सृष्टा और मानव (kavita)

January 1983

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कोई बहुत कुशल सृष्टा है अखिल सृष्टि का रचनाकार। लगता है मानव के हित ही उसने रचा सकल संसार॥

तेज पुज सविता को आभा जीवन भरती कण-कण में। कितनी व्यापक शक्ति कि छायी जड़ जंगम में जीवन में॥

प्राणमयी लालिमा उषा की पिला रही अमृत रसाधार॥ सुन्दर शशि व तारकावलि की उषमा अभी न मिल पायी।

रात दिवस का क्रम मानव के हित है कितना सुखदायी॥ अन्य ग्रहों से भी कर सकते हम अपना परिचय विस्तार॥

गिरी की दृढ़ता रची उसी ने नदियों की मतवाली चाल। खारे जल वाले सागर को मोती देकर किया निहाल॥

प्राण छिड़कती कल-कल करते झरनों की रसमयी फुहार॥ माँ के वक्षस्थल सी धरती उस पर शैया फूलों की।

बहती हुई हवा मानो अनुभूति कराती झूलों की॥ क्षुधा मिटाने हेतु वनस्पतियों कहा है अक्षय भण्डार॥

है कमाल उस चित्रकार का रंगों की संरचना में। है न दूसरा कलाकार इस परम पुरुष की तुलना में।।

भाँति-भाँति के जीव जन्तु इसका विचित्र कल्पना प्रसार॥ तन-मन सौंपा हमें मनोहर सुखमय जीवनयापन को।

करुणा ममता दया क्षमा निधियां दी मानव मन को॥ और दिया है जिससे बढ़कर आत्मतृप्ति कर मधु सा प्यार॥

कोयल का संगीत मोर की मनमोहक मतवाली तान। सुनकर जगती मृदुल भावना तन्मय हो जाते हैं प्राण॥

इन सुंदरताओं में मानो वह खुद हो उठता साकार।। समझें अपने सृजनहार को इसके लिये दिया है ज्ञान।

इस भव का सौंदर्य बढ़े इसमें प्रयत्नरत हो विज्ञान॥ सत्यम् शिवम् सुंदरम् हो अपनी हर गतिविधि का आधार॥

कोई बहुत कुशल सृष्टा है अखिल सृष्टि का रचनाकार। लगता है मानव के हित ही उसने रचा सकल संसार॥

(माया वर्मा)


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