शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार एवं उसकी चमत्कृतियाँ

April 1984

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शब्दाद्वैतवाद के अनुसार शब्द ही ब्रह्म है। उसकी ही सत्ता है। सम्पूर्ण जगत शब्दमय है। शब्द की ही प्रेरणा से समस्त संसार गतिशील है। महती स्फोट प्रक्रिया से जगत की उत्पत्ति हुई तथा उसका विनाश भी शब्द के साथ होगा। इन्द्रियों में सबसे अधिक चंचल तथा वेगवान मन को माना गया है। ‘मन के तीन प्रमुख कार्य हैं’- स्मृति, कल्पना तथा चिन्तन। इन तीनों से ही मन की चंचलता बनती है। लेकिन यदि मन को शब्द का माध्यम न मिले तो उसे चंचलता नहीं प्राप्त हो सकती। उसकी गति शब्द की बैसाखी पर निर्भर है। सारी स्मृतियाँ, कल्पनाएँ तथा चिन्तन शब्द के माध्यम से चलते हैं।

दैनन्दिन जीवन में काम आने वाले शब्दों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- व्यक्त और अव्यक्त। जैन पंन्थी इन्हें अपनी भाषा में जल्प और अन्तर्जल्प कहते हैं। जो बोला जाता है उसे जल्प कहते हैं। जल्प का अर्थ है- व्यक्त स्पष्ट मन्तव्य। जो स्पष्टतः बोला नहीं जाता, मन में सोचा अथवा जिसकी मात्र कल्पना की जाती है वह है- अन्तर्जल्प। मुँह बन्द होने होठ के स्थिर होने पर भी मन के द्वारा बोला जा सकता है, जो कुछ भी सोचा जाता है, वह भी एक प्रकार से बोलने की प्रक्रिया है तथा उतनी ही प्रभावशाली होती है जितनी की व्यक्त वाणी।

शब्द अपनी अभिव्यक्ति के पूर्व चिंतन के रूप में होता है। अपनी उत्पत्ति काल में वह सूक्ष्म होता है पर बाहर आते-आते वह स्थूल बन जाता है। जो सूक्ष्म है वह हमारे लिये अश्रव्य है। जो स्थूल है वही सुनाई पड़ता है। ध्वनि विज्ञान ने ध्वनियों को दो रूपों में विभक्त किया है-श्रव्य और अश्रव्य। अश्रव्य- अर्थात्- अल्ट्रा साउण्ड- सुपर सोनिक। हमारे कान मात्र 20000 कम्पन आवृत्ति को ही पकड़ सकते हैं। वे न्यूनतम 20 कम्पन आवृत्ति प्रति सेकेण्ड तथा अधिकतम 20 हजार कम्पन आवृत्ति प्रति सेकेण्ड को पकड़ने में सक्षम हैं। पर उनसे कम तथा अधिक आवृत्ति वाली ध्वनि तरंगों का भी अस्तित्व है। श्रवणेन्द्रियों की मर्यादा अपनी सीमा रेखा को चीर नहीं पाती। फलस्वरूप वे ध्वनियाँ सुनाई नहीं पड़तीं। कान यदि सूक्ष्मातीत ध्वनि तरंगों को पकड़ने लगें तो मालूम होगा कि संसार में नीरवता कहीं और कभी भी नहीं है। कमरे में बन्द आदमी अपने को कोलाहल से दूर पाता है। पर सच्चाई यह है कि उसके चारों और कोलाहल का साम्राज्य है।

समूचा अन्तरिक्ष ध्वनि तरंगों से आलोड़ित है। उनमें से थोड़ी-सी ध्वनियाँ मात्र मनुष्य के कानों तक पहुँच पाती हैं। प्रकृति की अगणित घटनाएँ सूक्ष्म जगत में पकती रहती हैं। घटित होने के पूर्व भी उनकी सूक्ष्म ध्वनि तरंगें सूक्ष्म अन्तरिक्ष में दोलयमान रहती हैं। उन्हें पकड़ा और सुना जा सके तो कितनी ही प्रकृति की घटनाओं का पूर्वानुमान लगा सकना सम्भव है। मनुष्येत्तर कितने ही जीव ऐसे हैं जिन्हें प्रकृति की घटनाओं का भूकम्प, तूफान आदि विभीषिकाओं का पूर्वाभास हो जाता है। सूचना मिलते ही उनका व्यवहार बदल जाता है। अपनी आदत के विरुद्ध वे अस्वाभाविक आचरण करने लगते हैं। कितने ही सुरक्षा के लिए सुरक्षित स्थानों की ओर दौड़ने लगते हैं। सूक्ष्म ध्वनि स्पन्दनों के आधार पर ही वे सम्भाव्य विभीषिकाओं का अनुमान लगा लेते हैं।

जो कुछ भी बोला अथवा सोचा जाता है वह तुरन्त समाप्त नहीं हो जाता, सूक्ष्म रूप में अन्तरिक्ष में विद्यमान रहता, तरंगित होता रहता है। हजारों-लाखों वर्षों तक ये कम्पन उसी रूप में रहते हैं। ऐसे प्रयोग भी वैज्ञानिक क्षेत्र में चल रहे हैं कि भूतकाल में जो कुछ भी कहा गया है ईथर में विद्यमान है उसे यथावत् पकड़ा जा सके। सदियों पूर्व महा-मानवों ऋषि कल्प देव पुरुषों ने क्या कहा होगा, उसे प्रत्यक्ष सुना जा सके ऐसे अनुसन्धान प्रयोगावधि में हैं। अभी सफलता तो नहीं मिल पायी है पर वैज्ञानिक आश्वस्त हैं कि आज नहीं तो कल वह विद्या हाथ लग जायेगी। निस्सन्देह यह उपलब्धि मानव जाति के लिए महत्वपूर्ण तथा अद्वितीय होगी अब तक की वैज्ञानिक उपलब्धियों में वह सर्वोपरि होगी। सम्भवतः इसी आधार पर कृष्ण द्वारा कही गयी गीता, एवं राम रावण संवादों को अपने ही कानों से सुनना सम्भव हो सकेगा।

रेडियो, टेलीविजन, राडार की भाँति प्राचीन काल के आविष्कारों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथा चमत्कारी खोज थी- मन्त्र विद्या। मन्त्र ध्वनि विज्ञान का सूक्ष्मतम विज्ञान था। इसके अनुसार जो कार्य आधुनिक यन्त्रों के माध्यम से हो सकते हैं वे मन्त्र के प्रयोग से भी सम्भव हैं। पदार्थ की तरह अक्षरों तथा अक्षरों से युक्त शब्दों में अकूत शक्ति का भाण्डागार मौजूद है। मन्त्र कुछ शब्दों के गुच्छक मात्र होते हैं पर ध्वनि शास्त्र के आधार पर उनकी संरचना बताती है कि एक विशिष्ट ताल, क्रम एवं गति से उनके उच्चारण से विशिष्ट प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न होती है। प्राचीन काल में ऋषियों ने शब्दों की गहराई में जाकर उनकी कारण शक्ति की खोज-बीन के आधार मन्त्रों एवं छन्दों की रचना की थी। पिछले दिनों ध्वनि विज्ञान पर अमेरिका पश्चिम जर्मनी में कितनी ही महत्वपूर्ण खोजें हुई हैं। साउण्ड थैरेपी एक नयी उपचार पद्धति के रूप में विकसित हुई है। ध्वनि कम्पनों के आधार पर मारक शस्त्र भी बनने लगे हैं। ब्रेन वाशिंग के अगणित प्रयोगों में ध्वनि विद्या का प्रयोग होने लगा है। अन्तरिक्ष की यात्रा करने वाले राकेटों, स्पेस शटलों के नियन्त्रण संचालन में भी शब्द विज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान है। पर वैज्ञानिक क्षेत्र में ध्वनि विद्या का अब तक जितना प्रयोग हुआ है, वह स्थूल है, सूक्ष्म और कारण स्वरूप अभी भी अविज्ञात अप्रयुक्त है जो स्थूल की तुलना में कई गुना अधिक सामर्थ्यवान है। मन्त्रों में शब्दों की स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म एवं कारण शक्ति का अधिक महत्व है। मानवी व्यक्तित्व की गहरी परतों- मन एवं अन्तःकरण को मन्त्र की सूक्ष्म एवं कारण शक्ति ही प्रभावित करती है। व्यक्तित्व का रूपान्तरण- विचारों में परिवर्तन उसके प्रभाव से ही होता है।

यों तो वेदों के हर मन्त्र एवं छन्द का अपना महत्व है। देखने में गायत्री महामन्त्र भी अन्य मन्त्रों की तरह सामान्य ही लगता है, जो नौ शब्दों तथा 24 अक्षरों से मिलकर बना है। पर जिन कारणों से उसकी विशिष्टता आँकी गई है वे हैं- मन्त्र के विशिष्ट क्रम में अक्षरों एवं शब्दों का गुँथन प्रवाह, उनका चक्र-उपत्यिकाओं पर प्रभाव तथा उसकी महान प्रेरणाएँ। हर अक्षर एक विशिष्ट क्रम में जुड़कर असीम शक्तिशाली बन जाता है। 24 रत्नों के रूप में अक्षरों के नवनीत का एक मणिमुक्तक बना तथा आदिकाल में प्रकट हुआ। ब्रह्म की स्फुरणा के रूप में गायत्री मन्त्र का प्रादुर्भाव हुआ तथा आदि मन्त्र कहलाया। सामर्थ्य की दृष्टि से इतना विलक्षण एवं चमत्कारी अन्य कोई भी मन्त्र नहीं है। दिव्य प्रेरणाओं की उसे गंगोत्री कहा जा सकता है। संसार के किसी भी धर्म में इतना संक्षिप्त, पर इतना अधिक सजीव एवं सर्वांगपूर्ण कोई भी प्रेरक दर्शन नहीं है जो एक साथ उन सभी प्रेरणाओं को उभारे जिनसे महानता की ओर बढ़ने तथा आत्मबल सम्पन्न बनने का पथ-प्रशस्त होता है।

ब्रह्म की अनुभूति शब्द ब्रह्म-नाद ब्रह्म के रूप में भी होती है जिसकी सूक्ष्म स्फुरणा हर पर सूक्ष्म अन्तरिक्ष में हो रही है। गायत्री महामन्त्र नाद ब्रह्म तक पहुँचने का एक सशक्त माध्यम है। प्राचीन काल की तरह सामान्य व्यक्ति को भी अतिमानव- महामानव बना देने की सामर्थ्य उसमें मौजूद है। आवश्यकता इतनी भर है कि गायत्री मन्त्र की उपासना के विधि-विधानों तक ही सीमित न रहकर उसने निहित दर्शन एवं प्रेरणाओं को भी हृदयंगम किया जाय और तद्नुरूप अपने व्यक्तित्व को ढाला जाय। पूरी श्रद्धा के साथ मन्त्र का अवलम्बन लिया जा सके तो आज भी वह पुरातन काल की ही तरह चमत्कारी सामर्थ्यदायी सिद्ध हो सकता है।


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