चिकित्सक का ही नहीं पुरोहित का भी परामर्श मानें

January 1983

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“आज जिस व्यक्ति के पास गया था वह नगर के बहुत प्रतिष्ठित डाक्टर हैं। उनने यह समझा था कि मुझे कोई शारीरिक तकलीफ है, क्योंकि मैंने उनसे क्लीनिक में ही भेंट का आग्रह किया था। एक-एक कर तीस रोगी डाक्टर के पास गए, उनमें से एक सर्जरी से सम्बन्धित मरीज था, एक को सर्दी लग गई थी, शेष अट्ठाइस यूरोसिस अथवा सिजोफ्रेनिया (निराशा और मानसिक बीमारी) के शिकार थे। किसी के मस्तिष्क में तनाव था, किसी के मन में अशान्ति, कुछ केवल यह जानने के लिए आये थे- डाक्टर साहब! बताइए हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है? डाक्टर ने उन्हें मानसिक बीमार की संज्ञा दी है जब कि आदमी विचारवान लगता था। अब में पूरी तरह आश्वस्त हो चूका हूं कि आज का आदमी पूरी तरह थक गया है। उसकी यह थकावट जितनी भौतिक है उससे अधिक आत्मिक है। यह कैसी बेबसी है कि उसे जो समाधान एक पुरोहित से चाहिए उसके लिए उसे डाक्टर के पास शरणागत होना पड़ रहा है।”

उपरोक्त पंक्तियाँ किसी महापुरुष का जीवन प्रसंग भले ही न हों, पर वह जिस व्यक्ति की डायरी के पृष्ठों का उद्धरण है वह कोई सामान्य व्यक्ति भी नहीं है, जो उसकी बात यों ही उपेक्षा में डाल दी जाए।

हम जिस युग में आज रह रहे हैं उसमें पहले की अपेक्षा आध्यात्मिक चेतना की कहीं आवश्यकता है। इसके बिना उसका जीवन उद्देश्य पूर्ण नहीं बन सकता, उसे शीतल शान्ति चाहिए, जीवन का बोध चाहिए। आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान किये बिना समस्या का निराकरण हो सकेगा, यह आशा आत्म प्रतारणा ही सिद्ध होगी”- यह उद्गार वियेना विश्व विद्यालय के चिकित्सा विभाग में स्नायु विकारों व मानसिक रोगों के प्रोफेसर तथा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मानसिक रोगों के चिकित्सक डा. विक्टर ई. फ्रैंकल के हैं। आधुनिक साधन सुविधाओं से भरपूर पश्चिमी देशों की सामाजिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने मानवीय अंतःकरण को बड़े कोमल हाथों से सहलाया और बताया है कि यदि उन्हें आध्यात्मिक अभिसिंचन प्रदान न किया गया तो अपनी इसी प्यास के कारण पश्चिमी समाज अपना सर्वनाश कर लेगा। सच पूछा जाए तो न्यूनाधिक यह समस्या सारी धरती की समस्या है। आध्यात्मिक सत्ता की सजीव प्रतिमा मनुष्य ही जब पानी में रह रही मछली के व्यास के मारे तड़पने जैसी स्थिति में जिन्दगी बिता रहा हो तो विचारक कबीर की हँसी स्वाभाविक ही मानी जायगी।

डा. फ्रैंकल ने एक जेल के दो कैदियों के उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है- एक स्त्री हमेशा यह कहा करती थी कि उसे जीवन में क्या मिला? अपनी इसी व्यथा की ऊब सहन न कर सकने के कारण उसने आत्महत्या का प्रयास किया और उसे जेल में जाना पड़ा जबकि उसका बेटा विदेश में इस प्रतीक्षा में था कि मेरी माँ आती होगी, उसके साथ स्नेह आत्मीयता का जीवन मिलेगा। महिला अपने ही जीवन की शुष्कता से, अपनी ही निराशा से, थकी हुई थी, जबकि साँसारिक दृष्टि से उसे कहीं किसी तरह का भी अभाव नहीं था। डा. फ्रैंकल ने उससे जान पहचान कर जब उसके जीवन में प्रवेश किया तो पता चला कि भौतिक आकांक्षाओं में भटकाव उसके जीवन की नीरसता का प्रमुख कारण है। उसे श्रद्धा, भाव, सम्वेदना अन्य प्राणियों के हितों में अभिरुचि जैसे संस्कार प्रसन्न रख सकते थे, किन्तु किसी ने उसको शिक्षण दिया नहीं, फलतः जीवन मरुस्थल जैसा बना गया। यही बात उस पुरुष के बारे में भी थी। वह एक अच्छा लेखक था। उसकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं, कई प्रकाशन के लिए तैयार थी, पर जीवन में सम्वेदना का अभाव उसे निरन्तर खटकता रहा। इसी कारण उसने भी आत्महत्या का प्रयास किया जबकि वह एक ऐसी सन्तोष भरी, यश और सम्मान की जिन्दगी जी सकता था जिसमें ऊब और उत्तेजना का नाम ही न होता। सच है कि उसे डाक्टर मिले, पर धार्मिक जीवन की परिभाषा और मार्गदर्शन देने वाला कोई नहीं मिला।

मनुष्य तीन क्षेत्रों में विभक्त है। पहला है भौतिक जीवन, जिसमें उसके शरीर की आवश्यकताएं प्रमुख होती हैं। उसे खान-पान से लेकर वंश-वृद्धि की सुविधाएं चाहिए। यह उतना कठिन क्षेत्र नहीं है। सामान्य प्रयत्नों से भी भौतिक जीवन की अपेक्षाएं पूर्ण हो जाती हैं जिसका तात्पर्य ही यह है कि भौतिक जीवन मानवीय अस्तित्व के लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं है। जबकि 99 प्रतिशत व्यक्तियों का जीवन उसी मृगतृष्णा के इर्द-गिर्द घूमता रहता है- अच्छा से अच्छा भोजन, विशाल भवन और इन्द्रिय सुखों की अपार साधना सामग्री। स्वल्प आवश्यकता को साधनों के अम्बार से पाट दिया जाए तो स्वाभाविक ही है कि वह आवश्यकताएं दूषित होंगी। आज का भौतिक क्षेत्र इसी कारण अश्लील, अपवित्र और अत्यधिक उत्तेजनापूर्ण बन गया है। सामान्य बाधाएँ भी मनुष्य को आत्महत्या जैसी क्रूर स्थिति में पटक देती हैं।

ऐसा ही, इसी का एक और सगा भाई, दूसरा क्षेत्र है मन का मान मर्यादा की, बड़प्पन की, अहंकार की रक्षा के लिए आदमी भौतिक तृष्णा से भी अधिक उतावला दिखाई देता है, जबकि इस तथ्य को जानते सब हैं कि मन की वासनाएं क्षणिक हैं। अपना शरीर बल ही जब स्थिर नहीं है तो बाह्य परिस्थितियों में प्राप्त पद प्रतिष्ठा और सम्मान ही स्थायी कैसे रह सकते हैं। उनकी ललक सताएगी तो स्वाभाविक ही। जब कभी विघ्न दिखाई देगा, मनुष्य का भय सीमा को पार करेगा वह निराशा होगा, खीजता रहेगा। उस स्थिति में डाक्टर उसे भटकायेगा, सही राह दिखाने वाला प्रशिक्षण उसे मिला ही नहीं तो वह देगा कहां से बाह्य चिकित्सा सम्भव हो सकती है, पर मनों के घुसे रोगों का उपचार डाक्टर नहीं कर सकते। जबकि आज हो सर्वत्र यही रहा है।

मनुष्य जीवन का तीसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण किन्तु अत्यन्त उपेक्षित क्षेत्र है उसका- आत्म जगत। मनुष्य जीवन का 60 प्रतिशत से अधिक भाग उसकी आध्यात्मिक सत्ता भावनाओं से विनिर्मित होती है। पर इस भाव विज्ञान की जानकारी, विकास और विस्तार के साधनों का उसे कोई प्रशिक्षण नहीं मिलता। हर व्यक्ति के अंतःकरण से कभी न कभी ऐसी स्फुरणा उठती अवश्य है कि आखिर उसने जन्म क्यों लिया? वह आया कहाँ से और उसका गन्तव्य क्या है? जीवन का अर्थ ज्ञात करना मानवीय संस्कार है। कोई भी पशु उसके लिए परेशान नहीं दिखाई देता, पर मनुष्य उस अर्थ बोध के बिना सन्तोष और शांति पा नहीं सकता। यह बोध उसे सच्चे पुरोहित, अध्यात्मवादी ही दे पाते हैं। आस्तिकता, अध्यात्मिकता और धार्मिकता को थोड़ी देर के लिए मनोवैज्ञानिक ही मान लें तो भी उनके फलितार्थ ऐसे हैं जो मानवीय अंतःकरण को सन्तोष और व्यापकता प्रदान करने में सक्षम हैं। इसका दार्शनिक आधार भी बेबुनियाद नहीं है। संसार इतना व्यवस्थित है तो उसका रचयिता होगा ही, जब मानवीय चेतना में सत्य, प्रेम, न्याय और चिरसौंदर्य की आकांक्षा ओत-प्रोत है तो वह जिस सर्वशक्तिमान चेतना से जन्मा है उसमें इन तत्वों की पूर्णता अवश्यंभावी है। मनुष्य जीवन ही नहीं पशुओं में भी नैतिक नियम हैं, यह भी उसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं। यह जानकारी कोई अनुभव सिद्ध साधक सन्त और ब्रह्मवेत्ता पुरोहित ही अंतःकरण की सच्चाई के साथ प्रदान कर सकता है। अतएव आज संसार के लिए सच्चा पौरोहित्य अनिवार्य हो गया है।

मनोविज्ञान केवल सुख की इच्छा और महत्वाकांक्षाओं के अध्ययन तक ही सीमित है। चेतना के इति, अन्त और मध्य का विश्लेषण अपनी दार्शनिक अनुभूति और अध्ययन के आधार पर धार्मिक व्यक्ति ही दे सकता है। मनोवैज्ञानिक मन के स्वभाव का विश्लेषण मात्र कर सकते हैं, मन के विज्ञान का नहीं। मानवीय मूल्यों तथा भावनाओं का क्षेत्र अकेला डाक्टर (विज्ञान) सुलझा नहीं सकता। यह अस्तित्वजन्य रोग है जिसका उपचार वही करा सकता है जिसने अस्तित्व का अध्ययन किया हो, पहचाना, जाना और अनुभव किया हो। ऐसा व्यक्ति धर्म परायण ही हो सकता है। आज ऐसे धर्म परायणों की धरती को बड़ी भारी आवश्यकता है।


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