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January 1983

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सर्गे-सर्गे पृथगरूप सन्ति सर्गान्तराण्यपि। तेष्वप्यंतःस्थसर्गोधाः कदलीदल पीठवत॥ -योग वशिष्ठ 4।15।16-1

आकाशे परमाष्वन्तर्द्र व्यादेररणुकेऽपिच। जीवाणुर्यत्र तत्रेंद जगदवेत्ति निजं वपुः॥ -योग वाशिष्ठ 3।44।34-35

अर्थात्- हे लीला! जिस प्रकार केले के तने के अन्दर एक के बाद एक परतें निकलती चली आती हैं। उसी प्रकार प्रत्येक सृष्टि के भीतर नाना प्रकार के सृष्टि क्रम विद्यमान हैं। इस प्रकार एक के अन्दर अनेक सृष्टियों का क्रम चलता है। संसार में व्याप्त चेतना के प्रत्येक परमाणु में जिस प्रकार स्वप्नलोक विद्यमान है उसी प्रकार जगत में अनन्त द्रव्य के अनन्त परमाणुओं के भीतर अनेक प्रकार के जीव और उनके जगत विद्यमान हैं।


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