आत्म सत्ता में प्राण सता की अवधारणा

January 1983

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प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है, जिसका अर्थ जीवनी शक्ति के रूप में किया जाता है। अध्यात्म शास्त्र में प्राण तत्व की गरिमा का भाव भरा उल्लेख है और उसे जीवन का सारतत्त्व प्राण कहते हैं। यह प्राण प्रगति का आधार है। यह प्राण तत्व अपने भीतर प्रचुर परिमाण में भरा पड़ा है और यदि प्रयास किये जायं तो उस शक्ति को विश्व भण्डार से और भी अधिक मात्रा में कर्षित किया जा सकता है विश्व के अन्तराल में काम करने वाली समग्र सामर्थ्य के रूप में व्याख्यायित प्राण-शक्ति जड़ चेतन दोनों को प्रभावित करती है। उपासना उसके एक पक्ष की ही की जाती है, जो मनुष्य को उत्कृष्टता की ओर अग्रसर करे। अन्यथा चेतना की सामर्थ्य तो उभयपक्षीय है, वह दुष्टता के क्षेत्र में दुःत्साहस बन कर भी काम करती है और उत्कृष्टता के क्षेत्र में मानवी चेतना का स्तर ऊंचा उठाने वाले सत्साहस के रूप में भी सक्रिय रहती है। प्राण के जिस रूप की उपासना की जाती है वह दुष्टता का निषिद्ध पक्ष नहीं उत्कृष्टता का वरणीय स्वरूप ही है। इसी विशेषता को ब्राह्मी शक्ति- ब्रह्म प्रेरणा साक्षात् ब्रह्म आदि नामों से पुकारा गया है। इस प्राण-शक्ति की व्याख्या करते हुए शास्त्रों में कहा गया है-

प्राणो ब्रह्मेतिहस्माह कोषीतकिस्तस्य हवा एतस्य प्राणस्य ब्रह्मणो मनो दूतं वाक्पारिवेष्ट्री चक्षुर्गात्र श्रोत्रं संश्रावयितृ यो ह वा एतस्य प्राणस्य ब्रह्मणो मनो दूतं वेद दूतवान्भवित यश्चक्षु गोप्तृ मान्भवति यः श्रोत्रं सश्रावयितृ मान्भवति यो वाचं परिवेष्ट्री परिवेष्ट्रामान्भवति। -कोषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् 2।1

यह प्राण ही ब्रह्म है। यह सम्राट है। वाणी उसकी रानी है। कान उसके द्वारपाल हैं। नेत्र अंग रक्षक, मन दूत, इन्द्रियाँ दासी, देवताओं द्वारा यह उपहार उस प्राण ब्रह्म को भेंट किये गये हैं।

प्राणो भवेत् परंब्रह्म जगत्कारणमयव्यव्ययम्। प्राणो भवेत् यथामंत्र ज्ञानकोश गतोऽपिवा॥ -ब्रह्मोपनिषद्

प्राण ही जगत का कारण परमब्रह्म है। मन्त्र ज्ञान तथा पंच कोश प्राण पर आधारित हैं।

अधिकांश, उपनिषद्कारों ने प्राण को आत्मसत्ता की त्रिपदा शक्ति माना है और उससे अविच्छिन्न कहा है। आत्मा को ब्रह्म भी कहा है। दोनों की एकता बोधक कितने ही प्रतिपादन मिलते हैं। इस दृष्टि से प्राण को ब्रह्म शक्ति भी कहा गया है। जिनमें यह शक्ति जागृत होती है, उसी व्यक्ति को जागा हुआ बताया गया है। अन्यथा निष्प्राण, जीवट से रहित और दुर्बल व्यक्तियों को सोया हुआ ही बताया गया है। शास्त्रों में कहा है-

तदाहुः कोऽस्वप्नुमर्हति, यद्वाव प्राणो जागार तदेव जागरितम् इति। -ताण्ड्य 10।4।4

कौन सोता है? कौन जागता है? जिसका प्राण जागता है, वस्तुतः वही जागता है।

उस रहस्य-मर्म को जानने वाले व्यक्तियों को ही बुद्धिमान कहा गया है-

य एवं विद्वान् प्राणं वेद रहस्या प्रजा हीयतेऽमृतो भवति तयेव श्लोकः। -प्रश्नोपनिषद् 3।11

जो बुद्धिमान इस प्राण रहस्य को जान लेता है वह अमर बन जाता है उसकी परम्परा नष्ट नहीं होती।

प्राणग्नय एवास्मिन् ब्रह्मपुरे जागृति। -प्रश्नोपनिषद्

इस ब्रह्मपुरी में प्राण की अग्नियाँ ही सदा जलती रहती हैं।

इस प्राण को ही ब्रह्म कहा गया है और इस कारण प्राण को प्रत्यक्ष ब्रह्म भी कहा गया है। अप्रत्यक्ष ब्रह्म की सत्ता किसी प्राणी पर कितनी मात्रा में अवतरित हुई इसका परिचय उसमें दृष्टिगोचर होने वाले प्राण तत्व को देखकर ही लगाया जा सकता है। गायत्री को प्राण और प्राण को ब्रह्म कहा गया है। इस तरह एक प्रकार से गायत्री साक्षात ब्रह्म भी कही जा सकती है-

कतम एको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म तदिव्या वक्षते। -बृहदारण्यक

वह एकमात्र देव कौन है? वह प्राण है। उसे ही ब्रह्म कहा जाता है।

वप्राण ब्रह्म इति दृस्याह कौषीतकिः। -ब्रह्म संहिता

प्राण ही ब्रह्म है। ऐसा कौषीतिक ऋषि ने कहा है।

स एवं वैश्वानरो विश्व रूपः प्राणोदऽग्नि रुदयते। -पिप्पलाद

यह प्राण ही समस्त विश्व में वैश्वानर रूप से उदय होता है।

ऋतंभरा प्रज्ञा को गायत्री का प्राणरूप बताते हुए शास्त्रकार ने कहा है-

प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्या। तं मामायुरमृत भित्युपास्वायुः प्राणः प्राणोवा आयुः। प्राणेन हि एवास्मिन् लोकेऽमृतत्व माप्नोति। -सांख्यायन, आरण्यक 5। 2

में ही प्राण रूप प्रज्ञा हूँ। मुझे ही आयु और अमृत मान कर उपासना करो। प्राण ही जीवन है। इस लोक में अमृत की प्राप्ति का आधार प्राण है।

यो वे प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः। -सांख्यायन

जो प्राण है वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।

इसी प्राण-शक्ति को गायत्री कहते हैं। यों वह क्षमता, स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के कण-कण में संव्याप्त है, पर उसका केन्द्र संस्थान मल मूत्र छिद्रों के मध्य मूलाधार चक्र गहवर में माना गया है। प्राण-शक्ति के अभिवर्धन से इसी मूलाधार संस्थान का द्वार खटखटाना पड़ता है। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए उसका फाटक खोलना या तोड़ना पड़ता है। मूलाधार चक्र की साधना से यही प्रयोजन पूरा होता है। गायत्री की प्राण शक्ति मूलाधार चक्र से संबंधित होने का उल्लेख गायत्री मंजरी में मिलता है-

यौगिकानां समस्तानां साधनानां तु हे प्रिये। गायव्येव मतालोके मूलाधारा विदो वरैः॥ -गायत्री मंजरी

विद्वानों का मत है कि समस्त यौगिक साधनाओं का मूलाधार गायत्री ही है।

प्राणाग्नय एवास्मिन् ब्रह्मपुरे जागृति। -प्रश्नोपनिषद्

इस ब्रह्मपुरी में प्राण अग्नियाँ ही सदा जलती रहती हैं।

यद्वाव प्राणा जागर तदेवं जागारितम इति। -ताण्डय.

प्राण को जागृत करना ही महान जागरण है।

प्राण का ज्ञान एवं जागरण ही अमृतत्व एवं मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग है। उसी से यह लोक और परलोक सुधारता है। इसी से भौतिक और आत्मिक विभूतियाँ प्राप्त होती हैं क्योंकि इसी शक्ति के बल पर आत्म परिष्कार तथा आत्मिक शक्तियों का विकास होता है।


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