सिद्धान्त व्यवहार में उतरे तो ही सार्थक

April 1984

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किसी साधु के पास एक महिला अपने बच्चे को लेकर गई और उसकी दिन भर गुड़ के लिये मचलते रहने की आदत छुड़ा देने का आग्रह किया।

साधु ने दस दिन बाद आने को कहा। उपदेश दिया तो बच्चा कहना मानने लगा। आदत छूट गई।

कुछ दिन बाद वह महिला उधर फिर किसी काम से आई और पिछला असमंजस पूछते हुए कहा- ‘आपने दस दिन बाद आने को क्यों कहा था, उसी दिन वैसा उपदेश आशीर्वाद क्यों नहीं दे दिया?’

इस पर साधु ने कहा- “पहले मुझे भी गुड़ खाने की आदत थी। दस दिन उसे पूरी तरह छोड़ दिया। तब उपदेश दिया। प्रभाव तभी पड़ता है जो उपदेश वाली बातों का पहले स्वयं निर्वाह किया जाय।

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राजा भोज को किसी सच्चे ब्राह्मण के मुख से कथा पुराण सुनने की इच्छा हुई। सो उसने उपयुक्त वाचन कर्ता की तलाश कराई।

एक महा पण्डित थे। दक्षिणा के लालची उन्हें पुराण कण्ठस्थ थे। सो अपनी महिमा बखानते हुए राजदरबार में पहुँचे। राजा ने उन्हें नीचे से ऊपर तक देखा और सुनने से इन्कार कर दिया।

बहुत दिन बीत गये। उस पण्डित में भारी परिवर्तन हुआ। लोभ के लिए कथा कहने की प्रवृत्ति उनने छोड़ दी और पुराण के रहस्य जानने में तन्मय हो गये। बाहर जाना-आना तक बन्द कर दिया। परिश्रमपूर्वक कमाते और मुफ्त में कथा सुनाते।

बात राजा के कानों तक पहुँची। वे स्वयं गये और अनुरोधपूर्वक राजमहल में कथा सुनाने के लिए लाये।

एक बार तिरस्कार और दूसरी बार आग्रह का रहस्य बताते हुए उन्होंने सभासदों को बताया कि धर्मोपदेश का अधिकार एवं प्रभाव उसी का होता है जिसने लोभ-मोह पर निजी जीवन में अंकुश लगा लिया।

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राजा परीक्षत को शाप वश एक सप्ताह में सर्प दंश से मरना था। उनने बचे समय का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने में बुद्धिमता समझी। विचार क्षेत्र में आदर्श भर लेने की दृष्टि से पुराण कथा सुनने की व्यवस्था बनाई गई।

कथा वाचक व्यास जी ने ही इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए उनने उनके पुत्र शुकदेव जी को आमन्त्रित किया। व्यास के चरित्र में नियोग जैसे कई लाँछन थे, पर शुकदेव का चरित्र सर्वथा निर्मल था। वाणी का कथन मात्र से ही उपदेश का प्रयोजन नहीं सधता। धर्मोपदेशक का चरित्र व्यक्तित्व भी पवित्र होना चाहिए।

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गुरुकुल में कौरवों और पाण्डवों ने एक साथ प्रवेश पाया। द्रोणाचार्य ने विद्यारम्भ संस्कार के समय विद्या बोध कराने वाले कुछ सूत्र याद कराये। सत्यंवद- धर्मचर- स्वाध्यामान् या प्रमद आदि। इन्हें याद कर लेने का आदेश हुआ।

सभी छात्रों ने उन्हें एक ही दिन में याद कर लिया। एक युधिष्ठिर ही ऐसे रहे जो याद न होने की बात कहते रहे और मौहलत माँगते रहे।

कई दिन बीत जाने पर भी याद न होने की बात से द्रोणाचार्य को हैरानी हुई और उसका कारण पूछा।

युधिष्ठिर ने नम्रता पूर्वक पूछा- ‘देव! अक्षरों को याद करने में तो किसी को कोई देर न लगेगी। प्रश्न सिद्धान्तों को जीवन में उतारने का है। मैं सत्यमय जीवन बनाने का ताना-बाना बुनने में लगा हुआ। जब उसका उपक्रम और अभ्यास ठीक बन जायेगा तभी कहूँगा कि पाठ याद हो गया।


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