मस्जिद में एक अमीर नमाज पढ़ने आया। उसके पैरों में कीमती सोना जड़ें जूते थे। मालूम हुआ कि साल में एक बार नमाज पढ़ता है।
शेखसादी मन में दुःखी हुए। मैं रोज नमाज पढ़ता हूँ तो भी फटे जूते और इसे सोने वाले। हे ईश्वर! यह कैसा अन्याय?
थोड़ी देर में एक अपाहिज पंगा घिसटते हुए नमाज पढ़ने आया। उसे देखकर शेखसादी ने अपने विचार बदल दिये और ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कहा- ‘मुझे पैर तो दिये यह क्या कम अनुग्रह है।’
पिछले से तुलना करके सन्तोष की साँस ली जाती है। सम्पन्नों के साथ तौलने से असन्तोष होता और ईर्ष्या उभरती है।
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एक अमीर किसी अपरिग्रही सन्त के यहाँ गया। सुविधा साधन नाममात्र के थे फिर भी सन्त बड़े सन्तुष्ट प्रसन्न और कार्य में तत्परतापूर्वक निरत मिले।
अमीर ने घर के हर कोने में दृष्टि दौड़ाई और कहा- इतनी गरीबी में तो आप दुःखी भी रहते होंगे।
सन्त ने कहा- ‘गरीबी में मनुष्य हलका रहता है। दुःखी तो अज्ञानी और लोलुप रहते हैं। बताइए यहाँ आपको कोई दुःख का चिन्ह दीख पड़ता है क्या?
अमीर सिटापिटा गये उनके सम्पदा और प्रसन्नता के अन्तर को समझा और नया प्रकाश लेकर वापस लौट गये।
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एक व्यक्ति सम्पन्न होते हुए भी अपने को दुःखी अनुभव करता था। उसे अधिक वैभव भी मिलने पर सुखी होने की कल्पना थी। वह मनोकामना पूर्ति के लिए एक सिद्ध पुरुष के पास गया।
सन्त ने कहा- ‘तुम सर्वसुखी मनुष्य का कुर्ता माँग लाओ। उसे मन्त्रित कर दूँगा। उसे पहनते ही तुम भी सर्वसुखी हो जाओगे।’
यह व्यक्ति दर-दर भटकता रहा पर किसी ने भी अपने को सर्वसुखी न बताया। मुद्दतों तक ठोकरें खाते रहने पर वह निराश घर लौटने लगा।
रास्ते में एक अलमस्त मिला। उसने अपने को सर्वसुखी कहा। पर जब कुर्ता माँगा गया तो उसने कहा- मैं तो मुद्दतों से नंगा रहता हूँ। कुर्ता मेरे पास कहाँ से आया?
समझा गया कि सुख एक मानसिक स्थिति है। उसका धन होने न होने से कोई सम्बन्ध नहीं।
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एक निर्धन किसी सिद्ध पुरुष के पास पहुँचा और अपनी दरिद्रता की चर्चा करते हुए किसी प्रकार धन दिलाने की प्रार्थना करने लगा।
सिद्ध पुरुष ने कहा- ‘तुम्हारे पास बहुमूल्य सम्पदा है उसका सही उपयोग करके दरिद्रता दूर क्यों नहीं कर लेते।
दरिद्र ने कहा- ‘मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।’
सन्त ने एक-एक करके प्रश्न पूछे। एक हाथ काटकर बेचने के लिए दो हजार में और दोनों हाथ देने के लिए पाँच हजार में तैयार हो क्या? उस व्यक्ति ने इन्कार कर दिया।
अब प्रश्नों का दूसरा दौर चला। नाक का- आँख का- पैरों का- हृदय का- सिर का मोल भाव होने लगा। कीमत एक से एक बढ़ी-चढ़ी थी। समस्त अवयवों की मिल-जुली कीमत लाखों तक पहुँच गई। पर वह व्यक्ति बेचने से इनकार ही करता रहा? यहाँ तक कि वह अपनी जवानी, किसी के बुढ़ापे के साथ बदलने तक को तैयार न हुआ।
इस पर सन्त ने कहा- “शरीर का मूल्य समझो। मस्तिष्क में भरी ज्ञान सम्पदा की ओर ध्यान दो। इन्हें सम्भालो, उभारो और पुरुषार्थ में जुट पड़ो। दरिद्रता तुम्हारे पास फटकने तक की हिम्मत न करेगी।”