राजा जनक ने महामुनि याज्ञवल्क्य से पूछा- “देव! अपने ब्रह्मविद्या का अवगाहन करते हुए जो कुछ महत्वपूर्ण समझा हो, उसका सार संक्षेप मुझे सुनाइए।
याज्ञवल्क्य ने ब्रह्म को पाँच प्रकार का बताया और कहा- (1) राजन् वाक् ब्रह्म है। जो वाणी को परिष्कृत कर लेता है, वह ब्रह्मवेत्ता होता है। (2) प्राण ब्रह्म है। जो साहसी पराक्रमी है, उसे किसी वस्तु का अभाव नहीं रहता। (3) चक्षु ब्रह्म है। जो गहरी दृष्टि से देखता और आवरण में छिपे सत्य को देखता है, वह दिव्यदर्शी बनता है। (4) मन ब्रह्म है। जो जैसा सोचता है वह वैसा ही बन जाता है। इच्छा से क्रिया, क्रिया से स्थिति और स्थिति से परिणति प्राप्त करते हुए जीव अपना संसार आप बसाता है। (5) हृदय ब्रह्म है। श्रद्धा संवेदन जगाने से मनुष्य जीवन का रस चखता है और भक्ति भावना से ओत-प्रोत होकर परब्रह्म में जा मिलता है।
जनक का समाधान हो गया। उनने ब्रह्म को अन्यत्र ढूँढ़ना छोड़कर अपने भीतर सन्निहित पाया और उसे जगाना आरम्भ कर दिया।
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भौतिक सम्पदाओं के अधिष्ठाता असुरों का शक्ति और सम्पदा से काम चला। न वे सन्तोष पा सके न आनन्द। सुविधाएँ भी अनाचार में प्रयुक्त हुईं तो उलटे संकट खड़े करने लगीं। उन्होंने सोचा व्यक्ति के जीवन में चेतना ही प्रमुख है, अतः उसे परिष्कृत करने वाले आत्म-ज्ञान का लाभ लेना चाहिए।
यही विचार देवताओं के मन में भी आया। उनने तप बल से स्वर्ग सम्पदा तो प्राप्त कर ली थी, पर तृष्णा और ईर्ष्या के कारण चैन उन्हें भी न था। ऋषियों जैसा तत्व ज्ञान पाये बिना वे भी आपने वैभव को अपूर्ण अनुभव करते थे।
देव और दानव दोनों ने ही अनुभव किया कि आत्म विज्ञान में प्रवीण होना चाहिए। सो वे अपने-अपने समय पर प्रजापति के पास पहुँचे। देव वर्ग के प्रतिनिधि इन्द्र और दैत्यों के विरोचन थे। वे सीखकर अपने-अपने समुदायों को शिक्षित करने की योजना साथ लाये थे।
प्रजापति ने कहा- “ज्ञान के अभ्यास में उतरना होगा। अन्यथा जानकारी मात्र से काम चलेगा नहीं। श्रेयार्थी को धैर्यवान होना चाहिए। खाने से पचाने में कई गुना अधिक समय और श्रम लगता है।”
प्रजापति ने आत्मज्ञान के पाँच चरण विभाजित किये और कहा- “हर चरण के सन्दर्भ में दी गई शिक्षा को स्वभाव संस्कार में उतारने के लिए बीस वर्ष चाहिए। समग्र ज्ञान के लिए सौ वर्ष का समय चाहिए।”
आरम्भिक सहमति तो दोनों की थी पर उतावले असुर तुरन्त लाभ के लिए आतुर थे। देर तक ठहरते उनसे न बन पड़ा। विरोचन ने बीस वर्ष अन्नमय और बीस वर्ष प्राणमय कोष की अभ्यास साधना में लगाये और इतने से ही ऊब कर वापस चले गये। किन्तु इन्द्र ने धैर्य न छोड़ा। वे अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञान मय और आनन्दमय कोशों का बीस-बीस वर्ष अभ्यास करने के उपरान्त प्रवीणता के स्तर तक पहुँचे और अमरत्व के पारंगत कहलाये।
श्रद्धा और धैर्य अपनाये रहकर देवताओं ने आत्म ज्ञान का अमृतत्व प्राप्त किया। उतावले और शंकाशील होने के कारण विरोचन समुदाय उस दिव्य सम्पदा से वंचित ही रह गया।