सदाशयता की महत्वाकाँक्षा हर दृष्टि से हितकर

April 1984

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प्रगति की महत्वाकाँक्षा में कोई दोष नहीं। सच तो यह है कि वह एक महत्वपूर्ण उमंग है जिसके सहारे मनुष्य परिश्रम और साहस करता है। कष्ट सहकर भी आगे बढ़ता है। प्राणि समुदाय में ये जिनकी आकांक्षाएँ जितनी प्रबल रही हैं वे उसी अनुपात से प्रगति पथ पर आगे बढ़े हैं। जिन पर आलस्य प्रमाद छाया रहा और यथास्थिति में बने रहने भर से काम चलाते रहे, वे साथियों से कहीं पीछे रह गये। जीवधारियों के प्रगति इतिहास में इस तथ्य को हर पृष्ठ पर स्वर्णाक्षरों में लिखा देखा जा सकता है। अस्तु सूझ-बूझ और साहसिकता की जन्मदात्री महत्वाकाँक्षा की सराहना ही हुई है। विज्ञजनों ने अपने सम्पर्क क्षेत्र में उत्कर्ष का आशावाद उभारा है। प्रगति को प्रोत्साहन दिया है और दिन गुजारने की अपेक्षा जोखिम उठाकर भी बढ़ चलने के पराक्रम को सजग बनाने में कुछ उठा नहीं रखा है। व्यक्ति और समाज का हित साधन भी उसी में है।

महत्त्वाकाँक्षाएँ तब दुःखदायी और विग्रहकारी होती हैं, जब वे तृष्णा भड़काती, स्वार्थी बनाती और निष्ठुरता अपनाने और अनीति बरतने जैसा उन्माद उभारती हैं। शरीरगत सुविधा और परिवार गत सम्पन्नता के लिए वैभव उपार्जन करने तक सीमित रहने वाली महत्वाकाँक्षाओं की निन्दा इसलिए की जाती है कि उनके आवेश में व्यक्ति अहंता के परिपोषण में बेतरह प्रवृत्त होता है। उस होश हवास को गँवा बैठता है जिसमें रहते मानवी गरिमा के अनुरूप आचरण करने का अनुबन्ध है। उचित आवश्यकताओं की एक छोटी सीमा है। प्रकृति ने संसार में साधन सामग्री उतनी ही उत्पन्न की है जिससे सभी का गुजारा मात्र चल सके। जो संचय की बात सोचेगा, अपव्यय अपनायेगा वह दूसरे जरूरतमन्दों का हक छीनेगा। दीवार उठाने के लिए कहीं से मिट्टी खोदनी पड़ती है। बड़े बनने के प्रयत्न में दूसरों से अधिक साधन हथियाने पड़ते हैं। स्पष्ट है कि इस कारण किन्हीं अन्यों को अभावजन्य कष्ट सहना पड़ेगा। समान वितरण होता रहे तो कहीं किसी को कठिनाई न पड़े। कोई दरिद्र, पिछड़ा पीड़ित या पतित न रहे।

महत्वाकाँक्षी जितना वैभव बटोरते हैं, वह उन्हें अहंकारी, दुर्व्यसनी बनाता है। साथ ही ईर्ष्याजन्य अनेकों संकट खड़े करता है। सबसे बड़ी बात है सुविधाओं का एक जगह एकत्रित हो जाने पर अन्यान्यों के हिस्से में उतनी की कमी आती है। प्रकृति को इसके लिए विवश नहीं किया जा सकता कि वह महत्वाकाँक्षाओं के लिए अतिरिक्त उत्पादन करती रहें और सर्व साधारण के निर्वाह का क्रम भी यथावत् चलता रहे। एक अमीर के बनने में सहस्रों पर गरीबी का दुर्भाग्य लदता है। यदि वह अमीरी उपार्जन वितरण के चक्र में घूमा होता तो उससे जरूरतमन्दों को- अभावग्रस्तों को बहुत हद तक राहत मिल सकती थी। हीरे का हार खरीदने में लगने वाली राशि से हजार अन्यों को मोतिया बिन्दु के संकट से छुड़ाया और उन्हें नये सिरे से दृष्टि देकर अर्ध मृतकों से जीवितों की पंक्ति में बिठाया जा सकता है। हीरे का हार खरीदने वाला यह भूल जाता है कि उसकी अहंता के उद्धत परिपोषण ने कितनों को नव जीवन से वंचित रखा। इस तथ्य को ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने समझा था। उनने अपने 500 रु. के वेतन में से सिर्फ 50 रु. में परिवार निर्वाह चलाया और शेष बचत की पाई-पाई निर्धन छात्रों के लिए शिक्षा साधन जुटाते रहने की नीति अपनाई। ऐसा वही कर सकता है जिसने निजी विलास वैभव पर अंकुश लगाने योग्य आदर्शवादिता अपनाई हो।

महत्वाकाँक्षाओं का वास्तविक क्षेत्र सत्प्रवृत्ति संवर्धन है। इन्हें परमार्थिक भी कहा जा सकता है। अन्तराल को सद्भावनाओं से और व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से सम्पन्न करना, मणि मुक्तकों के स्वर्णाभूषणों से भी अधिक आकर्षक और प्रभावोत्पादक है। प्रामाणिकता और प्रखरता के धनी सामान्य परिस्थितियों में जन्मने और पलने पर भी प्रतिकूलताओं अभावों को चीरते हुए आगे बढ़ते ऊँचे उठते हैं। न उन्हें खाई खंदक रोक पाते हैं और न चट्टान अड़ने जैसे व्यवधान भी प्रगति क्रम को देर तक रोके रहने में समर्थ होते हैं। साधनों के बल पर नहीं पराक्रम के सहारे वे आगे बढ़ते और उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचते हैं। साथी सहयोगी तलाशने में उन्हें कठिनाई नहीं पड़ती। इसके लिए उन्हें न किसी की खुशामद चापलूसी करनी होती है और प्रलोभन देने, भय दिखाने जैसा कुछ अनुपयुक्त ही करना पड़ता है। सद्गुणों का चुम्बकत्व अपने आप में इतना समर्थ है कि सजातीय उस आकर्षण में अनायास ही खिंचते चले आते हैं। फूल खिलता है तो भौंरों के झुण्ड और तितलियों, मधु मक्खियों के समूह स्वयं ही दौड़ते चले आते हैं। चीनी की गन्ध पाते ही चींटियों का समुदाय स्थान खोजता हुआ स्वयमेव जा पहुँचता है। सद्गुणी व्यक्तित्व का आकर्षण सौन्दर्य मिठास इन सबसे कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही है। गुण पारखी जब तक इस धरती पर मौजूद हैं तब तक व्यक्तित्व सम्पन्नों को- प्रशंसक, समर्थकों, सहयोगियों, मित्रों, आत्मीय जनों की कभी कमी न पड़ेगी। जब चोर-उचक्के, लम्पट और कुचक्री क्रिया कुशल होने के कारण अपने जैसों के गिरोह बना लेते हैं तो कोई कारण नहीं कि मानवी विशेषताओं से सम्पन्नों को एकाकी, असहाय या उपेक्षित रहना पड़े। बहुत न सही, यदि थोड़े भी वरिष्ठ व्यक्ति मिल-जुलकर ऊँचे उद्देश्य के लिए काम करते हैं तो फिर नीति का पक्षधर वातावरण बनता है और अनुकूलता का अदृश्य प्रवाह चल पड़ता है। नदी बहती है तो इर्द-गिर्द के नाले भी उसमें सम्मिलित होते और चौड़ाई गहराई एवं गति बढ़ाने में सहायक बनते रहते हैं। छोटों को बड़ा बनने का इतिहास इसी आधार पर बना है कि व्यक्तित्व के धनी अपनी सदाशयता और प्रखरता से असंख्यों का मन मोहते और उन्हें मित्र सहयोगी बनाते चले गये। फलतः निजी अभावग्रस्तता अदक्षता न तो टिकी और न बाधक बनी। सहयोगी वातावरण उत्साह बढ़ाता- हिम्मत बढ़ाता और साधन जुटाता चला गया। उच्चस्तरीय व्यक्तित्व ही पारस कहे जाते हैं जो कार्य या व्यक्ति उनके साथ गुंथते हैं वे सोने की तरह खरे और बहुमूल्य बनते जाते हैं।

वैभव उपार्जन की तुलना में व्यक्तित्व का सम्पादन हजार लाख गुना अधिक मूल्यवान है। इसके लिए मनुष्य को इतना मूल्य तो अनिवार्य रूप से चुकाना होता है कि हेय स्वार्थ परता के साथ जुड़ी हुई दुष्प्रवृत्तियों की शृंखला से मुँह मोड़े और नाता तोड़े। जिन्हें मौज उड़ाने, मजा लुटने, इतराने और कोठे भरने की ललक लगी है उन्हें उन विशेषताओं से हाथ धोना पड़ता है जो सज्जनता की अविच्छिन्न अंग मानी गई हैं। उचित आवश्यकताओं की परिधि बहुत छोटी है। शील सदाचार की कथा कहने वाले को उसी अनुशासन में रहना पड़ता है और व्यामोह के चक्रव्यूह से बचते-बचाते ही आदर्शवादिता को बचाये रहना पड़ता है। प्रलोभनों के दल-दल में जा फँसने वाले अपनी शालीनता तक बचा नहीं पाते फिर वे ऐसा कुछ कैसे करें जिसे व्यक्तित्व की महानता सिद्ध करने में प्रमाण परिचय की तरह प्रस्तुत किया जा सके। चतुरताओं और सफलताओं का पहाड़ जमा हो जाने पर भी कोई इतना समर्थ नहीं हो पाता जितना कि शालीनता सम्पन्न व्यक्तित्व अभावग्रस्तता रहने पर भी होता है।

भौतिक स्वार्थों की ललक लिप्सा में जहाँ आरम्भ में अधिक सफलता की सम्भावना रहती है वहाँ यह खतरा भी है कि कुछ ही समय क्षुद्रता की कलई खुल जाने पर विश्वास और सहयोग दोनों ही घटने लगे और अन्ततः उसे अप्रामाणिक हेय जनों की पंक्ति में जा बैठने पर दर-दर दुत्कारे, ठुकराये जाने की स्थिति में रहना पड़े। सम्पन्नता बनी भी रहे तो इसके सहारे दुर्व्यसन पनपते और अहंकार बढ़ने का वह संकट तो जुड़ा ही रहता, जिसके रहते उच्चस्तरीय कार्य कर सकने की- ऊँचे पद पर पहुँचने की सम्भावना का आधार ही नहीं बनता।

महत्वाकाँक्षाओं में प्रशंसनीय वे हैं जिनमें व्यक्तित्व की पवित्रता और प्रखरता से सुसम्पन्न बनने की अभिलाषा प्रदीप्त रहती है। ऐसी दशा में नीति मर्यादाओं का पालन करना और मानवी गरिमा के अनुबन्ध अनुशासन का निर्वाह करने में कोई कठिनाई अनुभव नहीं होती। सामान्य निर्वाह किसी के लिए भी भारी नहीं पड़ता। परिवार को सीमित रखने और उसे सुसंस्कृत स्वावलम्बी बनाने की नीति अपना लेने पर किसी को भी यह अनुभव नहीं करना पड़ता कि उसके ऊपर कुटुम्ब पालन का भार लदा है। मात्र विलासी, अपव्ययी और खर्चीली कुरीतियों के अनुयायी ही ऐसा सोचते हैं कि परिवार का वजन बहुत भारी है। अन्यथा उस परिवार को भावनाशील विचारशील, मितव्ययी और परिश्रमी बना लेने भर से परिवार का ढर्रा सरलतापूर्वक चलता रहता है। स्नेह सौजन्य के वातावरण में एक दूसरे का हाथ बँटाते हुए उस व्यवस्था को हथेलियों पर उठाये फिरते हैं। ऐसी दशा में किसी विचारशील को यह नहीं सोचना पड़ता है कि उसे कुबेर जैसा धनी और इन्द्र जैसा पदवी धारी बनना चाहिए। ऐसी महत्त्वाकाँक्षाएँ व्यक्ति को भ्रष्ट ओर दुष्ट बनाये बिना नहीं रहती। उसकी गतिविधियों से अनिष्ट विग्रह और अनर्थ ही उपजते फैलते हैं।

इस सचाई को यदि समझा जा सके तो सदाशयता के अभिवर्धन की महत्वाकाँक्षा का फलने-फूलने का सुविस्तृत क्षेत्र खुल जाता है। तब व्यक्ति लोकमंगल और सत्प्रवृत्ति संवर्धन की बात सोचता है। सबके हित में अपना हित समझने- मिल-बाँटकर खाने और हँसते-हँसाते, स्नेह सहयोगपूर्वक जीने की रीति-नीति अपनाकर व्यक्ति स्वयं सुखी सन्तुष्ट रहता और दूसरों की भी सहज सहृदयता कर सकता है। ऐसा दृष्टिकोण अपनाकर कोई भी हल्की-फुलकी जिन्दगी जी सकता है। सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की सेवा साधना में निरत रहने का अवकाश पा सकता है जिसमें पुण्य परामर्श का सम्पादन करते हुए तनिक भी अतिरिक्त दबाव न पड़े और वह विषय अच्छे से अच्छे मनोविनोद की तुलना में अधिक सुखद एवं आनन्द-उल्लास से भरा-पूरा प्रतीत होने लगे।

लोक मंगल की सेवा साधना को अपनी दिनचर्या में एक महत्वपूर्ण स्थान देने पर जहाँ यश, प्रशंसा, श्रद्धा, सद्भावना, सहकारिता का हाथों-हाथ लाभ मिलता है वहाँ उससे भी बड़ी बात यह है कि अपनी शालीनता एवं उदारता बढ़ने से निजी व्यक्तित्व का स्तर गगनचुम्बी बनने लगता है। दूसरों को सन्मार्ग पर चलाने का प्रयास करते हुए कर्ता को लोक-लाज भी यह विवश करती है कि वह वैसा बने जैसा कि और से कहता है। नैतिक शिक्षा के अध्यापक को उस विषय में अपने को पारंगत एवं परिपक्व होना चाहिए। जब गणित विज्ञान, इतिहास भूगोल आदि को अपने विषय में विद्यार्थी को समाधान दे सकने योग्य प्रवीणता अर्जित करनी पड़ती है तो नैतिक आचरणों को प्रेरणा देने वाले को भी उसी स्तर का व्यक्तित्व विनिर्मित करना आवश्यक है। बात यदि नीति शास्त्र पढ़ने-पढ़ाने और प्रश्नकाल हल करने नम्बर लाने वाली पढ़ाई तक ही सीमित होती तो काम कथा-प्रवचन के सहारे भी चल सकता था पर जब शिक्षा आचरण को उस ढाँचे में ढलने को दी जा रही है तो उसके लिए निजी उदाहरण प्रस्तुत करना एक प्रकार से अनिवार्य हो जाता है। खिलौना बनाने से पूर्व उसका साँचा विनिर्मित करना होता है। पुर्जे ढालने की बात भी सही साँचे बनने के उपरान्त ही बनती है। नीतिमत्ता का अवलम्बन ही लोक मंगल का एक मार्ग, उपाय है। कष्ट पीड़ितों की सहायता तो अपना धर्म है जिसे यदा-कदा ही आवश्यकतानुसार अपनाना पड़ता है। अन्यथा सदावर्त बाँटने पर तो हरामखोरी पनपेगी और सेवा के नाम पर दुष्प्रवृत्ति फैलाने का नया पाप सिर पर चढ़ेगा। सत्प्रवृत्ति संवर्धन ही एकमात्र वह उपाय है जिसके सहारे किसी को भी सुखी स्वावलम्बी और समुन्नत बनाया जाता है। लोक मंगल का सिद्धान्त और स्वरूप यही है। इस प्रयास से कार्यक्रम तो आवश्यकतानुसार कितने ही बन सकते हैं पर लक्ष्य को ध्यान में रखने पर टस से मस होने की गुंजाइश नहीं है।

परमार्थिक महत्वाकाँक्षाओं को पूरा करने में लोकमंगल के क्रियाकलापों में निरत होना पड़ता है। इस प्रसंग में एक ही महत्वपूर्ण कार्य करना होता है- लोकमानस का परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन। इनका एक है चिन्तन मनन दूसरा है क्रिया परक। दोनों के मानवी गरिमा के अनुरूप उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का समन्वय करना पड़ता है। लोक सेवा या लोक शिक्षा इसी धुरी के इर्द-गिर्द घूमती है। इससे विरत होने पर भौतिक कार्यों में संलग्न समस्त भौतिक श्रमिक लोकसेवी कहलाने लगेंगे। साधन जुटाने और अभाव पूरे करने में तो कृषकों से लेकर मेहतर तक सभी श्रमजीवी उसी प्रयास में निरत रहते और बदले में वेतन पाते हैं। जिस लोकमंगल की चर्चा परमार्थ प्रयोजन के सन्दर्भ में की जाती है वह और कुछ नहीं मनुष्य के चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में घुसी हुई दृष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन और उनके स्थान पर शालीनता का संस्थापन ही हो सकता है। लोकमंगल इसी एक आधार पर बन पड़ता है। समस्त समस्याओं का समाधान इसी प्रयास की सफलता पर निर्भर है। महामानवों में से सभी ने अपने लिए इसी मार्ग को चुना और उसी के लिए सर्वतोभावेन तत्पर तन्मय रहते हुए जीवन बिताया है। आज भी इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग है नहीं। सामयिक परिस्थितियों पर दृष्टिपात करते हुए तो यह एक प्रकार से और भी अनिवार्य हो जाता है कि आस्था संकट से जूझा जाय और प्रचलित दृष्प्रवृत्तियों को जड़-मूल से उखाड़ फेंकने वाले प्रज्ञा अभियान का सहभागी बनकर अग्रिम मोर्चा सम्भाला जाय। उपक्रम को अपनाते हुए विश्व कल्याण की आशा की जा सकती है।

बात वहाँ लौटकर आती है कि पारमार्थिक महत्वाकाँक्षा अपनाकर यदि लोक मंगल में निरत हुआ जाय तो इससे अपना क्या बना? अपने स्वार्थ की सिद्धि कैसे हुई? यहाँ समझने योग्य रहस्य यह है कि इस प्रयास में सबसे अधिक और सबसे सुनिश्चित लाभ अपना ही होता है। जिन्हें सुधारने उठाने का प्रयत्न किया गया है वे उस सेवा से लाभान्वित होंगे या नहीं इसमें सन्देह की भी गुंजाइश है, पर यह असंदिग्ध है कि संगीत पढ़ाने की जिम्मेदारी अपनाने पर अध्यापक को तो उस सन्दर्भ में प्रवीणता प्राप्त करनी ही होगी। दूसरों के हाथ रचाने के लिए मेंहदी पीसने वाले के अपने हाथ तो अनायास ही रच जाते हैं। गन्धों की दुकान पर बैठने भर से सुगन्ध का लाभ मिलता है तो कोई कारण नहीं कि दूसरों को गर्मी पहुँचाने के लिए आग जलाने वाला स्वयं ठण्ड से सिकुड़ता रहे। बर्फखाने में नौकरी करने वालों तक को जब ठण्डक का मजा आता है। सरकस के कर्मचारी जब मुफ्त में ही खेल का आनन्द लेते रहते हैं तो कोई कारण नहीं कि लोकहित के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन में निरत सेवाभावियों को उसी चिन्तन एवं कार्य में निरत रहने पर निजी व्यक्तित्व को परिष्कृत करने का अवसर न मिले। यह एक ही लाभ इतना बड़ा है जिस पर संसार भर के वैभव को निछावर किया जा सके। इस प्रकार परमार्थ परायण को उभयपक्षीय लाभ मिलते हैं तब संकीर्ण स्वार्थपरता में निरत को दोनों से ही हाथ धोना पड़ता है।


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