारण कम पढ़े-लिखें व्यक्ति की मस्तिष्कीय याददाश्त को लिपिबद्ध किया जाये तो 10 रामायणों के बराबर पुस्तक बन जायेगी। लिथूयानिया निवासी रेवी के बारे में कहा जाता है कि उसने 2000 पुस्तकें रट कर कण्ठस्थ कर ली थीं, जबकि शैक्षणिक योग्यता उसकी अधिक नहीं थी। अमेरिका का हैरी नेल्सन एक बार में 20 खिलाड़ियों से अकेले की शतरंज खेलता और हमेशा विजय पाता था। लन्दन का कोलाबर्न जब 8 साल का था तभी 268, 336 और 125 के क्यूबरूट गुणनफल उसने एक सेकेण्ड से भी कम समय में बना दिये। भारत की शकुन्तला देवी अपनी विलक्षण प्रतिभा तथा रामानुजम गणित में प्राप्त अपनी अद्भुत विभूति के कारण प्रख्यात है।
मनुष्य की जीवनी शक्ति का उदाहरण तो और भी अचम्भित कर देने लगता है। कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय के भौतिकी प्राध्यापक डा. क्रेशटेलर ने स्वयं अपने ऊपर प्रयोग करके यह सिद्ध किया कि संसार के सबसे अधिक गरम क्षेत्र में रहकर भी औसत स्वास्थ्य वाला आदमी 100 दिन तक जीवित रह सकता है। यदि स्नायु संस्थान अपेक्षाकृत अधिक समर्थ हो तो 200 दिन तक भी जिया जा सकता है। आमतौर से अत्यधिक गर्मी वाले स्थानों के बारे में अब तक यह मान्यता प्रचलित है कि वहाँ कोई 24 घण्टे से अधिक नहीं जी सकता। डॉक्टर टेलर ने 220 डिग्री तक की गर्मी देर तक सहन करके दिखाई और वे 250 डिग्री तापमान को भी 15 मिनट तक सहन करने में सफल रहे।
ऑपरेशनों के दौरान कितने ही लोगों का एक फेफड़ा एक गुर्दा, जिगर का एक भाग, आँतों का बड़ा भाग काट कर अलग कर दिया जाता है। पर जो शेष बचा रहता है उतने से ही शरीर अपना काम चलाता रहता है और जीवित रहता है। 90 प्रतिशत गुर्दे का भाग भी यदि समाप्त हो जाय तो भी काम चलता रह सकता है।
इंग्लैण्ड का एक विमान चालक टेड ग्रीनवे, द्वितीय महायुद्ध के दौरान विपत्ति में फँस गया। भयंकर शीत व बर्फीले प्रदेश में उसे भूखे-प्यासे 10 दिन तक गुजारने पड़े। कपड़े भी गरम न थे। फिर भी वह बिना किसी विकलांगता के जीवित वापस लौटने में समर्थ हो सका।
सृष्टा ने यदि मनुष्य को इतना जीवट भरा, समर्थ और सहने की शक्ति से सम्पन्न शरीर दिया है तो वह अपना कर्त्तव्य है कि इस बहुमूल्य काया की सुदृढ़ता को आहार-विहार के व्यतिक्रम से नष्ट न करें। यह उसका अपना प्राथमिक कर्त्तव्य है कि अवरोधों से लड़ने की क्षमता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये वह सतत् परिश्रम करता रहे। मनुष्य यदि अपने मनोबल को ऊँचा रखे, हिम्मत न हारे, निराशा को पास न फटकने दे एवं मानसिक दुर्बलताओं से बचा रहे तो उसका शरीर हारी, बीमारियों से जूझते हुए भी लम्बी जिन्दगी जी सकता है तथा अवरोधों से दिल्लगी मजाक करते हुए सफल व समर्थ जीवन की दिशा में उत्तरोत्तर बढ़ता रह सकता है। इसके लिये उसे समर्थ काया मिली है। कर्त्तव्य धर्म से वह यदि च्युत न हो- तप-योग का सम्बल लेकर मनीषियों द्वारा प्रदत्त मार्गदर्शन पर चले तो चेतना की सामर्थ्य को ऊर्ध्वगामी बनाकर और कुछ भी पा सकता है, जो उसे मेधा सम्पन्न, अतीन्द्रिय शक्ति सम्पन्न बना सके।