प्राण विद्युत की चमत्कारी कार्य क्षमता

January 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

शरीर के अवयवों के संचालन एवं क्रिया-कलाप में आमतौर से रक्त की प्रधान भूमिका मानी जाती है। यह मोटी जानकारी है यदि थोड़ी गहराई में घुसकर देखा जाय तो प्रतीत होता है कि समूचे काय तन्त्र की अनेकानेक गतिविधियों का उत्तेजन एवं नियमन एक विशेष प्रकार की बिजली के सहारे होता है जो मस्तिष्क में उत्पन्न होता और नाड़ी तन्तुओं द्वारा समस्त अवयवों के भीतर तथा बाहर छाई रहती है। बिजली की शरीर में वही भूमिका होती है जो मोटर में बैटरी डायनेमो की। रक्त पैट्रोल है, तो जैव विद्युत। दोनों के संयोग से ही जीवन धारण बन पड़ता है।

यह कायिक बिजली मशीनी बिजली से भिन्न है। यन्त्र विद्युत झटका मारती और मशीनें चलाती है। कायिक बिजली शरीर और मस्तिष्क के अवयवों को सम्भालती है। बाहरी क्षेत्र में अपने प्रभाव का परिचय देती है। इसे प्राण कहते हैं। वह ब्रह्माण्डव्यापी महाप्राण का एक अंश है जो मनुष्य शरीर में काम करता है। इसे घटाया बढ़ाया जा सकता है। संकल्प बल एवं अभ्यास से जिस प्रकार अनेक कला-कौशलों की प्रवीणता प्राप्त होती है, उसी प्रकार प्राण विद्युत को भी योग साधनों के सहारे समुन्नत किया जा सकता है।

यों छोटी बैटरी भी विद्युत भाण्डागार का एक घटक ही है और टार्च जलाने जैसे छोटे काम वह भी कर सकती है पर यदि किसी नगर या कारखाने की मशीनें चलानी हों तो बड़ा जनरेटर चाहिए। इसी प्रकार सामान्य प्राण से शरीर निर्वाह एवं उपार्जन की आवश्यकता पूरी होती रहती है। पेट प्रजनन के लिए अनिवार्य साधन सधते रहते हैं किन्तु यदि उच्चस्तरीय क्रिया कलाप सम्पादित हों तो उसके लिए महाप्राण स्तर की प्राण-शक्ति चाहिए और वह साधनात्मक विशेष उपाय उपचारों से ही अर्जित करनी पड़ती है।

प्राण विद्या के ज्ञाता गुरु अपने प्राण देकर शिष्यों के व्यक्तित्व और उनकी क्षमतायें बढ़ाया करते थे। इसी कारण श्रद्धावनत होकर लोग ऋषि आश्रमों में जाया करते थे। ऋषि अपने प्राण देकर उन्हें तेजस्वी, मेधावान् और पुरुषार्थी बनाया करते थे। महर्षि धौम्य ने आरुणी को, गौतम ने जाबालि को, इन्द्र ने अर्जुन को, यम ने नचिकेता को, शुक्राचार्य ने कच को इसी तरह उच्च स्थिति में पहुँचाया था। योग्य गुरुओं द्वारा यह परम्परायें, अब भी चलती रहती हैं। परमहंस स्वामी रामकृष्ण ने विवेकानन्द को शक्तिपात किया था। स्वामी विवेकानन्द ने सिस्टर निवेदिता में प्राण प्रत्यार्पित किये थे। महर्षि अरविन्द ने प्राण-शक्ति द्वारा ही सन्देश भेजकर पाँडिचेरी आश्रम की संचालिका ‘मदिति-सह भारत-माता’ की सम्पादिका ‘श्री यज्ञ शिखा माँ’ को पेरिस से बुलाया था और उन्हें योग विद्या देकर भारतीय दर्शन का निष्णात बनाया था।

कहते हैं जब राम वनवास में थे, तब लक्ष्मण अपने तेजस्वी प्राणों का संचालन करके प्रत्येक दिन की स्थिति के समाचार अपनी धर्मपत्नी उर्मिला तक पहुँचा देते थे। उर्मिला उन सन्देशों को चित्रबद्ध करके रघुवंश परिवार में प्रसारित कर दिया करती थी और बेतार-के-तार की तरह के सन्देश सबको मिल जाया करते थे।

अनुसुइया आश्रम में अकेली थी। भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और महेश वेष बदलकर परीक्षार्थ आश्रम में पहुँचे। अत्रि मुनि बाहर थे। उन्होंने ही भगवान के त्रिकाल रूप को पहिचाना था और वह गुप्त सन्देश अनुसुइया को प्राण-शक्ति द्वारा ही प्रेरित किया था। ऐसी कथा-गाथाओं से सारा हिन्दू-शास्त्र भरा पड़ा है।

एक बार राजा दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन इन्द्र के पास पहुँचे। इन्द्र ने उनके पुरुषार्थ से प्रसन्न होकर कहा- “में तुम्हें लोक-कल्याण करने वाली प्राण-विद्या सिखाऊँगा।” इसके बाद इन्द्र ने प्रतर्दन को प्राणतत्व का उपदेश दिया- “प्राण ही ब्रह्म है। साधनाओं द्वारा योगी, ऋषि-मुनि अपनी आत्मा में प्राण धारण करते और उससे विश्व का कल्याण करते हैं।”

कोषीताकि ब्राह्मणोपनिषद् के दूसरे अध्याय में भगवान इन्द्र ने प्रतर्दन को यह प्राण विद्या सिखाई है। इस अध्याय में असीम प्राण-शक्ति द्वारा दूसरों तक अन्तःप्रेरणायें व विचार पहुंचाने का रहस्योद्घाटन करते हुये बताया गया है-

‘अथ खलु तस्मा देतमेवोक्थ मुपासित। यौ वै प्राणः सा प्रज्ञा या वा प्रज्ञा स प्राण...........। स यदा प्रतिबुद्धते यथाऽग्नेविस्फुलिंग। विप्रतिष्ठन्ते प्राणेभ्यो देवा देवोभ्यो लोका........।

अर्थात् जब मन विचार करता है तब अन्य सभी प्राण उसके सहयोग होकर विचार मग्न हो जाते हैं। नेत्र किसी वस्तु को देखने लगते हैं। तो अन्य प्राण उनका अनुसरण करते हैं। वाणी जब कुछ कहती है, तब अन्य प्राण उसके सहायक होते हैं। मुख्य प्राण के कार्य में अन्य प्राणों का पूर्ण सहयोग होता है।

मनुष्य शरीर भी एक व्यवस्थित बिजलीघर है। मस्तिष्क से लेकर हाथ के पोरुओं तक शरीर के इंच-इंच भाग को ठंडा और गरम नाड़ियां इफरेन्ट एण्ड आफरेन्ट नर्वस फैली हुई हैं। ठीक डा. ब्राउन के अनुसार शारीरिक और मासिक कार्यों को चलाने में जितनी बिजली खर्च होती है उतने से एक बड़ा मील चल सकता है। छोटे बच्चे के शरीर में प्राप्त विद्युत शक्ति ही इतनी अधिक होती है कि उससे रेल के इंजन को चलाया जा सकता है।

स्नायु विज्ञानी कार्ल लैसले ने तो यहाँ तक खोज करने में सफलता प्राप्त कर ली है कि किस स्थान पर कितनी विद्युत प्रवाह किये जाने से किस काल खण्ड में किस किस्म की स्मृति उभारी जा सकती है।

कैलीफोर्निया इन्स्टीट्यूट ऑफ टैक्नालाजी के डा. रोगर स्पैरी ने सुदीर्घ कालिक संचित, आदत, अभ्यासों से मुक्त होने तथा सर्वथा नये अभ्यासों को अपनाये जाने के लिए मस्तिष्क को प्रेरित कर सकने के अपने प्रयोगों में सफलता प्राप्त कर ली है।

स्वीडन के डॉक्टर हाल्गर हाउडन आर. एन. ए. (रिवो यूक्लिक एसिड) मात्रा को बढ़ाकर चेतना की परतों में विविध उभार, उतार-चढ़ाव में सफल रहे हैं।

अध्यात्मिक चिकित्सा और प्राण संचालन की प्रक्रिया को समझने के लिए शरीर के अंतर्गत रहने वाली मनःशक्ति को समझ लेना आवश्यक है। क्योंकि जिस प्रकार ध्वनि-तरंगों को पकड़ने के लिए रेडियो में एक विशेष प्रकार का क्रिस्टल फिट किया जाता है शरीर अध्यात्म का भी एक क्रिस्टल है और वह मन है। विज्ञान जानने वालों को पता है कि ईथर नामक तत्व सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, हम जो भी बोलते हैं, उनका भी एक प्रवाह है, पर वह बहुत हल्का होता है, किन्तु जब अपने शब्दों को विद्युत परमाणुओं में बदल देते हैं तो वह शब्द तरंगें भी विद्युत शक्ति के अनुरूप ही प्रचण्ड रूप धारण कर लेती हैं और बड़े वेग से चारों तरफ फैलने लगती हैं। वह शब्द तरंगें सम्पूर्ण आकाश में भरी रहती हैं, रेडियो उन लहरों को पकड़ता है और विद्युत परमाणुओं को रोककर केवल शब्द तरंगों को लाउडस्पीकर तक जाने देता है, जिससे दूर बैठे व्यक्ति की ध्वनि वहाँ भी सुनाई देने लगता है। शब्द को तरंग और तरंग को फिर शब्द में बदलने का काम विद्युत करती है, उसी प्रकार आध्यात्मिक चिकित्सा और विचार प्रेषण (टेलीपैथी) का काम मन करता है।

यों मन शरीर में एक प्रथम सत्ता की भाँति दिखाई देता है, पर वैज्ञानिक जानते हैं कि शरीर के प्रत्येक कोश में एक पृथक मन होता है। कोशों के मनो का समुदाय ही अवयव समग्र मन का निर्माण करता है। प्रत्येक अवयव का क्रिया क्षेत्र अलग-अलग है, पर वह सब मन अवयव के अधीन है। मान लीजिए यौन केन्द्रों के समीपवर्ती न जीवकोश (सैल्स) अपनी तरह के रासायनिक पदार्थ ढूँढ़ते और ग्रहण करते हैं। उनकी उत्तेजना काम वासना को भड़काने का काम करती है, किन्तु समग्र मन नहीं चाहता कि इन यौनावस्थित जीवकोशों की इच्छा को पूरा किया जाय, तो वह काम वासना पर नियन्त्रण कर लेगा। इसी प्रकार शरीर के हर अंग के मन अपनी-अपनी इच्छाएं प्रकट करते हैं। पर समग्र मन उन सबको काटता-छाँटता रहता है। जो इच्छा पूर्ण नहीं होने की होती, उसे दबाता रहता है और दूसरों को सहयोग देकर वैसा काम करने लगता है।

यह जीवकोशों के मन ही मिलकर समग्र मन का निर्माण करते हैं, इसीलिए मन को एक वस्तु न मानकर अध्यात्म शास्त्र में उसे ‘मनोमय कोश’ कहा गया है। एक अवस्था ऐसी होती है जब शरीर के सब मन उसके आधीन काम करते हैं, जब यह अनुमान स्थापित हो जाता है तो मन की क्षमता बड़ी प्रचण्ड हो जाती है और उसे जिस ओर लगा दिया जाय वहीं तूफान की सी तीव्र हलचल पैदा कर देता है।

प्रत्युत्पन्न मन जब एकाग्र और संकल्पशील होता है तो सभी कोश स्थित मन जो विभिन्न गुणों और स्थानों की सुरक्षा करने वाले होते हैं, उसी के आधीन होकर कार्य करने में लग जाते हैं, फिर उस संग्रहित शक्ति से किसी भी स्थान के जीवकोशों को किसी दूसरे के शरीर में पहुँचा कर उस व्यक्ति की किसी भी रोग से रक्षा की जा सकती है, सुनने-समझने वाले मनों में हलचल पैदा करके उन्हें सन्देश दिया जा सकता है, किसी को पीड़ित या परेशान भी किया जा सकता है।

चौथी सदी में एक युवक जिसे प्रेतबाधा थी उसके पिता उसे अच्छा करने के लिए सन्त मकारियस के पास ले गये जो मिश्र के मरुस्थल में रहते थे। उन्होंने एक हाथ युवक के सिर पर और एक छाती पर रखा और प्रार्थना करने लगे। धीरे-धीरे युवक का शरीर फूलने लगा और इतना फूला कि ऐसा लगने लगा कि युवक अधर में लटका हो। फिर अचानक युवक चीखा और उसके शरीर से पानी निकला। इसके बाद युवक अपनी स्वाभाविक अवस्था में आ गया और रोग मुक्त होकर अच्छा हो गया।

सन्त आगस्टाइन, मिलान के सन्त एम्ब्रोज, टूर के सन्त मार्टिन, विशिष्ट हस्तियाँ थीं, जिन्होंने प्रार्थना एवं सिर पर हाथों के स्पर्श द्वारा रोगोपचार की परम्परा को जीवित रखा।

शताब्दियों तक ऐसे अनेक सन्त होते रहे हैं। जिनके पास अपने हाथों के स्पर्श एवं प्रार्थना के द्वारा रोगमुक्त करने की ईश्वरी शक्ति रही है। इन सन्तों की वजह से लोगों में धर्म के प्रति झुकाव बना रहा। बारहवीं सदी में असीसी के सन्त फ्रान्सिस और क्लेअर बाक्स के सन्त बरनार्ड ने अनेकों को अपनी रोगमुक्त करने का शक्ति से अच्छा किया। चौदहवीं सदी में सियेना के सन्त केथराइन तथा सन्त फ्राँसिस जेवियर, सोलहवीं शताब्दी में अपनी रोगमुक्त करने की शक्तियों के लिए बहुत प्रख्यात रहे और अनेकों को इसका लाभ पहुँचाया। जार्ज फाक्स जिसने सत्रहवीं सदी में ‘सोसायटी ऑफ फ्रैन्डस” की स्थापना की थी, ने इंग्लैंड और अमेरिका में अनेक रोगियों को अपनी रोगमुक्त करने की शक्ति से अच्छा किया। इन्होंने अपने द्वारा आध्यात्मिक उपचार से रोगमुक्त करने के अनुभवों का वर्णन, अप्रकाशित पुस्तक ‘बुक आफ निरकेल्स” में किया है।

सेंटपाल के समय से ही प्रसिद्ध सन्तों, आत्म बलिदानियों, अथवा शहीदों के द्वारा उपयोग में लाये गये रुमालों और एप्रनों को रोगी के अंगों पर रखकर उन्हें दबाया जाता जिससे उन्हें रोगमुक्ति से छुटकारा मिलाता था। ऐसा लिखित रिकार्ड उपलब्ध है। बाद में यह सुरक्षित महसूस किया गया कि आत्म बलिदानी धर्म-प्रचारकों के अवशेष उसकी कब्र से निकालकर उन्हें नये चर्चों में स्थापित किया जावे। सेंट स्टीफन के ऐसे रखे हुये अवशेषों से अनेक रोगियों को बहुत लाभ हुआ है। सन्त कोसमास तथा सन्त डाभियन, दो चिकित्सक भाइयों एवं अनेक धर्म प्रचारक सन्तों के अवशेषों का उपयोग इस प्रकार लगातार रोग मुक्ति के लिए होता रहा।

बहुत सारी कब्रों को समाधियों का रूप दिया गया, जहाँ बहुत से रोगी उन समाधियों के पास, जिनमें संतों के शव अथवा उनके अवशेष रखे होते थे, के नजदीक श्रद्धा से पूरी रात गुजारते थे। ईसामसीह का “काँटों का ताज” जिसे उन्हें सूली पर चढ़ाते समय पहनाया गया था एक अतिमहत्वपूर्ण और प्रभावकारी अवशेष सिद्ध हुआ। जिसके द्वारा अनेकों रोगियों को लाभ मिला।

प्राण का बाहुल्य ही विशिष्ट प्रतिभा के रूप में परिलक्षित होता है। प्राणवान व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से सामान्य होते हुये भी ऐसे पराक्रम करते देखे गये हैं मानों उन्हें कोई दैवी वरदान उपलब्ध हो। व्यक्तित्व का विशिष्टता प्राण वैभव की बहुलता पर ही निर्भर है।

आमस्टा माइजे निवासी जान मिल्ले 124 वर्ष तक जिया। उसने अन्तिम विवाह 80 वर्ष की आयु में एक 18 वर्षीय युवती से विवाह किया। इसके बाद उसके 10 बच्चे जन्मे और दीर्घजीवी रहे। मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व उसके सफेद बाल फिर से काले होने लगे थे।

जियान्गी प्रान्त में रहने वाला 101 वर्षीय चीनी किसान को अपने द्वितीय बचपन की दाँत समस्या का सामना करना पड़ रहा है। अब कुल उसके 16 दाँत नीचे 11 दाँत ऊपर वाले जबड़े में सबके सब नये चमकीले उग आये हैं। किसान अब प्रसन्नतापूर्वक अपने भोजन को चबाने लगा है। यह समाचार “वेनहू वाओ” नामक दैनिक पत्र ने दिया है।

मैक्सिस जर्मनी का प्रसिद्ध भारोत्तोलक हुआ है। उसका निज का वजन 147 पौंड था। पर एक प्रदर्शन में उसने अपने से 40 पौंड भारी 187 पौंड के व्यक्ति को एक हाथ पर बिठाकर 16 बार अपने सिर से ऊपर तक उठाया। दूसरे हाथ में वह पानी से लबालब भरा गिलास इसलिए थामे रहा कि कोई यह न सोचे कि इतना वजन उठाने में उसके ऊपर कोई खिंचाव पड़ता है। खिंचाव पड़ेगा तो पानी फैलेगा यह प्रमाण देने के लिए उसने दूसरे हाथ में गिलास थामे रहने का प्रदर्शन किया।

ओलम्पिक खेलों में अमेरिका का सर्वप्रथम दौड़ विजेता जेन्सवीन कौलौनी था। सन् 1896 में उसने होप स्टैप एण्ड जम्प की प्रतियोगिता में भाग लिया और बाजी मारी। वह अभ्यस्त एवं प्रशिक्षित खिलाड़ी नहीं था। अमेरिकी सरकार का वह प्रतिनिधि था। निजी तौर पर किसी प्रकार वह खिलाड़ियों के समुदाय में बड़ी कठिनाई से सम्मिलित हुआ था। विजय के उपरान्त उसने यह कहा- बचपन से ही दौड़ के उसके एकाँगी शौक को आज संयोगवश प्रोत्साहन का अवसर मिल गया।

सन् 1818 में इंग्लैंड में एक ऐसी महिला के साहसिक कृत्यों की चर्चा रही, जिसने दिखा दिया था कि उसका शरीर बिल्कुल ही ज्वलनशील नहीं है। नाइट्रिक एसिड को कुछ देर तक मुँह में रखने के बाद 38 वर्षीया ‘जो गिराडेली’ ने उसे लोहे पर थूक दी तो लाल लपटें निकलने लगीं। उसने इसी प्रकार जब उबलते तेल को कुछ देर तक मुँह में रखने के बाद कुल्ला किया तो उसके पश्चात् भी उसे गर्म ही पाया गया। पिघले मोम को गर्म पानी की भाँति मुँह में रखकर उसने अपने होटों पर सील लगवा दी थी। उबलते जस्ते ने जब द्रव का रूप धारण कर लिया तो इस महिला ने उसमें अपनी उँगलियों को डालकर कुछ अंश उठाया और उसे अपने मुँह में रख लिया। इसे चूसकर एक सिक्के के आकार में परिवर्तित कर दिया।

जो गिराडेली का जन्म इटली में हुआ था। अपनी अग्नि परीक्षा दिखाने के लिए वह पिघले हुए लोहे के टुकड़ों पर नंगे पाँव ऊपर से कूदती थी। फावड़े को गर्म करके लाल बनाया गया। जब उसके डंडे से आग निकलने लगी, तब उसने अपनी बाहुओं पर, पैरों पर तथा सिर के बालों पर उससे चोट पहुँचाई। जब रक्त तप्त फावड़े ने उसे चोट नहीं पहुंचाई तो उसने अपनी एड़ी से गरम लोहे को पीटकर मोड़ दिया। उस लोहे से ‘छन्न’ की आवाज तब हुई जब गिराडेली ने उसे अपनी जीभ से चाट लिया। आठ जलती मोमबत्तियों पर हाथों और पैरों की उँगलियों को क्रमशः इस प्रकार घुमाया करती थी कि उनकी गर्मी शरीर को लगे किन्तु उँगलियों के बीच से लो निकलती रहे। धुंये से वे अंग तो काले हो गये किन्तु जलने का काई चिन्ह दृष्टिगोचर न हो पाया। परीक्षण के बीच पाया गया कि गरम धातु की शलाका जब उसके शरीर की त्वचा से स्पर्श किया जाता था तो किसी प्रकार की वाष्प बिल्कुल नहीं निकलती थी। ‘जो गिराडेली’ कहा करती थी कि वह अग्नि की भट्टी में माँस के लोथड़े के साथ प्रवेश कर सकती है। आग में माँस बुरी तरह चल जाता और वह निरापद बच निकलती।

प्राणवानों में शारीरिक ही नहीं मानसिक विशिष्टता भी पाई जाती है। मस्तिष्कीय संरचना में कोई अन्तर न होने पर भी कोई-कोई व्यक्ति ऐसे देखे गये हैं जिनकी मानसिक क्षमता सामान्यजनों की तुलना में असाधारण रूप से बढ़ी-चढ़ी होती है। प्रयत्न करने पर प्राणशक्ति का अभिवर्धन हर कोई कर सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118