प्रलोभन की मृग मरीचिका एवं अपरिग्रह का नन्दन वन

April 1984

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महापण्डित कौत्स्य कालिन्दी तट पर बैठकर नित्य प्रवचन करते। उनका प्रधान विषय होता था लोभ से विनाश। कथन, श्रवण ही उन्हें सब कुछ लग रहा था। इतना ही नहीं प्रलोभन और व्यक्तिक्रम का अवसर न आने से वे अपने को आत्मजयी अनुभव करने लगे।

गहरे जल में रहने वाले घड़ियाल ने उनकी वाचालता अपरिपक्वता और अहमन्यता को तोड़ा और एक अतिरिक्त प्रसंग प्रस्तुत किया। अवसर पाकर एक दिन उसने बहुमूल्य मोतियों के दाने तट से लेकर उनके आसन तक बखेर दिये।

ध्यान बटा तो चमकते मोतियों के बटोरने के लिए वे पुस्तक और माला एक ओर रखकर उठ खड़े हुए। एक-एक करके बीनते हुए वे धारा के समीप तक जा पहुँचे।

घड़ियाल ने साष्टांग दण्डवत करते हुए कहा। “जलचर होने के कारण आपके आसन तक पहुँच नहीं पाता था सो मोती बखेर कर आपको ही यहाँ तक पधारना और दर्शन देने का कष्ट किया। मैं धन्य हो गया।”

घड़ियाल की सम्पन्नता और उदारता और श्रद्धा देखकर कौत्स्य बहुत प्रसन्न थे। उसे आशीर्वाद देने लगे। तो घड़ियाल और भी गिड़गिड़ाया बोला- आप तो करुणा निधान हैं। मेरी एक और मनोकामना पूरी कर दें। त्रिवेणी स्थान की मेरी इच्छा है पर मार्ग देखा नहीं। आप मेरी पीट पर सवार होकर वहाँ तक मार्गदर्शन करते चलें तो मेरे पास सहस्र मणि मुक्तकों वाला जो हार है उसे भी भेंट करूँगा।

लोभ के प्रथम आक्रमण, आकर्षण में महापण्डित का पाण्डित्य हवा में उड़ गया। इतना बड़ा लाभ उनसे छोड़ते न बना। सो मगर की पीठ पर जा चढ़े। बीच धारा में पहुँच कर दोनों सुखपूर्वक प्रवाह का आनन्द लेने लगे।

घड़ियाल ने जिज्ञासा की- आप प्रतिदिन लोभ से विनाश का जो उपदेश देते रहते थे वह उतनी जल्दी विस्मृत कैसे हो गया?

उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही घड़ियाल ने करवट बदली और जल में बहते महापण्डित को उदरस्थ कर लिया?

***

सन्त ने सम्राट का आतिथ्य स्वीकार किया। राजा ने उन्हें सत्कारपूर्वक कई दिन ठहराया सत्संग का लाभ लिया। साथ ही राजमहल के अनेक बहुमूल्य पदार्थ दिखाये। रत्न भण्डार में लाये और रखे हुए मणि मुक्तकों का परिचय कराने लगे। सन्त मौन रहकर यह सब सुनते रहे।

एक बार सन्त ने राजा को अपनी कुटिया पर आमन्त्रित किया। समयानुसार वे पहुँचे भी। आतिथ्य के उपरान्त सन्त ने आश्रय की छोटी-छोटी वस्तुओं का दिखाना आरम्भ कर दिया। सस्ती और सामान्य वस्तुएँ देखने में राजा को रुचि नहीं थी तो भी वे शिष्टाचार वश उन्हें उपेक्षापूर्वक जैसे-तैसे देखते रहे।

देर तक जिसकी उपयोगिता बताई गई वह थी आटा पीसने की हाथ चक्की।

राजा की अरुचि अब अधिक मुखर होने लगी वे बोले- “वह तो घर-घर में रहती है। एक दो रुपये मूल्य की होती है। इसमें क्या विशेषता”।

सन्त गम्भीर हो गये। बोले आपके रत्न भी पत्थर के हैं। किसी काम नहीं आते, उल्टे रखवाली कराते हैं। जब कि चक्की जीवन भर उपकार करती और अनेकों का पेट भरती है। रत्न राशि से इसका महत्व कहीं अधिक है।

राजा का विवेक जगा और वे उपयोगिता अनुपयोगिता का अन्तर समझने लगे।


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