एक साधु थे। भिक्षाटन से मजे में दिन गुजारते, और आनन्दपूर्वक भजन करते। एक दिन महत्वाकाँक्षा शिर पर चढ़ी। झोंपड़ी के चूहों से निपटने के लिए बिल्ली पाली। बिल्ली के लिए दूध की जरूरत पड़ी तो गाय खरीद कर लाये। गाय की साज सम्भाल के लिए महिला की आवश्यकता पड़ी। घर बसा लिया। घरवाली ने बच्चे जने और पूरा गृहस्थ कन्धे पर लद गया। सन्त बनकर भगवान प्राप्त करने और लोक-कल्याण करने का लक्ष्य कहीं से कहीं चला गया। भौतिक आकाँक्षाओं का जाल-जंजाल इतना बड़ा है जिसके बढ़ाते चलने पर पुण्य परमार्थ का लक्ष्य पूरा करने के लिए कुछ बन नहीं पड़ता। सारी क्षमता उसी में चक जाती है। सपनों का जमघट ही शेष रह जाता है।