परिवर्तन- सृष्टि की एक शाश्वत विधि व्यवस्था

April 1984

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“परिवर्तन के अतिरिक्त संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं हैं”, किसी विचारक के इस कथन की सत्यता को सर्वत्र परखा जा सकता है। हर क्षण संसार बदल रहा है, स्थिरता कहीं भी नहीं है। जिन्हें हम स्थिर मानते हैं, वे भी तीव्र गति से हलचल कर रहे हैं। नेत्रों का भ्रम उस गति को देखने में अवरोध खड़ा करता है। पैरों के नीचे पड़े मिट्टी के कण गतिहीन प्रतीत होते हैं, पर उनके सूक्ष्मतम घटकों को देखा जा सके, तो प्रतीत होगा, के उनमें भी अत्यन्त तीव्र हलचल हो रही है। गति से रहित शरीर के आन्तरिक संस्थानों के क्रियाकलाप कभी रुकते नहीं है। हर क्षण लाखों कोशिकाएँ मरती तथा लाखों नयी पैदा होकर उनका स्थान ले लेती हैं, प्रत्यक्ष नेत्रों को यह कहाँ दिखाई पड़ता है। गति एवं परिवर्तनों का मात्र स्थूल पक्ष ही नेत्रों को दिखाई पड़ता अथवा अनुभव में आता है। अधिक सूक्ष्म परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होते। पर इससे उस सचाई पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता कि सृष्टि के हर छोटे-बड़े घटक गतिशील हैं तथा उनमें निरन्तर परिवर्तन हो रहे हैं।

पृथ्वी के स्वरूप एवं इतिहास की जानकारी प्राप्त करने वाले भू-भौतिकीविदों का मत है कि आज की तुलना में पृथ्वी की स्थिति पहले भिन्न थी। पृथ्वी की उत्पत्ति के संदर्भ में संकुचन और प्रवाह के दो सिद्धान्त प्रमुख हैं। संकुचन सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी आरम्भ में बहुत गर्म थी, फिर धीरे-धीरे ठण्डी होकर संकुचित हुई। इस संकुचन के फलस्वरूप महाद्वीपों का विस्थापन शुरू हुआ। उन विशेषज्ञों का अभिमत है कि किसी प्रागैतिहासिक युग में आस्ट्रेलिया, दक्षिण एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका महाद्वीप एक-दूसरे से जुड़े हुए थे, जो बाद में अलग-अलग हो गये।

अमरीकी वैज्ञानिक डा. राबर्ट एस. दि एज तथा डा. सी. होल्डेन ने महाद्वीपों के तैरने की गति, उनके फिसलने कि दिशा, उनकी वर्तमान स्थिति, समुद्र गर्भीय पर्वत श्रेणियों का विस्तार, चुम्बकीय जल क्षेत्रों कि प्राचीन दिशायें तथा भूगर्भिय संरचना में समानताएँ आदि तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है, कि अब से 25 करोड़ 50 लाख वर्ष पूर्व पर्मियन युग में सभी महाद्वीप एक-दूसरे से जुड़े हुए थे, सात में विभक्ति न थे, मात्र एक महाद्वीप था। उसे तब पैजिया कहा जाता था। उस समय दक्षिण अमरीका अफ्रीका से सटा हुआ था और अमरीका का पूर्वी समुद्री तट उत्तरी अफ्रीका के भू खण्ड से चिपका हुआ था। आस्ट्रेलिया महाद्वीप एण्टार्कटिका का एक भाग था तथा भारत दक्षिण अफ्रीका एवं एण्टार्कटिका के बीच दबा हुआ था।

होल्डेन के अनुसार यह महाद्वीप एक किनारे पर 60 अंश, पश्चिम के देशांतर से 120 अंश पूर्व देशांतर तक अवस्थित था। उस समय पृथ्वी की आयु साढ़े चार वर्ष हो चुकी थी। छोटे-छोटे पौधे तथा जीव-जन्तु अस्तित्व में आ चुके थे, पर ‘पैजिया’ महाद्वीप 50 लाख वर्ष बाद ही कई खण्डों में विभाजित होने लगा। पहले वह दो भागो में बँटा- उत्तरी और दक्षिणी उपखण्डों में जो क्रमशः लारेशिया और गोंडवाना नाम से प्रख्यात हुआ। लारेशिया में उत्तरी अमरीका तथा एशिया सम्मिलित थे तथा गोंडवाना लैंड में दक्षिणी अमरीका और एण्टार्कटिका। लगभग 13 करोड़ वर्ष पूर्व वे दोनों विशाल भू-भाग भी छोटे उपखण्डों में विभाजित हो गये, तथा 6 करोड़ 50 लाख वर्ष पूर्व वे महाद्वीप धीरे-धीरे फिसलते हुये एक-दूसरे से अलग होते गये, और अन्ततः आज की स्थिति में आ पहुँचे।

दोनों भू-भौतिकीविदों का मत है, कि महाद्वीपों तथा महासागरों की स्थिति ठीक वैसी है जैसे पुरानी जमी हुई बर्फ पर नई बर्फ की परत का जमना। जब गर्मी पड़ती है, तो नई बर्फ की परत थोड़ी पिघलती है और पुरानी बर्फ की सतह पर फिसलने लगती है, जबकि पुरानी बर्फ की परत पहले की भाँति जमी रहती है। हमारी पृथ्वी के महाद्वीप तथा महासागर लगभग 80 किलोमीटर या उससे भी अधिक मोटे एक ठोस पदार्थ की परत पर अवस्थित थे। ठोस पदार्थ की वह परत लाखों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है एवं पृथ्वी के गर्भ में तैरती अथवा फिसलती है, तथा महाद्वीपों, महासागरों के फिसलने का कारण बनती है।

महाद्वीपों की गति एवं स्थानान्तरण से नये द्वीप एवं पर्वत भी बनते-मिटते रहते हैं। अमरीकी भूगर्भ शास्त्री डॉ. जान एफ. वर्ड तथा जान. एफ. डेवी के अनुसार फिसलन की प्रक्रिया में भारत उपमहाद्वीप का भूखण्ड एशिया महाद्वीप के भूखण्ड से टकराया, तो एक गहरी खाई बन गयी। दोनों भूखण्ड एक दूसरे को दबाते रहे और उनके किनारे क्रमशः नीचे की ओर धँसते गये ऊपर का पदार्थ नीचे गर्भ क्रोड की तरफ चलता गया। अन्ततः जब दोनों टकराये तब उनका अपेक्षाकृत हल्का पदार्थ मुख्य भूखण्ड से अलग होकर ऊपर उठ गया और उसने बाद में हिमालय पर्वत जैसा आकार ग्रहण कर लिया। पर्वतों के निर्माण की यही प्राकृतिक विधि है।

बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान लखनऊ के पुरावनस्पति शास्त्री डॉ. आर. जे. लखनपाल एवं उनके सहयोगी डॉ. एस. गुलेरिया ने अपने अध्ययनों से निष्कर्ष निकाला है, कि भारत के उत्तरी सिरे पर बना बिना पेड़-पौधे व भीषण ठण्ड वाले क्षेत्र लद्दाख की जलवायु पहले गर्म शीतोष्ण हुआ करती थी। यह लगभग डेढ़ करोड़ वर्ष पहले की बात है। लद्दाख के कुछ हिस्से से मिले हिमालयी पाम व गुलाब की प्रजाति के जीवावशेषों के अध्ययन के आधार पर उन्होंने उपरोक्त निष्कर्ष निकाले हैं। खोज में यह बात भी सामने आयी है, कि पिछले डेढ़ करोड़ वर्षों में हिमालय की ऊँचाई तीन हजार मीटर बढ़ गयी है।

प्रख्यात वैज्ञानिक टेलर ने 1910 में बताया, कि पृथ्वी की घूर्णन गति में परिवर्तन के फलस्वरूप महाद्वीपों का विस्थापन दो दिशाओं में हुआ। एक दोनों ध्रुवों से भूमध्य रेखा की ओर, और दूसरा अफ्रीका से पश्चिम की ओर। पहले प्रकार के विस्थापन के आल्पस, हिमालय, कैकेशस आदि पर्वत बने तथा दूसरे प्रकार से राकी, ऐण्डीज पर्वत बन गये।

ब्रिटेन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक ब्लेकेट महोदय ने लगातार कई वर्षों तक ध्रुवों के अध्ययन के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला, कि महाद्वीपीय विस्थापन की प्रक्रिया चलती रहती है। उन्होंने यह भी बताया, कि भू-चुम्बकत्व की दिशा में भी परिवर्तन होता रहता है। अनेकों बार पृथ्वी के उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव दक्षिणी में तथा दक्षिणी उत्तरी में बदले हैं। जब ध्रुव बदलते हैं, तो संसार की अन्य भौगोलिक परिस्थितियों में भी विशेष अन्तर आता है। ब्लेकेट महोदय का मत है, कि लगभग सात करोड़ वर्ष पहले भारत भूमध्य रेखा के दक्षिण में था। अमरीका, अफ्रीका, यूरोप व भारत निरन्तर उत्तर की ओर खिसक रहे हैं। तीस करोड़ वर्ष पूर्व पेरिस भूमध्य रेखा पर था, और यूरोप उसके समीप था। द्वीपों के खिसकने की दिशाओं में भी समय-समय पर परिवर्तन आते रहते हैं।

सन् 1960 में डॉ. हैरीहेस ने महाद्वीपों के खिसकने का एक नया हेसके प्लेट-टेक्टॉनिक सिद्धान्त को जन्म दिया। उनका कहना था, कि महाद्वीपों के खिसकने का कारण है- पृथ्वी मैरोडियो एक्टिव तत्वों की उपस्थिति। उससे ही अत्यधिक ऊष्मा पैदा होती, जो संवहन धाराओं को जन्म देती है। ये संवहन धाराएँ अपने प्रवाह में महाद्वीपों की स्थिति को भी प्रभावित करती हैं।

सोवियत विज्ञान अकादमी के भूभौतिकी संस्थान के विशेषज्ञ वैज्ञानिक विगत 25 वर्षों से पामीर की पीटर प्रथम तथा कारातेगीन्सकी पर्वत मालाओं का अध्ययन कर रहे हैं। उनका मत है, कि 25 साल में ये पर्वत मालाएँ एक-दूसरे के आधा मीटर और पास खिसक आयी हैं।

कौन महाद्वीप कब किधर खिसक जायेगा, इसकी सुनिश्चित भविष्यवाणी कर सकना तो असम्भव है, पर पृथ्वी की चुम्बकीय क्षेत्र की विभिन्नता के आधार पर भू-भौतिकविदों के एक दल ने सम्भावना व्यक्त की है, कि निकट भविष्य में महाद्वीपों की स्थिति में परिवर्तन इस प्रकार होंगे-

अफ्रीका उत्तर की ओर खिसकेगा तथा यूरोप के निकट हो जायेगा तथा भूमध्य सागर या तो बहुत छोटा हो जायेगा अथवा समाप्त हो जायेगा। लॉस ऐन्जिल्स सहित कैलीफोर्निया का कुछ भाग उत्तर की ओर खिसकेगा तथा उत्तरी अमरीका से अलग हो जायेगा।

भारतीय विशेषज्ञ डॉ. चौधरी के अनुसार उत्तर प्रदेश और बिहार प्रति वर्ष पाँच से.मी. उत्तर की ओर खिसक रहे हैं। इस प्रक्रिया से एक समय ऐसा आयेगा जब ये दोनों प्रान्त हिमालय के नीचे होंगे। जर्मनी के ज्वालामुखी विशेषज्ञ ‘हेरन ताजिफ’ का कहना है, कि अफ्रीका के इथीमोपिया राष्ट्र का कुछ अंश लाल सागर में डूब जायेगा जिसके बाद एक नया सागर बन जायेगा। दक्षिणी अमरीका के उत्तर में स्थित कैरेबियन सागर में नये छोटे-छोटे स्थल खण्ड द्वीप बन जायेंगे जैसे कि अभी उसके पास-पास सेन्ट लूसिया, जमाइका, प्यूटोरिको, डामिनिका आदि अनेक द्वीप हैं। इस प्रकार अनुमानतः सभी महाद्वीप 10 सेंटीमीटर प्रति वर्ष की गति से खिसक रहे हैं।

महाद्वीप ही नहीं, सृष्टि के कण-कण में हर क्षण परिवर्तन हो रहा है, स्थिरता कहीं नहीं है। करोड़ों जीव प्रकृति के गर्भ में हर पल पैदा होते, तथा करोड़ों मृत्यु की गोद में जा पहुँचते हैं। एक स्थिति लौटकर कभी नहीं आती। लगता भर है, कि परिस्थितियों की पुनरावृत्ति हो रही है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। संसार की जो स्थिति कल थी, वह आज नहीं है। कल उसका रूप दूसरा ही होगा। सतत् गति एवं अगणित परिवर्तनों ने संसार को एक स्थिर हालत में कभी भी नहीं रहने दिया है।

परिवर्तन के नियमों से मनुष्य भी बँधा है। एक हालत में न तो मनुष्य की शारीरिक स्थिति रहती है, और न ही प्रकृति की। जन्मा हुआ शिशु नित्य नये दौर से गुजरता तथा विकास की एक निश्चित मंजिल नित्य पूरी करता है। किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि से गुजरता हुआ मृत्यु को प्राप्त होता है। शरीर में हुए परिवर्तनों के अनुरूप उसे अपनी मनःस्थिति में भी परिवर्तन करना पड़ता है। जो मनःस्थिति बचपन की होती है, वह युवा वय में नहीं होती। वृद्धावस्था में मन की प्रकृति बदल जाती है।

विचारों एवं मान्यताओं में भी समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। एक समय की उपयोगी तथा स्वस्थ मान्यताएँ दूसरे समय में अनुपयोगी हो जाती है, जरा-जीर्ण होकर अन्ध विश्वास का रूप ले लेती हैं। विवेक के आधार पर उनका चयन न किया जाय तो हानिकर ही सिद्ध होती हैं। ठीक इसी प्रकार अपना सोचना ही सही है, अपनी जानकारियाँ परिपूर्ण हैं इस तरह का चिन्तन भी एकाँगी है। विचारशीलता इस बात में सन्निहित है कि विवेक के आधार पर औचित्य को अपनाने के लिए सदा तैयार रहा जाय। परिवर्तनशील इस संसार में बदली परिस्थितियों के अनुरूप सामंजस्य बिठा लेना सबसे बड़ी बुद्धिमता है। जो परिवर्तनों को स्वीकार नहीं करते, अपनी मनःस्थिति को जड़वत् बनाये रहते हैं, वे पिछड़ेपन के अभिशाप से लदते एवं प्रगति के अवसर अपने हाथों गँवा बैठते हैं।


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