अपनों से अपनी बात

April 1984

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वरिष्ठों की वास्तविक परख इसी विषम वेला में

दूध में घी छिपा रहता है पर आग पर चढ़ाते ही मलाई ऊपर तैरने लगती है। दूध में घी खोजने का कठिन कार्य इसी प्रकार सरल सम्भव हो पाता है। आपत्तिकाल की हानियाँ कितनी ही क्यों न हों, पर उसका एक असाधारण लाभ भी है कि वरिष्ठता उछलकर अनायास ही आगे आ जाती है और भावनाशीलों तथा कृपण कायरों की छाँट होने में तनिक भी देर नहीं लगती।

बसन्त की इस बेला में दसों दिशाओं से वरिष्ठों की पुकार है। मानवी प्रगति और संस्कृति को विकसित होने में लाखों करोड़ों वर्षों का- अगणित प्रतिभाओं की सूझ-सूझ श्रम, साधना एवं दूरदर्शिता का समावेश हुआ है। ऊबड़-खाबड़ धरातल और वनचरों का अनगढ़ प्राणि समुदाय, सभ्य समुन्नत मनुष्य के स्तर तक अनायास ही नहीं आ पहुँचा। क्रमिक प्रगति के बढ़ते हुए चरण, वर्तमान स्तर तक पहुँचने में ना जाने चिन्तन, विकास और साधन सम्पादन में कितनी ठोकरें खाते रहे हैं। उन्हें न जाने कितने खाई-खन्दक पार करने पड़े हैं। स्थिति जब सन्तोष की साँस लेने और अधिक उज्ज्वल भविष्य की आशा करने योग्य बनी है, तो वज्रपात होने जैसा संकट सामने आ खड़ा हुआ है। नगरों और उद्यानों को भस्मसात् करने वाले दावानल की प्रचण्ड लपटें इसलिए भी कलेजा कँपाती हैं कि महाविनाश के उपरान्त जो बचेगा वह कितना वीभत्स और त्रासदी से भरा होगा। उस मरघट में कोई रहेगा कैसे? जो रहेगा सो जियेगा कैसे?

पकी फसल पर जब ओले गिरते हैं, टिड्डी दल जब समूची हरीतिमा निगलते हैं तो उन पर क्या बीतेगी जिनने अहिर्निशि श्रमरत रहकर आशा उल्लास का सपना सँजोया था। उन बच्चों की कातरता कितनी कष्ट कर होगी जो इस विनाश के कारण भुखमरी से ग्रसित होकर काल कवलित होने की आशंका से भयभीत हो रहे हैं। प्रस्तुत विभीषिकाएँ, फुलझड़ियों का- पटाखों का तमाशा नहीं है, जिसे देखने का सुखद कौतूहल सधे। समस्याएँ और विपत्तियाँ काल्पनिक नहीं वास्तविक हैं। सर्वनाश के एक नहीं अनेकों संकट सामने मुँह बायें खड़े हैं। अणु भण्डार में एक माचिस पड़ने भर की देर है। औद्योगिक प्रदूषण से प्राणियों का दम घुटने और मन्द विष पीकर आत्मघात होने की आशंका अवास्तविक नहीं है। बढ़ते विकिरण के प्रभाव और अन्तरिक्ष में संव्याप्त असन्तुलन से खण्ड प्रलय होने की बात जो कहते हैं उन्हें सनकी नहीं कहा जा सकता। बढ़ती जनसंख्या का विस्फोट और निर्वाह साधनों का समापन मिलजुलकर भुखमरी, महामारी अथवा परस्पर लड़ मरने की स्थिति ही उत्पन्न करेगा। अनाचारी अदूरदर्शी जन समुदाय कुकृत्यों के दल-दल में अधिकाधिक गहरा धँसता जायेगा तो फिर उसे उबारने के इतने साधन आयेंगे कहाँ से?

आँख के सामने वाली दुर्घटनाएँ ही सब कुछ नहीं होतीं। विवेक बुद्धि से आगत विनाश को भी देखा समझा जा सकता है। नशा पीने और बहुप्रजनन जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ आरम्भ में कौतुक-कौतूहल जैसी लगती हैं। पर समयानुसार वह विपत्ति भी आये बिना नहीं रहती, जिनमें परिवार के परिवार नष्ट होते चले जाते हैं। धूमधाम और दान-दहेज वाली शादियाँ उत्सव की दृष्टि से मनोरंजन लगती हैं पर किसी भी दूरदर्शी की आँखें यह बता सकती हैं कि इन कुकृत्यों के कुछ ही समय उपरान्त कितने भयानक दुष्परिणाम सामने प्रस्तुत होने जा रहे हैं। आज की परिस्थितियों में भी आम लोगों का भोजन, आच्छादन, व्यवसाय और अभ्यस्त ढर्रा सामान्य जैसा चल रहा हो तो भी यह नहीं समझा जाना चाहिए कि गाड़ी इसी तरह चलती रहेगी। वह दिन दूर नहीं जब परिस्थितियों की विषमता ऐसी होगी जिसमें से न पीछे हटने की गुंजाइश रहेगी, न आगे बढ़ने की। चक्रव्यूह में पूरी तरह फँस जाने पर बचने की आशा नहीं रहती। समय रहते ही कुछ किया जा सके तो बात बनेगी। टालने के नुस्खे से कुछ ही दिन काम चल सकता है। विषमता बढ़ जाने पर फिर प्रमाद भी तो काम नहीं आता।

परिस्थितियों ने हर विचारशील को पुकारा है कि वे आगे आयें। सोतों को जगायें और विपत्तियों से बचने के लिए सामयिक परिवर्तन का उपाय सुझायें। जो लम्बी चादर तान कर सो रहें हैं, खुमारी की गहराई में जिन्हें दीन दुनिया का कुछ पता नहीं, उनसे तो कोई क्या कहे? आफत समझदारों की है। वह भी समय रहते चेतने की उपेक्षा दिखायें तो समझना चाहिए आशा का टिमटिमाता दीपक भी बुझ गया। भले ही सारा गाँव मुहल्ला सोता रहे पर प्रहरी को तो जागना ही चाहिए। सेंध लगने पर सबसे अधिक भर्त्सना उनकी होती है जो जागते हुए भी खतरे की घंटी न बजा सके। चोरी होने पर सबसे पहले पहरेदार के ही कान ऐंठे जाते हैं और इल्जाम लगाया जाता है कि उसी की मिली भगत से अथवा असावधानी से दुर्घटना घटी। समय की विभीषिकाएँ सदा ऐसा ही धर्म संकट उनके सम्मुख उपस्थित करती हैं जिन्हें दूरदर्शिता और सद्भावना मिली है। यह दोनों वरदान ऐसे हैं, जिनके मिलने पर सहज उत्तरदायित्व भी कंधे पर लदता है कि वे विपन्नता को सहन न करें उसे अनदेखी न करें, पर आगे बढ़ कर ऐसा साहस दिखायें जिससे संकट टले और समाधान बन पड़े। वरिष्ठता का सौभाग्य इससे कम में सार्थक नहीं होता। आड़े संकट में कर्त्तव्य-निष्ठा से पीठ दिखाने वाले सैनिकों को कोर्टमार्शल की प्रताड़ना सहनी पड़ती है, जबकि बच्चे, बुड्ढे, पगले या कुली कवाड़े अनजान अनगढ़ होने के कारण दयनीय समझे और क्षमा कर दिये जाते हैं।

प्रज्ञा परिवार की छत्र छाया में वरिष्ठों का समुदाय एकत्रित हुआ है। उसकी जिम्मेदारी आम लोगों की तुलना में हजारों गुनी अधिक है। आड़े समय की इनकारी बड़ी कष्टकारक और तिलमिला देने वाली होती है। पेट प्रजनन भर के लिए समर्पित नर वानरों को जहाँ महत्वपूर्ण श्रेयों से वंचित रहना पड़ता है वहाँ उन पर विशिष्ट कर्त्तव्यों के पालन से उपेक्षा बरतने का भी दोष नहीं लगता। कुली और सेनापति की हैसियत में भी अन्तर है और जिम्मेदारी में भी। गाँव में डकैती होने पर हर कोई उन लोगों से प्रश्न पूछता है कि दुनाली बन्दूक कन्धे पर लटकाये फिरने पर भी आड़े समय में उसका प्रयोग करने के लिए क्यों घर से बाहर नहीं आये?

जिन्हें समझदार, जिम्मेदार, ईमानदार और बहादुर समझा जाता है ऐसे मनस्वी अग्रदूत जब समय की पुकार को अनसुनी करके पेट प्रजनन सम्बन्धी व्यस्तता का बहाना बनाते हुए विवशता व्यक्त करते हैं तो निर्लज्जता को भी लाज आती है। पेट को बिना हाथ-पैर, आँख कान वाले केंचुऐ का भी भरते रहने की सृष्टि व्यवस्था है फिर दस इन्द्रियों और बीस उँगलियों और मस्तिष्क की जादू पिटारी लादे फिरने वाला मनुष्य उस समस्या को रास्ते चलते न सुलझा सके, ऐसा हो ही नहीं सकता। बहु प्रजनन के लिए मक्खी-मछली प्रख्यात है। चींटियों, दीमकों और मधुमक्खियों के भी परिवार होते हैं और उनका विकास-निर्वाह नियति के सुनिश्चित ढर्रे के अनुसार ठीक तरह चलता रहता है। फिर मनुष्य पर ही क्यों आसमान टूटता है जो पारिवारिक पोषण की आड़ में इन जिम्मेदारियों से बचने का प्रयास करें, जिनके न निबाहने पर उसकी गरिमा ही समाप्त हो जाती है। प्रस्तुत चर्चा किसी प्रसंग विशेष में की जा रही है।

गत बसन्त पर्व पर युग तीर्थ में पहुँचे अगणित परिजनों ने देखा अथवा अपने-अपने स्थानों पर वहाँ से लौटे व्यक्तियों के मुँह से सुना होगा कि प्रज्ञा परिवार ने कितने बड़े व्यस्त समुदाय का स्वरूप अब ग्रहण कर लिया है। जो सूत्र संचालक के मात्र चर्म चक्षुओं से दर्शन कर सके एवं प्रतीक- अपने साथ लेकर आए, उन्होंने पाया होगा कि कितनी प्रबल ऊर्जा ग्रहण कर वे लौटे हैं। भले ही प्रत्यक्ष परामर्श व अपनी मनोकामना कह सकने का अवसर उन्हें न मिल पाया हो, उन्होंने यह पाया कि वे जीवन दर्शन के स्वर्णिम सूत्रों को अपने साथ लेकर आए हैं। इस बसन्त पर बड़ी संख्या में सुयोग्य प्रतिभा सम्पन्न लोक सेवियों का उच्चस्तरीय शिक्षण हेतु आह्वान किया गया था। प्रसन्नता की बात है कि अनेकों ने इसे स्वीकारा है। लेकिन एक ऊहापोह और मन में उठता है कि भावावेश में चार माह के लिये आने का दृढ़ संकल्प लेकर जाने वाले इन युग शिल्पियों से क्या यह अपेक्षा रखी जाय कि वे पूरा समय समाज को दे सकेंगे? आवश्यकता आज पूर्ण समय देने वाले कार्यकर्ताओं की ही है। गुणवत्ता की दृष्टि से हलके स्तर के हजारों-लाखों हों तो उससे समाज-राष्ट्र निर्माण के सपनों का ताना-बाना नहीं बुना जा सकता। अपने ही खातिर- अपने निर्वाह आजीविका में सहायक रोजगार का- आय. टी. आय. स्तर का शिक्षण लेने आने वालों के लिये तो ये दरवाजे बन्द ही हैं। लेकिन किया क्या जाय, जब गुण, कर्म, स्वभाव की तौल पर गिने-चुने ही खरे उतरें व इतनी समझदारी बरतने को तैयार हों जिसमें औसत आजीविका भी चलती रहे, धन-परिवार की निर्वाह व्यवस्था भी केन्द्र में होती रहे तथा वे पूरा समय मन लगाकर केन्द्र को दे सकें।

सोचा यही गया कि बहुमुखी प्रशिक्षण की इस विधा में जिस लोकसेवी समुदाय को खपाया जा रहा है, पहले माह से ही परखने की दृष्टि रखी जाय। जिनमें भावनात्मक उमंग, क्रिया-कौशल को हजम करने का माद्दा दीखे, उन्हें क्रमशः एक्सटेन्शन दिया जाता रहे व अवधि पूरी होने पर उनसे महाकाल की झोली में अपनी शेष जीवनावधि समर्पित करने का अनुरोध दुहराया जाय। तुर्त-फुर्त, कुछ सीखकर कुछ स्वयं के लिये करना चाहते होंगे, उन्हें पहले माह के बाद ससम्मान विदा कर दिया जाय व कुछ ऐसे हों जो आँशिक समय अभी व थोड़ा-थोड़ा करके बाद में मिशन के लिये करने की स्थिति में होंगे, उन्हें कुछ दिन और रोककर आवश्यक पाठ्यक्रम पूरा करा दिया जायेगा।

शिक्षण की मुख्य शाखाएँ सभी की जानकारी में हैं ही। संगीत-गायन-अभिनय एवं भाषण-सम्भाषण के माध्यम से लोक शिक्षण, स्वास्थ्य संवर्धन- संरक्षण का चिकित्सक स्तर का अध्यापन, पत्रकारिता मुद्रण कला- साहित्य सृजन एवं सम्पादन का शिक्षण तथा अपनी गतिविधियों को चलाने के लिये दृश्य-श्रव्य साधनों के प्रयोग, ज्ञानरथ- झोला पुस्तकालय संचालन पौरोहित्य एवं जन्म-दिवस गोष्ठियों का आयोजन कैसे हो, यह सब इस पाठ्यक्रम के अंग हैं।

यह किसी को भूलना नहीं चाहिए कि आकर्षण प्रधान होने के नाते आवेदकों की संख्या अपरिमित है। लेकिन आने वाले पहले अपने आपको टटोलें, देखें कि वे कौन-सी खाइयाँ हैं, जो उनके लोकसेवी के रूप में ढलने व वर्तमान स्वरूप में आड़े आ रही हैं। यदि वे इतना चिन्तन, मनन कर लेते हैं तो आधा काम पूरा हो जाता है। फिर वे इस वातावरण में स्वयं को- अपने परिवार को पूरी तरह नियोजित कर सकने में समर्थ हो सकेंगे। यदि कहलवाना ही हो तो निर्वाह- परिवार- व्यवस्था जैसे शब्दों का प्रयोग न करके लोभ और व्यामोह का ही नाम लिया जाना चाहिए। इन खाइयों को हिरण्यकश्यपु, रावण जैसे धन कुबेर और प्रतापी भी पाट सकने में असफल रहे। इस कुचक्र में फँसे हुए ही यह कह सकते हैं कि उन्हें आर्थिक और पारिवारिक परेशानियाँ युग की पुकार सुनने और वरिष्ठ अग्रदूतों की जिम्मेदारी नहीं निभाने देती। ऐसे तो खम्भे को कसकर पकड़ लेने वाले भी यह गुहार मचा सकते हैं कि खम्भा छोड़ता ही नहीं। जाएँ तो जाएँ कहाँ? उपरोक्त दोनों गुत्थियाँ ऐसी हैं जिन्हें चुटकियों में सुलझ लेने के नौ सो निन्यानवे रास्ते हैं। पर जिन्हें लिप्सा, तृष्णा वाला एक ही रास्ता दिखता है और मनोकामनाएँ सधने पर ही राहत मिलने की रट लगी रहती है उन्हें अपनी गणना अभाग्य नर-वानरों में करनी चाहिए। वरिष्ठों के लिए मानवी गरिमा ही सब कुछ है। उसे जब जिसने अपनाया है, उसे न युग धर्म के निर्वाह में कठिनाई पड़ी है और न निर्वाह परिवार की सहज समस्या सुलझाने में कोई मुसीबत का सामना ही करना पड़ा है। अब वरिष्ठों को यह फैसला कर ही लेना है- इस ओर या उस ओर? बीच का कोई मार्ग नहीं, इससे कम में अपने मार्गदर्शक से वे कुछ अपेक्षा रखें भी, तो उन्हें निराश ही होना पड़ेगा। प्रस्तुत शिक्षण आमन्त्रण में सभी यह दृष्टि नितान्त स्पष्ट रखें।


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