पृथकता के अन्तराल में एकत्व का सत्य

January 1983

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सृष्टि की ओर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर वह एक इकाई के रूप में प्रतीत होती है। विभेद तो स्थूल जगत तक सीमित है। सूक्ष्म में पहुँचने पर एकता का ही दिग्दर्शन होता है। इस तथ्य को संसार के सभी प्रमुख दर्शन एकमत से स्वीकार करते हैं। एकता के सूत्र में गुँथी प्रकृति में विभिन्नता उसके अवयवों में दिखाई पड़ती है किन्तु मूलतः वे सभी एकत्व के सूत्र में बँधे हुए हैं।

शरीर के सभी अंग एक समान नहीं होते। हाथ पैर, नेत्र, नासिका तथा अन्य शरीर के अंगों में मात्र रचना आकार-प्रकार की ही भिन्नता नहीं होती वरन् उनके कार्यों में भी भिन्नता स्पष्ट दिखाई पड़ती है। एक अंग का जो कार्य है दूसरे का उससे सर्वथा भिन्न है। अंगों की रचना एवं उनके कार्य में भिन्नता होते हुए भी लक्ष्य की एकता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। वह है- शरीर को स्वस्थ एवं सन्तुलित बनाए रखना। शरीर के सर्वांगीण विकास के लिए यह व्यवस्था आवश्यक है। इस विषमता को देखकर विभिन्न अंगों की स्वतंत्र सत्ता एवं परस्पर एक दूसरे से भिन्न होने की मान्यता बना ली जाय तो यह भी भारी भूल होगी। सहयोग-सहकार का यह सिद्धान्त ही सृष्टि को सन्तुलित बनाए हुए है। प्रकृति के विभिन्न अंगों में अन्तर उनकी रचना एवं कार्य पद्धति का हो सकता है- लक्ष्य का नहीं। सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, नदी, पहाड़ सभी मिल-जुलकर सृष्टि-चक्र को सन्तुलित तथा उसके प्रवाह को सुव्यवस्थित बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करते हैं। देखा जाय तो न उसकी रचना में एकरूपता होती है और न ही कार्यों में। किन्तु इस भिन्नता में भी एक तथ्य अनिवार्य रूप से जुड़ा है, वह है- सम्पूर्ण सृष्टि को सन्तुलित रखना। प्रकृति द्वारा सौंपे गये दायित्व का निर्वाह उसके विभिन्न अंग-प्रत्यंग भलीभाँति करते देखे जाते हैं।

असन्तुलन की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब एकाँगी वर्चस्व सिद्ध करने की ललक उठती है कई बार क्षुद्र ग्रह-नक्षत्र संकीर्णता की भावना से प्रेरित होकर दूसरों से असहयोग और अपना स्वतंत्र स्थान बनाते एवं पृथक मार्ग अपनाते हैं। इस क्षुद्रता का कुछ लाभ तो मिलता नहीं उल्टे टकराकर चकनाचूर हो जाते हैं। विराट् सृष्टि का सन्तुलित प्रवाह सहयोग के ही सिद्धान्त पर चल रहा है। जड़ प्रकृति ही नहीं समस्त चेतन प्राणी भी एकता के सूत्र में आबद्ध हैं। विश्व का प्राणिमात्र का आश्रय एवं प्रकाशक एक चेतन सत्ता हैं। जड़ प्रकृति में उसका प्रवाह ही सौंदर्य उत्पन्न करता तथा समर्थता प्रदान करता है। चेतन जगत उसी से प्रकाशित है। मानव मात्र में उसी की सत्ता विद्यमान है। शरीर के कलेवर की भिन्नता में भी सब में मूल सत्ता की एकता है। मनुष्य-मनुष्य के बीच उनके स्वभाव एवं क्रियाकलाप की दृष्टि से भिन्नता दिखाई पड़ती है।

व्यक्तिगत एवं सामूहिक विकास की दृष्टि से इस भिन्नता का होना आवश्यक है किन्तु इसको ही सत्य मानकर जब मनुष्य सबमें विद्यमान चेतन सत्ता के तथ्य को भुला बैठता है। तो ऐसी स्थिति में ही संघर्ष उत्पन्न है। विषमता की दीवार संकीर्णता उत्पन्न करती है। अपने पराये की भेद दृष्टि पनपती है। फलस्वरूप “एकत्व” दर्शन कर पाना सम्भव नहीं हो पाता।

मनुष्य-मनुष्य के बीच, वर्ग-वर्ग के बीच, राष्ट्र-राष्ट्र के बीच भिन्नता देखी जा सकती है। उनके क्रिया कलाप में अन्दर दिखायी पड़ सकता है। किन्तु उपयोगिता की दृष्टि से यह भिन्नता आवश्यक है। समाज में रहने वाले व्यक्तियों के कार्य एक समान नहीं होते। किसान अन्न पैदा करता है। जुलाहा कपड़ा बुनता है। कारीगर मकान बनाता है। मजदूर दैनिक जीवन की वस्तुओं का उत्पादन कारखाने में करता है। अध्यापन बच्चों को पढ़ाता है। कर्मचारी शासन व्यवस्था का दायित्व सँभालते हैं। व्यक्ति व्यक्ति के कार्यों में यह भिन्नता ही सामाजिक विकास का कारण बनती है। एक के कार्य दूसरे के लिए उपयोगी होते हैं। एकता के सूत्र में आबद्ध रहने के लिए कार्यों में विषमता का होना आवश्यक है। हर व्यक्ति यदि अन्न उत्पादन करने लगे तो अन्यान्य आवश्यकताओं की पूर्ति न हो सकेगी। व्यवस्था अव्यवस्था के रूप में परिवर्तित हो जाएगी। सामाजिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

एकत्व के सूत्र में जड़-चेतन सभी आबद्ध हैं। इस तथ्य को हृदयंगम करते हुए प्रत्येक मनुष्य को सहकारिता की, आदान-प्रदान की रीति-नीति अपनाना चाहिए। बाह्य भिन्नता में भी एकता की अनुभूति कर सकना तथा उससे मिलने वाले दिव्य आनन्द का लाभ उठा पाना तभी सम्भव है।


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