उद्विग्नता मनुष्य की प्राण घातक शत्रु

April 1984

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इन दिनों रोगों की और रोगियों की संख्या में दिन-दिन अधिकाधिक वृद्धि होती चली जा रही है। अस्पतालों और चिकित्सकों का तेजी से विस्तार हो रहा है। नित नई औषधियों के आविष्कार भी सामने आ रहे हैं। इतने पर भी बीमारियों पर अंकुश लगने जैसे कोई लक्षण नहीं दीखते।

कारणों को तलाश करने से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मनुष्य मानसिक दृष्टि से अधिक दुर्बल होता चला जा रहा है। साधन सुविधाओं की इन शताब्दियों में अभिवृद्धि हुई है। शिक्षा और सम्पन्नता में बढ़ोत्तरी हुई है। इतने पर भी हँसता-हँसाता जीवन क्रम हाथ से छूटता चला जा रहा है। आदर्शों का परित्याग करने के उपरान्त उद्विग्नता, अनिश्चितता और एकाकीपन में भी बढ़ोतरी होना स्वाभाविक है। इसकी प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया बढ़ती हुई उद्विग्नता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से खोखला होने और बीमारियों के चंगुल में फँसने का इसे प्रमुख कारण माना जा सकता है।

जर्मनी के डॉक्टर राएक हैमर ने कैन्सर के मरीजों पर लम्बे समय तक शोध की है कि इसका कारण क्या हो कसता है। प्रचलित मान्यताओं में विषैले वातावरण, विषाणु, एवं आनुवांशिकी खराबियों की वजह से यह रोग पनपते हैं। किन्तु हैमर के अनुसार उसका अधिक व्यापक और गहरा कारण है- मानसिक विक्षोभ। जो लोग चिन्तित, उद्विग्न, खिन्न रहते हैं, उनका स्नायु संस्थान गड़बड़ा जाता है एवं उस प्रभाव से प्रभावित किसी क्षेत्र विशेष में कोशिकाएँ परस्पर उलझकर इस रोग की पृष्ठभूमि बनाती हैं। हैमर ने अपने देश के सरकारी ओर गैर सरकारी अस्पताल में दौरा करके इन रोगियों से जो पूछताछ की इससे इस सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ है कि कैन्सर का सबसे बड़ा कारण मानसिक उद्वेग है।

टैक्सास हैल्थ साइन्स विश्व विद्यालय के प्रो. माईके लर्स्टन ने अपनी खोजों में बढ़ते हुए रोग की औद्योगिक समाज की देन कहा है। कुछ समय पूर्व हृदय रोगियों में से मात्र 25 ही मरते थे पर अब जिन्हें यह रोग पकड़ता है उनमें से 55 प्रतिशत की जान लेकर ही छोड़ता है। अमेरिका में इन दिनों हर वर्ष 10 लाख नये हृदय रोगियों की वृद्धि होती चली जा रही है।

वर्ल्ड हैल्थ आर्गनाइजेशन के अनुसार समृद्ध प्रमुख देशों में आधी मृत्युएँ हृदय रोग से होने लगी हैं। इस बढ़ोतरी में साधनों की कमी या परिस्थितियों की विपन्नता उतना बड़ा कारण नहीं है जितना कि मनुष्य का खिन्न उद्विग्न रहना। खीज ओर उदासी आदमी को तोड़ कर रख देती है और वह कभी भी हृदय रोग जैसी किसी विपत्ति में फँस सकता है।

कैलीफोर्निया के मनोरोग विशेषज्ञ डा. हिल्स का कथन है कि चिन्ता के कारण तो अनेकों हो सकते हैं पर उनका दबाव समझदारी नासमझी के आधार पर कम या अधिक किया जा सकता है। एक दूसरे विशेष मार्मर ने इस अभिमत की पुष्टि की है। वे कहते हैं कि- चिन्तित रहना एक बुरी आदत है। जिसे दुर्बल प्रकृति के लोग स्वभाव का अंग बना लेते हैं। इसके लिए कारण भी उन्हें कुछ न कुछ मिल ही जाते हैं। सुखी समझे जाने वाले लोगों को भी कोई न कोई कारण ऐसा लगा रह सकता है जिसमें उन्हें चिन्ता करनी पड़े। इसलिए वैसे कारणों को समाप्त करना कठिन है। दृष्टिकोण सुधारने पर ही यह हो सकता है कि झंझटों के बीच रहते हुए भी मनुष्य हलका मन रखे रहे और हँसते-हँसाते समय गुजारे।

डॉ. फाक्स के अनुसार चिन्ता करना एक थकाने वाले गति चक्र में भ्रमण करते रहना है। चिन्ता करना- चिंतक का मस्तिष्क उपहृत होना- उद्विग्न मस्तिष्क द्वारा कारण और समझाना समझ न पाना- गतिरोध से खीज उपजना और फिर चिन्ता का वेग और दूना चौगुना बढ़ जाना। यही है थकाने वाला गतिचक्र जिसमें अनेकों को घूमते देखा जाता है। वे ऐसे दलदल में फँसे रहते हैं जिसमें से दृष्टिकोण के सुधार परिवर्तन से अन्य बाहर निकलने का और कोई उपाय है नहीं।

चिन्ता का वास्तविक कारण उतना जटिल नहीं होता जितना कि व्यक्ति समझता है। दृष्टि दोष से कई बार बड़ी चीजें छोटी और छोटी बड़ी भी दिखाई पड़ती हैं। कुछ लोग छोटी को बड़ी मानकर देखने के आदी होते हैं। उन्हें आशंकाएँ दीखती रहती हैं और आगत संकट की कल्पना बढ़ा-चढ़ाकर करने के कारण वे पर्वत जैसी विशालकाय प्रतीत होती हैं। ऐसे लोग तनिक-सा अन्धेरा होते ही झाड़ी को भूत की शकल में देख लेते हैं। आशंकाओं पर कल्पना का समर्थन पुट चढ़ाते रहने पर वे तिल से बढ़कर ताड़ बन जाती हैं। इसके विपरीत बड़ी चीज को हलकी करके देखने से नशा उतर जाता है और चिन्ता का वास्तविक कारण रहते हुये भी निर्भय जी सकने योग्य मनोबल मिल जाता है।

वनवासी लोग छोटी-छोटी झोंपड़ियों में बिखरे हुये रहते हैं। उस क्षेत्र में हिंस्र पशुओं के झुण्ड घूमते रहते हैं। सर्प बिच्छुओं की भी कमी नहीं रहती। इतने पर भी वे गहरी नींद सोते और दिन भर भोजन की तलाश अकेले दुकेले घूमते रहते हैं। पीड़ियों से इसी जीवनचर्या को अपनाये हुये हैं। उन्हें डर नहीं लगता कि इन हिंस्र पशुओं के बीच रहते हुये किस प्रकार गुजारा होगा। निर्भयता, और निश्चिन्तता अच्छे स्वभाव का चिन्ह है। जिसे अपनाकर वास्तविक कठिनाइयों के बीच भी सरलतापूर्वक रहा और जिया सकता है। इसके विपरीत डरपोक तो सपने में भी भूत देखकर हड़बड़ाते और चीख पुकार करते देखे गये हैं। सर्प सिंह की कल्पना जितनी डरावनी है उतनी उसकी समीपता नहीं सपेरे और सरकस वाले उन्हीं के साथ रहकर जिन्दगी गुजार देते हैं।

दार्शनिक कवि उमर खय्याम ने अपनी एक सवाई में कहा है- “भूत को भूल जाओ क्योंकि वह मर चुका, अब फिर कभी लौटने वाला नहीं है। भविष्य में रंगरेलियाँ न करो क्योंकि अभी उसके जन्मने तक में देर है। मात्र वर्तमान पर ध्यान केन्द्रित करो, क्योंकि उसी का सदुपयोग करने पर वैसा कुछ मिल सकता है, जिसकी कि चाहना है।”

चिन्तित वे रहते हैं जो अपने को एकाकी अनुभव करते हैं। उन्हें लगता है कि कठिनाइयों का पर्वत मुझे अकेले ही उठाना पड़ेगा। जबकि बात वस्तुतः वैसी है नहीं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसने प्रगति मिल-जुलकर की है। एक दूसरे को सहारा देने के विचार अपनाकर ही परिवार और समाज का व्यवस्था-क्रम चलता है। ग्राहक और दुकानदार के सहयोग से व्यवसाय होता है। एक घर की लड़की दूसरे घर जाकर नया परिवार बसाती है यह सब सघन सहयोग के सहारे ही सम्भव होता है। इस तथ्य पर विश्वास रखा जाना चाहिए कि जब हम अपनी खुशियाँ बाँटते रहते हैं तो दूसरे भी कठिन समय आने पर सहायता करेंगे। बोझ बँटाने वाले सहयोगी भी कहीं न कहीं से निकल ही आयेंगे।

अच्छा हो, चिन्तित व्यक्ति दूसरे समझदारों से अपनी घुटन खोले और उनसे निराकरण सम्बन्धी परामर्श माँगे। यों गिरे को खड्डे में धकेलने वाले भी कम नहीं हैं पर अभी यह दुनिया समझदारों से रहित नहीं हुई है। जिनसे परामर्श प्राप्त किया जा सके। ऐसे विश्वस्त लोगों से सम्पर्क सध सके और विचार विनिमय बन पड़े तो ऐसे परामर्श मिल सकते हैं जिनसे कुकल्पनाओं से पीछा छूटे और जो संभव है उसे करने के लिए रास्ता मिले। एकाकी बुड़-बुड़ाते रहने और जाल में फँसे पक्षी की तरह फड़फड़ाने पर और कड़ी जकड़ में फँसते चलने से कोई बात बनती नहीं। यह स्पष्ट समझा जाना चाहिए कि गलती जहाँ से आरम्भ होती है, सुधार वहीं होना चाहिए। पानी जहाँ से रिसता है, छेद बन्द करने के लिए उसी स्थान तक पहुँचा जाना चाहिए।


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