विश्वप्राण और व्यष्टि प्राण का सुयोग संयोग

January 1983

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प्राण का एक रूप वह है, जिससे यान्त्रिक कार्य सम्पन्न होते हैं। यांत्रिक प्रविधि का उद्देश्य प्राण-ऊर्जा के इसी स्वरूप को वशवर्ती बनाकर उसका अधिकाधिक इच्छानुसार उपयोग करना है।

प्राण का दूसरा रूप दैवी चेतन एवं अधिक सूक्ष्म है। वह दीप्तिमान चैतन्य विकिरण रूप है। मन उसी का एक रूप है। देव सत्ताएँ प्राणमय ही होती हैं। योग में इसी प्राण-ऊर्जा को वशवर्ती बनाया जाता है।

अज्ञानवश लोग योग को चमत्कार पूर्ण एवं विचित्रताओं से भरपूर कोई रहस्य विद्या मानते हैं। किन्तु वस्तुतः योग एक श्रेष्ठ प्रविधि है, जिसका एक लक्ष्य है प्राण-ऊर्जा का तात्विक ज्ञान प्राप्त कर उसका सूक्ष्म प्रक्रियाओं से अवगत होकर, उसका सर्वोत्तम उपयोग करने में समर्थ होना है। प्राण-शक्ति के अधिकतम उपयोग की प्रविधि भी योग के नाम से जानी जाती है। यान्त्रिक प्रविधि से वह अधिक समर्थ, अधिक शक्तिशाली एवं अधिक परिपूर्ण है।

जब व्यक्ति सामान्य साँसारिक गतिविधियों में लिप्त रहता है, उस समय उसकी पिण्ड सत्ता में सक्रिय मुख्य प्राण-प्रवाह सम्पूर्ण संवेदन-तन्त्र में फैला रहता है। इस प्राण प्रवाह को जब तीव्र संवेग के साथ एक ही दिशा में निर्देशित किया जाता है, तो वह कितना विस्फोटक- रूप धारण कर लेता है इसका एक प्रमाण है कामावेग, जो मन बुद्धि एवं इंद्रियों की सामान्य वृत्तियों को उस समय पीछे ठेल देता है।

मानव शरीर में विद्यमान प्राण-शक्ति से ही समस्त अन्तः संचालन एवं नाडी समूह संचालन होता है। मस्तिष्क की कल्पना, धारणा, इच्छा, निर्णय, नियन्त्रण, स्मृति, प्रज्ञा आदि समस्त शक्तियों का उत्पादन-अभिवर्धन तथा संचालन प्राणशक्ति द्वारा ही होता है। इंद्रियों की सजीवता प्राण-शक्ति से ही सम्भव है। सम्पूर्ण बोध एवं क्रिया की धारक शक्ति प्राण है।

इस प्राण को वशीभूत करने के लिए मन की निर्मलता आवश्यक है। इसलिए यम एवं नियम प्राण-प्रविधि या प्राण विद्या के अनिवार्य प्राथमिकता सोपान हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह को ‘यम’ और शोच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्राणिधान को ‘नियम’ कहते हैं। इन यम-नियमों के पालन से शरीर यन्त्र शुद्ध बनता है, मन पवित्र बनता है, प्राण ऊर्जा के स्वरूप का बोध होता है और लक्ष्य के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है। इसके साथ आसन सिद्धि का अभ्यास आवश्यक है, जिससे पर्याप्त समय तक एक ही मुद्रा में स्थिर रहकर साधना-अभ्यास किया जा सके।

इसके उपरान्त प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है। सामान्यतः शरीर में क्रियाशील प्राण-शक्ति अनियन्त्रित ढंग से वासनाओं एवं तज्जन्य क्रियाओं के चपल संकेतों पर थिरकती-घूमती रहती है। उस शक्ति को इच्छानुसार चला सकने की साधना-प्रविधि प्राणायाम है।

मनःसाधना या मनःशुद्धि एवं प्राण-साधना परस्पर अन्योन्याश्रित है। मन-प्राण में जनक-जन्य का सम्बन्ध है। बृहदारण्यक उपनिषद् में लिखा है-

“मन एव पिता, वांमाता प्राणः प्रजा।” (वृहदा. उ. 1।5।7)

अर्थात्- मन ही पिता है, विचार-प्रक्रिया रूप वाणी माता है और प्राण सन्तान है। अतः प्राण-साधना में मन, विचार एवं प्राण-प्रवाह तीनों की ही साधना अन्तर्निहित है। मन और विचारों को एक ही दिशाधारा में नियोजित रखते हुए प्राण-प्रवाह पर नियन्त्रण प्राप्त करने का अभ्यास ही प्राणायाम है।

शरीरस्थ पांच प्राणों एवं पांच उपप्राणों के कार्य कलापों का स्वरूप भली-भांति समझकर उन्हें वशवर्ती बनाना प्राण-साधना है। ये सभी प्राण-उपप्राण एक ही व्यष्टि प्राण के वर्गीकरण मात्र हैं। मूलतः प्राण सत्ता एक ही है और विराट् प्राण-सता का ही अंश है।

पूर्णाधिकार न सही ‘विराट प्राण’ पर सीमित अधिकार भी व्यक्ति को कम शक्तिशाली नहीं बनाता। प्रबल प्राण-संवेग से भौतिक द्रव्यों की प्रकृति का परिवर्तन हो सकता है और दूसरों की मनःस्थितियों को प्रभावित किया जा सकता है। नियंत्रित प्राण-शक्ति के द्वारा अचेतन मन को अपनी सम्पूर्ण क्षमता से सक्रिय बनाया जा सकता है। दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, दूरानुभूति, भविष्य दर्शन जैसी शक्तियां इसी अचेतन मन में होती हैं। ग्रह-नक्षत्रों, सूक्ष्म लोकों से संबंध जोड़ना, दिव्य ज्ञान की ज्योति को दीप्तिमान रखना, प्राण पर अधिकार पाने पर ही सम्भव है। किन्तु उच्चस्तरीय प्राण-साधना समर्थ मार्गदर्शक के निर्देशन में ही सफल हो सकती है।

यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि मन और चिन्तन मन के माता पिता एवं अभिन्न सहयोगी हैं। मन और विचार को अस्त-व्यस्त रखते हुए प्राणायाम की उच्चस्तरीय साधना तो असम्भव है ही, अस्त व्यस्त मन की स्थिति में प्राणायाम का अधिक समय तक अभ्यास व्यक्तियों को पागल भी बना देता है। अतः प्राणायाम सदैव तत्त्वबोध एवं ध्यान अभ्यास के साथ करना चाहिए। मन की प्रचण्ड संकल्प शक्ति को अभीष्ट दिशा में नियोजित किये बिना प्राण-साधना मात्र श्वास-प्रश्वास का साधारण व्यायाम और फेफड़ों की कसरत होकर रह जाती है। उससे स्वास्थ्य लाभ तो सम्भव है, किन्तु वह न तो योग है और न ही उसके द्वारा प्राण-शक्ति पर नियन्त्रण हो सकता है।

प्राणायाम- अभ्यास में प्रारम्भ से ही पेशियों पर नियन्त्रण एवं लक्ष्य का निरन्तर ध्यान रखने का अभ्यास सम्मिलित होता है। उसी के लिए विभिन्न प्रकार के वेध, मुद्राएँ तथा बन्ध हैं, जिनका अभ्यास कर, प्राण को वशवर्ती बनाना होता है। संकल्प-शक्ति के प्रबल चुम्बकत्व से व्यापक प्राणतत्व आकाश से खींचा जाता है। फिर इस उपार्जित उपलब्धि को अभीष्ट स्थान पर भेजने तथा मनोवांछित परिणाम पाने की प्रक्रिया सीखनी होती है। यह सब प्रचण्ड मनोबल के बिना सम्भव नहीं।

प्राण साधना का उद्देश्य स्पष्ट है। वह है- पिण्डस्थ प्राण-शक्ति का ब्रह्मांडव्यापी प्राण-शक्ति से योग एवं इस योग की प्रक्रिया पर अपना अधिकार। वही प्राण-शक्ति मनुष्यों में चेतना, ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति, तत्परता, तन्मयता, साहस, शौर्य, उमंग, उत्साह, वीरता, चमक या सौंदर्य, तेजस्विता, सजीवता, प्रखरता, दृढता आदि के रूप में अभिव्यक्त होती है। जिनमें यह प्राण-शक्ति प्रचुर मात्रा में विद्यमान होती है, वे ही महामानव- महाप्राण कहलाते हैं।

शरीर में सामान्यतः जो प्राण-शक्ति भरी-बिखरी रहती है, उसका भी साधारण व्यक्ति इच्छित उपयोग नहीं कर सकते। चित्त-चांचल्य और वासनात्मक उद्वेग इस प्राण-शक्ति को हर क्षण फुलझड़ी की तरह बिखेरता- फेंकता रहता है। यम एवं नियमों का अभ्यास व्यक्ति में वह सामर्थ्य उत्पन्न करता है जिससे वह प्राण-शक्ति को संयमित ढंग से ही व्यय करने में कुशल होता चले। प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान के समन्वित स्वरूप के साथ की गई प्राण साधना वह सामर्थ्य इतनी अधिक विकसित कर देती है कि व्यक्ति समष्टिगत महाप्राण की वाँछित मात्रा स्वयं में खींच सके तथा उस एकत्र शक्ति का अधिकतम उपयोग उत्कृष्ट रीति से कर सके।


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