दैवी अनुदानों का सच्चा अधिकारी कौन?

April 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

चरवाहे जब उस ऊँची टेकरी पर जा बैठते, तो अनपढ़ होते हुए भी विद्वानों और दरबारियों जैसी बातें करते। वहाँ कोई करामात गढ़ी होनी चाहिए यह चर्चा सब जगह फैलने लगी। समाचार राजा भोज तक पहुँचा। उन्होंने उस चमत्कार का पता लगाया और सही पाया। कारण ढूँढ़ने के लिए खुदाई आरम्भ हो गई।

नीचे एक स्वर्ण मंडित सिंहासन निकला जिसमें बत्तीस पाये, पुतलियों की आकृति के लगे थे। सिंहासन राजमहल पहुँचाया गया। निर्णय हुआ कि भोज अब इसी पर बैठा करेंगे। शुभ मुहूर्त निकाला गया।

जैसे ही राजा बैठने के लिए बढ़े। वैसे ही सिंहासन की पहली पुतली ने कहा- उतावली न करो, यह विक्रमादित्य का सिंहासन है। उनमें जो गुण थे, वे यदि तुम्हारे में हों तो ही इस पर बैठो अन्यथा अनधिकार चेष्टा न करो।

धातु निर्मित पुतली को मनुष्यों की तरह बोलते देखकर भोज स्तब्ध रह गये। उनने पूछा- “विक्रमादित्य के गुणों के उदाहरण सुनाएँ, तब देखूँ कि वे गुण हैं या नहीं।” पुतली ने एक कथा सुनाई। भोज ने कहा यह गुण तो मेरे में नहीं हैं। उस दिन का मुहूर्त निकल गया। दूसरे दिन बैठने का समय नियत हुआ। आज दूसरी पुतली ने उसी प्रकार रोक-टोक की और विक्रमादित्य के सद्गुणों की दूसरी कथा सुनाई। आज भी भोज ने अपने में वे विशेषताएँ न होने की बात स्वीकारी।

यह क्रम पूरे बत्तीस दिन चला। बारी-बारी एक-एक पुतली विक्रमादित्य की विशेषताओं का बखान करती गई और चेतावनी देती गई कि यदि वैसे सद्गुण न हों तो उस पर पैर न रखें।

राजा भोज अपनी न्यूनताएँ स्वीकारते गये। तब बत्तीसवें दिन पुतलियाँ उस सिंहासन को उड़ाकर आसमान में ले गई। दरबारी देखते ही रह गये।

दैवी विभूतियाँ मात्र सत्पात्रों को ही लाभान्वित करती हैं। कुपात्रों के हाथ में रहने के लिए वे सहमत नहीं होतीं।

****

एक सिद्ध पुरुष थे। उनके बारे में किंवदन्ती थी कि ताँबे से सोना बनाने की विद्या जानते हैं। अनेक लोग सीखने आते। महात्मा कहते बारह वर्ष साथ रहकर सेवा करनी पड़ेगी। इसके उपरान्त ही सिखाया जा सकेगा।

शिष्य बनने वालों में से इतना धैर्य किसी में नहीं था। सीखकर जल्दी लौटने वाले सभी थे। थोड़े-थोड़े दिन रहकर सभी लौट जाते। इतनी प्रतीक्षा कौन करे।

एक संकल्पवान शिष्य निकला। वह पूरे बाहर वर्ष तक निष्ठा पूर्वक रहा। न उतावली दर्शाई न किसी प्रकार की आशंका की। निष्ठा को अविचल बनाये रखा।

बारह वर्ष पूर्ण हुए। गुरु ने शिष्य को निकट बुलाया और वचनानुसार सोना बनाने की विद्या सिखाने का उपक्रम आरम्भ किया।

शिष्य ने वह सीखने से इनकार कर दिया और कहा- “आपके साथ रहकर मैं स्वयं ही सोना हो गया हूँ। आपके रास्ते पर चलूँगा। सोना इकट्ठा करके लालच और विलास के नरक में क्यों गिरुँगा।”

गुरु ने उसे सच्चा सत्यान्वेषी बताया व कहा ऐसे ही साधक सुपात्र कहाते व दैवी अनुदान अनायास ही पाते हैं।

****

एक किसान के चार बेटे थे। उनकी बुद्धिमता जाँचने लिए बेटों को बुलाकर किसान ने एक एक मुट्ठी चावल दिये, और कहा- इनका जो मर्जी हो सो करना।

एक ने उसे छोटी वस्तु समझा और चिड़ियों को फेंक दिया, दूसरा उन्हें उबालकर खा गया, तीसरे ने सम्भाल कर डिब्बे में रख दिया ताकि कभी पिता माँगे तो उन्हें दिखा सकूँ। चौथे ने उन्हें खेत में बो दिया और टोकरा भरी फसल पिता के सामने लाकर रख दी।

पिता ने बोने वाले को अधिक समझदार पाया और बड़ी जिम्मेदारियों के काम उसी के सुपुर्द किये। भगवान भी यही करता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118