चिन्तन व्यवस्थित हो, विधेयात्मक हो

April 1984

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विराट् सागरों में आये दिन तूफान, ज्वार-भाटे आते रहते हैं। उनमें यात्रा करने वाले जलपोतों के नाविकों को अद्भुत धैर्य कुशलता, जागरुकता तथा सन्तुलन का परिचय देना पड़ता है। मनः सन्तुलन डगमगाते ही पोत की सुरक्षा भी खतरे में पड़ जाती है जीवन भी एक लम्बा पथ है जिसमें कितने ही प्रकार के झंझावात आते रहते हैं। कभी संसार की प्रतिकूल परिस्थितियों अवरोध खड़ा करती हैं तो कभी स्वयं की आकांक्षाएँ। ऐसे में सन्तुलित दृष्टि न हो तो भटकाव ही हाथ लगता है। असफलताओं के प्रस्तुत होते ही असन्तोष बढ़ता जाता है तथा मनुष्य अनावश्यक रूप से भी चिन्तित रहने लगता है। सन्तुलन के अभाव में चिन्ता आदत में शुमार होकर अनेकों प्रकार की समस्याओं को जन्म देती है। अधिकाँश कारण इनके निराधार ही होते हैं।

चिन्ता किस प्रकार उत्पन्न होती है, इस सम्बन्ध में प्रख्यात मनोवैज्ञानिक मैकडूगल लिखते हैं कि “मनुष्य की इच्छाओं की आपूर्ति में जब अड़चनें आती हैं तो उसका विश्वास आशंका और निराशा में परिवर्तित हो जाता है। पर वह आयी अड़चनों तथा विफलताओं से पूर्णतः निराश नहीं हो जाता, इसलिए उसकी विभिन्न प्रवृत्तियाँ अपनी पूर्ति और अभिव्यक्ति का प्रयास करती रहती हैं। सामाजिक परिस्थितियाँ तथा मर्यादाएँ मनुष्य के लिए सबसे बड़ी अवरोध बनकर सामने आती हैं तथा इच्छाओं की पूर्ति में बाधक बनती हैं। जिससे उसके मन में आन्तरिक संघर्षों के लिए मंच तैयार हो जाता है। इसी में से असन्तोष और चिन्ता का सूत्रपात होता है। अनावश्यक चिन्ता उत्पत्ति के अधिकाँश कारण मनोवैज्ञानिक होते हैं।”

एक सीमा तक चिन्ता की प्रवृत्ति भी उपयोगी है। पर जब वह मर्यादा सीमा का उल्लंघन कर जाती है तो मानसिक सन्तुलन के लिए संकट पैदा करती है। व्यक्तिगत पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन से जुड़े कर्त्तव्यों के निर्वाह की चिन्ता हर व्यक्ति को होनी चाहिए। बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षण एवं विकास की- उन्हें आवश्यक सुविधाएँ जुटाने की चिन्ता अभिभावक न करें, अपनी मस्ती में डूबे रहें- भविष्य की अपेक्षा करके वर्तमान में तैयारी न करें तो भला उनके उज्ज्वल भविष्य की आशा कैसे की जा सकती है। विद्यार्थी खेलकूद में ही समय गँवाता रहे- आने वाली परीक्षा की तैयारी न करे तो उसके भविष्य का अन्धकारमय होना सुनिश्चित है।

“जो होगा सो देखा जायेगा”, किसान यह नीति अपना कर फसलों की देख-रेख करना छोड़ दे- निराई-गुड़ाई करने की व्यवस्था न बनाये खाद-पानी देना बन्द कर दे तो फसल के चौपट होते देर न लगेगी। व्यवसाय में व्यापारी बाजार भाव के उतार-चढ़ाव के प्रति सतर्क न रहे तो उसकी पूँजी के डूबते देरी न लगेगी। सीमा प्रहरी रातों-दिन पूरी मुस्तैदी के साथ सीमा पर डटे चहल-कदमी करते रहते हैं। सुरक्षा की चिन्ता वे न करें तो दुश्मन- घुसपैठियों से देश को खतरा उत्पन्न हो सकता है। मनीषी विचारक, समाज सुधारक, देशभक्त, महापुरुष का अधिकाँश समय विधेयात्मक चिन्तन में व्यतीत होता है। उन्हें देश, समाज संस्कृति ही नहीं समस्त मानव जाति के उत्थान की चिन्ता होती है। सार्वजनीन तथा सर्वतोमुखी प्रगति के लिए वे योजना बनाते और चलाते हैं। यह विधेयात्मक चिन्ता ही है जिसकी परिणति रचनात्मक उपलब्धियों के रूप में होती है।

मानव जीवन वस्तुतः अनगढ़ है। पशु-प्रवृत्तियों के कुसंस्कार उसे पतन की ओर ढकेलने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहते हैं। उनकी अभिप्रेरणा से प्रभावित होकर इन्द्रियों को मनमानी बरतने की खुली छुट दे दी जाय तो सचमुच ही मनुष्य पशुओं की श्रेणी में जा बैठेंगे। पर यह आत्म गरिमा को सुरक्षित रखने की चिन्ता ही है जो मनुष्य को पतन के प्रवाह में बहने से रोकती है। मानवी काया में नर पशु भी होते हैं जिनका कुछ भी आदर्श नहीं होता। परन्तु जिनमें भी महानता के बीज होते हैं वे उस प्रवाह में बहने से इन्कार कर देते हैं। सुरक्षा प्रहरी की तरह वह स्वयं की प्रवृत्तियों के प्रति विशेष जागरुक होते हैं। हर विचार की- मन में आये संवेगों की वे बारीकी से परीक्षण करते हैं तथा सदैव उपयोगी चिन्तन में अपने को नियोजित करते हैं।

चिन्ता करना मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। एक सीमा तक वह मानवी विकास में सहायक भी है। पशुओं का जीवन तो प्रवृत्ति तथा प्रकृति प्रेरणा से संचालित होता है। शिश्नोदर जीवन वे जीते तथा उसी में आनन्द अनुभव करते हैं। किन्तु मनुष्य की स्थिति भिन्न है। मात्र इन्द्रियों की परितृप्ति से उसे सन्तोष नहीं हो सकता। होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि उसके ध्येय उच्च हैं। उनकी प्राप्ति के लिए उसे स्वेच्छापूर्वक संघर्ष का मार्ग वरण करना पड़ता है। यह मनुष्य के लिए गौरवमय बात भी है कि वह अपनी यथास्थिति पर सन्तुष्ट न रहे।

प्रख्यात यूनानी दार्शनिक सुकरात कहा करता था कि “एक असन्तुष्ट मनुष्य सन्तुष्ट पशु से कहीं अच्छा है।” सचमुच ही मनुष्य पशुओं की तरह शिश्नोदर जीवन की तृप्ति में ही सन्तुष्ट हो जाय तो उसका विकास अवरुद्ध हो जायेगा। मानव संस्कृति का इतिहास वस्तुतः निषेधों और संघर्षों की एक ऐसी गाथा है जो असन्तोष से शुरू हुई पर प्रगति की एक प्रमुख आधार भी बनी। अपनी गयी गुजरी स्थिति से उबरने की चिन्ता मानव को न हुई होती तो आज की प्रगतिशील स्थिति तक पहुँचना सम्भव न हो पाता।

जिस समाज में मनुष्य रहता है उसमें अगणित प्रकार के लोग हैं। उनकी प्रकृति एवं अभिरुचि भी भिन्न-भिन्न है। चाहते हुए भी सबको एक जैसा नहीं बनाया जा सकता। अपने आपे को बदलना सामान्य व्यक्ति के लिए कठिन पड़ता है। दूसरों की अभिरुचियाँ बदल देना और भी कठिन है। सभी अपनी मनमर्जी के अनुकूल ढल जायँ यह ऐसी हवाई कल्पना है जो कभी पूरी नहीं होती। जो ऐसी कल्पना करते अथवा सोचते हैं वे वास्तविकता से सर्वथा अपरिचित हैं। व्यक्ति तथा समाज की अधिकाँश समस्याएँ भी इसीलिए उत्पन्न होती हैं कि मनुष्य सामाजिक मनोविज्ञान को समझ नहीं पाता। अनावश्यक रूप से चिन्तित तथा खिन्न होने का कारण भी यही है कि मनुष्य अपनी कल्पना के अनुरूप समाज और संसार को देखना चाहता है। इस चाह की आपूर्ति कभी नहीं हो पाती।

विभिन्न प्रकृतियों एवं अभिरुचियों वाले व्यक्तियों से मुक्त समाज से जो जितना अधिक तालमेल बिठा लेता है वह जीवन में उतना ही सफल रहता है। तालमेल बिठाने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि अनौचित्य से समझौता किया जाय, वरन् यह है कि अच्छाई का जितना अंश जहाँ दिखायी दे उतने अंश से सामंजस्य स्थापित किया जाय। व्यक्तियों की बुराइयों को सुधारने के लिए प्रयत्न तो किया जाय पर यदि नहीं दूर होती तो उनकी उपेक्षा की जाय। समाज में यदि प्रसन्नतापूर्वक रहना है तो सामंजस्य की प्रवृत्ति विकसित करना होगी। दूसरों को बदलने की अपेक्षा अपने को बदलना सुगम और हितकर है।

ध्यान यह रखा जाना चाहिए कि चिन्ता को इस सीमा से आगे न बढ़ने दिया जाय जिससे कि मानसिक सन्तुलन को ही खतरा उत्पन्न होने लगे। मनः सन्तुलन को किसी भी कीमत पर नहीं गँवाया जाना चाहिए। चिन्ता को उतना ही महत्व दिया जाय जितना कि वह कर्त्तव्य निर्वाह में सहायक है।


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