मानवी पुरुषार्थ और कर्मफल के सिद्धान्त

April 1984

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एक भविष्य वक्ता थे। लोगों की उनकी नियति बताते साथ ही कर्म द्वारा उसमें घट-बढ़ होने की सम्भावना से भी अवगत करते।

एक दिन दो मित्र उनके पास आये। भविष्य पूछने लगे। उनने एक को एक महीने बाद फाँसी होने तथा दूसरे को राज्य सिंहासन मिलने की भवतव्यता बताई।

जिसे राज सिंहासन मिलना था वह अहंकार में डूबा और मनमाने आचरण करने लगा। इस अवधि में कुकर्मों की अति कर दी। एक महीना होने को आया तो सड़क पर रुपयों की एक थैली पड़ी मिली। उसे उसी दिन सुरा सुन्दरी के घर पहुँचा दिया।

जिसे फाँसी लगनी थी उसने शेष थोड़ी-सी अवधि को दिन-रात सत्कर्मों में निरत रहने के लिए लगा दिया। पुण्य परमार्थ जो सम्भव थे उसमें कमी न रहने दी। महीना पूरा होने को आया तो पैर में एक काँटा चुभा और थोड़े दिन कष्ट देकर अच्छा हो गया।

महीना निकल गया पर न एक को फाँसी लगी और न दूसरे को सिंहासन मिला तो वे भविष्य वक्ता के पास पहुँचे और कथन मिथ्या हो जाने का कारण पूछा।

उत्तर में उनने कहा- “भवतव्यता को कर्मों से हलका भारी भी किया जा सकता है। फाँसी, काँटा लगने जितनी हलकी हो गई और सिंहासन हलका होकर रुपयों की थैली जितना छोटा रह गया।

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एक देश का रिवाज था कि जो राजा चुना जाता उसे दस वर्ष राज्य करने दिया जाता। इसके बाद से ऐसे निर्जन द्वीप में उतार दिया जाता जिसमें निर्वाह के कोई साधन न थे। बेचारा भूखा प्यासा दम तोड़ता। अनेकों राजा इसी प्रकार दुर्गतिग्रस्त होते रहे।

एक बुद्धिमान राजा उस गद्दी पर बैठा। पता लगाया दस वर्ष बाद किस द्वीप में जाना है। अगले ही दिन में उसने उसमें सुविधाएँ उत्पन्न कर दी। इस अवधि में वह द्वीप सुविधा सम्पन्न देश हो गया। नियत समय पर राजा को वहाँ बसने में कोई कठिनाई नहीं पड़ी।

परलोक ही वह द्वीप है जहाँ हर किसी को जाना पड़ता है। वहाँ सुविधा उत्पन्न करने वाला परमार्थ कमाया जाता रहे तो जीवन के उपरान्त भी सुख शान्ति की कमी न रहे।

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एक ब्राह्मण ने बगीचा लगाया। नजर बचाकर उसमें एक गाय घुस गई और कितने ही हरे-भरे पौधे चर लिये।

देखा, तो ब्राह्मण आग बबूला हो गया। आवेश में जोर से ऐसा लट्ठा मारा कि गाय चक्कर खाकर गिर पड़ी और वहीं उसका प्राणान्त हो गया।

उन दिनों गौ-हत्या को बहुत बड़ा पाप माना जाता था। प्रायश्चित्त का दण्ड विधान भी बहुत कठोर था। सो ब्राह्मण डर गया और दण्ड से बचने के लिए वेदान्त झाड़ने लगा। जो पूछता उससे कहता- हाथों का अधिष्ठाता इन्द्र है। उसका प्रेरणा से हाथ काम करते हैं तो दोष मेरा नहीं इन्द्र का है वही इस गौहत्या का पाप ओढ़ेगा।

गौ हत्या एक राक्षसी का रूप बनाकर खड़ी थी। ब्राह्मण ने उसे स्वीकार नहीं किया तो वह इन्द्र के पास चली गई। सारा विवरण सुनाया और कहा दोष आपका हो तो आप ही मुझे स्वीकार कीजिए।

इन्द्र इस विचित्र आक्षेप पर क्षुब्ध थे। वे गौ-हत्या को साथ लिए वेष बदलकर बगीचे में राहगीर बनकर पहुँचे। बगीचे की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। जिसने कितने परिश्रम और कौशल से इसे लगाया है उसके दर्शन की इच्छा व्यक्त करने लगे।

प्रशंसा सुनकर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ और सामने आकर विस्तारपूर्वक वह सब बताने लगा कि उसने किस प्रकार इस बगीचे को लगाया और धन कमाया।

इन्द्र असली रूप में प्रकट हुए और बोले- जब हाथों के परिश्रम का श्रेय और लाभ आपको मिला तो इन्हीं के द्वारा किये गये पाप कर्म का फल इन्द्र क्यों भोगे?

ब्राह्मण से कुछ उत्तर देते न बन पड़ा और गौ-हत्या उस पर सवार हो गई।


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