आनन्द की गंगोत्री अपने ही भीतर

January 1983

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कस्तूरी की खोज में हिरन भटकता रहता है। वनों, कन्दराओं में वह ढूंढ़ता है, पर कहीं नहीं मिलती। जो भीतर है उसे बाहर खोजने में उसका जीवन खप जाता है। व्यर्थ की इस भाग दौड़ से उसे निराशा ही हाथ लगती है। अतृप्ति यथावत् बनी रहती है। यह बोध हो सके कि जिसे प्राप्त करने की आकुलता में वह वन एवं कन्दरा में विचरता रहता है वह उसके अपने ही भीतर विद्यमान है तो उसे तृष्णा की आग में इस तरह न जलना पड़े। उसकी निकटता प्राप्त कर मृग स्वयं परितृप्त हो जाय।

मृग ही क्यों? मनुष्य भी तो आनन्द की खोज में मृग मरीचिका की तरह जीवन पर्यन्त भटकता रहता है। आनन्द की प्राप्ति उसकी मूलभूत माँग है। बचपन से लेकर जरावस्था तक वह इस आकाँक्षा की पूर्ति में लगा रहता है। पर हिरन की भाँति दृष्टि बहिर्मुखी होने के कारण मनुष्य सोचता है कि आनन्द के स्रोत बाहर हैं। दृश्य संसार और उससे सम्बद्ध परिवर्तनशील पदार्थों के आकर्षण में वह स्थायी और शाश्वत आनन्द की खोज करता है। इन्द्रियों की तुष्टि के लिए विषय रूपी साधन जुटाता है। पर उनका उपभोग अतृप्ति की आग को और भी अधिक भड़काता और बढ़ाता है।

बचपन से लेकर वृद्धावस्था की मध्यावधि में शारीरिक एवं मानसिक स्थिति में अनेकों तरह के परिवर्तन होते हैं। उन परिवर्तनों के साथ-साथ आनन्द प्राप्ति के बाह्य साधन भी बदलते रहते हैं। शैशव अवस्था की माँग अलग प्रकार की होती है और किशोरावस्था की अलग। युवा वय की मनःस्थिति और वृद्धों की मनःस्थिति सर्वथा एक दूसरे से भिन्न प्रकार की होती है। इस कारण आनन्द प्राप्ति के बाह्य स्रोत भी क्रमिक रूप से बदलते रहते हैं। नवजात शिशु माँ की छाती से चिपकता रहता है। पय पान में ही उसे सामयिक तृप्ति मिलती है। पर थोड़ा बड़ा होते ही दुग्ध पान के प्रति उसकी अभिरुचि समाप्त हो जाती है। जो कभी माँ के हृदय से चिपका रहता था, वह अब चित्र-विचित्र खिलौनों में रमण करता है। सुखानुभूति के केन्द्र बिन्दु खिलौने बनते हैं। पर यह स्थिति भी अधिक दिनों तक नहीं चलने पाती। खिलौने जो बचपन में अत्यंत ही आकर्षक मनोरंजक लगते थे किशोरावस्था में नहीं भाते। घर की सीमा से बाहर वह प्रवेश करता है। मित्रों की टोली में उसका अधिकाँश समय व्यतीत होता है। पढ़ने-लिखने की- आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा चल पड़ती है।

बचपन में जो खिलौनों से चिपका रहता था अपना भविष्य बनाने में जी तोड़ परिश्रम करता है। उसकी प्रसन्नता इस बात में सन्निहित रहती है कि वैसे अधिक से अधिक योग्यता सम्पादित की जाय। सन्तुष्टि इस आकाँक्षा की पूर्ति से भी नहीं होती। एक की आपूर्ति दूसरे तरह की इच्छा को जन्म देती है। वयस्क होते ही अनुकूल साथी जीवन संगिनी की खोज चलती है। मिलते ही पत्नी के यौवन, रूप और लावण्य पर वह मुग्ध बना आनन्द की अनुभूति करता है। किन्तु यह स्थिति भी अधिक दिनों तक नहीं रहने पाती। शरीराकर्षण कुछ ही दिनों बाद समाप्त हो जाता है। तब तक प्रजनन का दौर चल पड़ता है।

नवागन्तुक शिशु प्रसन्नता का नवीन केन्द्र बिन्दु बनता है। उनकी किलकारियाँ सुनकर वह बड़े से बड़ा दुःख भी भूल जाता है। उसकी एक मुस्कान के लिए अपना सर्वस्व लुटाने के लिए मनुष्य तैयार रहता है। पर धीरे-धीरे वह आकर्षण भी कम होने लगा है जिससे प्रेरित होकर मानव बच्चे के लिए कष्ट उठाने के लिए तत्पर रहता था।

धनोपार्जन, संपदा संग्रह तथा लोकयश पाने की आकाँक्षा पूर्ति में वह अब सुख आनन्द ढूँढ़ने लगता है। तद्नुरूप प्रयासों का ताना बाना बुनता है। वह सब मिलने के बाद भी संतोष नहीं होता। अतृप्त और अशांत मनःस्थिति पुनः नये तरह के खेल खिलौने- मन बहलाने के साधन ढूंढ़ती है। सम्पूर्ण जीवन ही इन बाह्य प्रयासों में खप जाता है। जितना मनुष्य आनन्द पाने का प्रयत्न करता है उतना ही वह उससे दूर होता चला जाता है।

हर मनुष्य की प्रकृति एक जैसी नहीं होती। परस्पर एक दूसरे की अभिरुचियाँ भी भिन्न होती हैं। एक को एक तरह के काम में आनन्द आता है दूसरे को भिन्न प्रकार के काम में। स्वास्थ्य, धन, ऐश्वर्य, यश, सम्मान योग्यता की प्राप्ति में अधिकाँश व्यक्ति जीवन खपाते और तद्नुरूप सफलता मिलने पर मोद मनाते हैं। पर वह प्रसन्नता भी चिरस्थायी नहीं होती। कुछ ऐसे भी होते हैं जो समाज के ढर्रे से अलग हटकर अपना मार्ग चुनते हैं। वे असामान्य दुस्साहस का परिचय देते तथा ऐसे काम कर गुजरते हैं जिन्हें देखकर दांतों तले उंगली दवानी पड़ती है। जीवन के धनी व्यक्तियों को संकटों से युक्त कार्यों को करने में ही आनन्द आता है। कुछ व्यक्तियों की मनःस्थिति विकृत स्तर की बन जाती है। निकृष्ट कामों में ही उन्हें रस आता है। व्यसनी शराब के प्याले में आनन्द देखता और ढूंढ़ता है- उसी में डूबा रहता और अपना सर्वस्व गँवाता है। कामी कामतृप्ति की क्षणिक रसानुभूति में अपने शरीर को गलाता- मनःशक्ति को क्षीण करता रहता है। क्रूर आतातायियों को जघन्य अपराधों को करने में प्रसन्नता होती है। दूसरों को रोते-कलपते, पीड़ा से कराहते-तड़पते देखकर आनन्द आता है। इसकी विकृति उनसे हत्या जैसे पाप कराती है।

बाह्य संसार में आनन्द प्राप्ति के लिए मनुष्य भटकता रहता है, यह इस बात का परिचायक है कि शाश्वत सुख की अनुभूति उसके जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता है। इसकी पूर्ति के लिए कभी वह एक तरह का माध्यम ढूंढ़ता है तो कभी दूसरे प्रकार का। व्यक्ति के सुख का केन्द्र सदा बदलता रहता है। शैशव काल माँ की गोद में, बाल्यावस्था खिलौने में, छात्र जीवन पुस्तकों में, यौवन पत्नी तथा धन संचय में, गृहस्थाश्रम पुत्र मोह में, यश प्राप्ति में नियोजित रहता है। गम्भीरता से विचार करने पर पता चलता है कि जिन भौतिक चीजों से आनन्द प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है वे पदार्थ वस्तुतः आनन्द से रहित हैं। यदि आनन्द होता तो मन सदा उनमें लीन रहता, पर आनन्द प्राप्ति के केन्द्र सतत् बदलते रहना इस बात का प्रमाण है कि यह विशेषता उन भौतिक वस्तुओं में नहीं है।

सुख एवं आनन्द का केन्द्र भीतर है- बाहर नहीं। आनन्द की भावना मनुष्य की अन्तरात्मा में विद्यमान है। यह भाव ही विभिन्न वस्तुओं में आरोपित होकर हमें आनंददायक प्रतीत होता है। इसी कारण भ्रमवश लोग वस्तुओं को ही आनन्द का हेतु समझ लेने की भूल कर बैठते हैं। भ्रमवश विभिन्न वस्तुओं में उसे ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं। फलस्वरूप असफलता ही हाथ लगती है। यह स्थिति उस हिरन जैसी ही है जो कस्तूरी की गंध से मोहित होकर उसे बाहर तो खोजता है पर भीतर नहीं झाँकता।

आनन्द आत्मा का शाश्वत गुण है। वही भीतर बैठा आनन्द प्राप्ति का भाव सम्प्रेषित करता तथा अपनी आनन्दमय स्थिति का भान कराता है। इन्द्रियों की बनावट बहिर्मुखी है। अन्तर्मुखी होकर मूल केन्द्र को तलाशने की अपेक्षा वे बाहर की ओर चंचल रहती हैं। साँसारिक आकर्षणों में वे सुख और आनन्द खोजती हैं- उन्हें ही सुख का आधार मान लेती हैं।

आनन्द की प्रतिच्छाया भावों के रूप में आरोपित होकर जड़ वस्तुओं तक को आकर्षक बना देती हैं। जबकि उनमें अपना कोई आकर्षण नहीं होता और न ही आनन्द। लुभाने दृश्य तथा संसार वही रहते हैं। समग्र इन्द्रियों से युक्त काया का स्वरूप भी नष्ट नहीं होता, पर चैतन्य आत्मा के शरीर से निकलते ही सब खेल समाप्त हो जाता है। कहीं कोई आकर्षण नहीं दीख पड़ता। जड़ काया के भीतर विद्यमान अन्तरात्मा की सौंदर्य प्रवाह किरणें ही वस्तुओं पर पड़कर सुन्दरता का आभास कराती हैं। दर्पण में दिखायी पड़ने वाली मुखाकृति की प्रतिच्छाया को देखकर दर्पण की सराहना की जाय तथा सुन्दर मुखाकृति का कारण दर्पण को माना जाय तो यह मान्यता अविवेकपूर्ण ही होगी। प्रतिच्छाया से आनन्द प्राप्ति का भ्रमपूर्ण प्रयास असफल ही सिद्ध होगा।

विषयों में कर्मेंद्रियां, ज्ञानेन्द्रियाँ रमण करती- कुछ क्षणों के लिए आनन्द की अनुभूति करती हैं। पर उनकी वे विशेषताएँ तब तक ही रहती हैं जब तक कि आत्मा काया में निवास करती है। इन्द्रियाँ उसी से गति एवं सामर्थ्य प्राप्त करती हैं। उनकी विभिन्न तरह की क्षमताएँ आत्मशक्ति का ही अनुदान हैं। रंग, रूप गंध स्पर्श स्वाद आदि कायिक अनुभूतियों से लेकर प्रसन्नता, प्रफुल्लता, उत्साह, उमंग आदि की मानसिक विशेषताएँ तक उस आन्तरिक चेतन शक्ति की ही प्रतिच्छाया है। शरीर एवं मन में जुड़ी हुई विभिन्न इन्द्रियाँ काय-कलेवर में आत्मसत्ता के बने रहने से ही पदार्थों, दृश्यों एवं विषयों में आत्मसत्ता के बने रहने से ही पदार्थों, दृश्यों एवं विषयों में सुख की अनुभूति कर पाती हैं। ऐसे सुख की जो क्षणिक, अस्थायी और अतृप्ति को और भी अधिक बढ़ाने वाला है। आत्मा के शरीर छोड़ते ही इन्द्रियाँ किसी प्रकार की अनुभूति नहीं कर पाती। पार्थिव शरीर मिट्टी तुल्य हो जाता है, उसे गाढ़ने-दफनाने-जलाने की तुरन्त बात सोची जाती है।

आनन्द का केन्द्र बिन्दु अन्तरात्मा है। वह चैतन्य गतिविधियों का प्रेरणा स्थल भी है। पर चेतना की यह विशेषता होती है कि वह जड़ वस्तुओं में अधिक समय तक नहीं टिक सकती। जब तक उसका प्रकाश-आनन्द की किरणें वस्तुओं, व्यक्तियों अथवा विषयों पर पड़ती है, तब तक वे आकर्षक लगती है। जैसे ही किरणें सिमटती हैं, वह दृश्यमान सौंदर्य लुप्त हो जाता है। वस्तुतः अन्तरात्मा से निकली भाव तरंगें दृश्य संसार तथा उससे सम्बद्ध वस्तुओं में अपने उद्गम स्थल की खोज करती हैं। बाहर वह नहीं मिलता। अतृप्ति मिटाने के लिए वह साँसारिक चीजों का सहारा लेती है। मिटने के स्थान पर वह और भी बढ़ती है तथा उसकी स्थिति उस प्यासे व्यक्ति की तरह होती है जो पानी की तलाश में निकलता है, पर मदिरालय पहुँच कर मद्यपान में अपना होश-हवाश गवाँ बैठता है। शराबी की तरह ही हालत जीवात्मा की हो जाती है जो सदा अतृप्त बनी आकुल व्याकुल रहती है।

यह एक विडम्बना ही है कि जीव स्वयं आनन्द का स्रोत होते हुए भी जीवन पर्यन्त उस अमृतत्व से वंचित रहता है। खेल खिलौने, भोग विलास, इच्छाओं आकाँक्षाओं, ऐषणाओं की पूर्ति में बचपन, किशोरावस्था युवावस्था प्रौढ़ावस्था खप जाती है, जब वृद्धावस्था में मनुष्य हाथ मलता रह जाता है। व्यतीत हुए भूतकाल के जीवन को स्मरण करके हर व्यक्ति की अंतर्व्यथा जेम्स एलन की भाँति मूक रूप में प्रस्फुटित होती है- “मैंने साँसारिक जीवन एवं उससे जुड़ी वस्तुओं में आनन्द की खोज का प्रयास किया किन्तु वह नहीं मिल सका। विद्याभ्यास किया- ऐश आराम के साधन जुटाये, श्रेय सम्मान अर्जित किया, पर अशान्ति बढ़ती ही गयी। मैंने दर्शनों का अनुशीलन किया किन्तु मेरा हृदय अहंभाव से विदग्ध हो गया तब पहली बार मुझे अनुभव हुआ है, कि शान्ति एवं आनन्द का केन्द्र बाहर नहीं भीतर है।”

ऐसी व्यथा-वेदना की अनुभूति हर व्यक्ति को कभी व कभी अवश्य होती है। जिसकी अभिव्यक्ति विभिन्न व्यक्तियों में अलग-अलग प्रकार को होती है। यह एक ऐसा अभाव है जिसकी आपूर्ति भौतिक वस्तुओं, विषयों अथवा भौतिक ज्ञान द्वारा नहीं हो सकती। वे मनुष्य के अन्तराल को तृप्त नहीं कर सकतीं। अन्तराल में इस पीड़ा का होना इस शाश्वत तथ्य की परिचायक है कि शाश्वत आनन्द की प्राप्ति जीव की प्रमुख माँग है। उसे पाने की उत्कंठा भी उसमें प्रबल है। भीतर की यह आकाँक्षा और उत्कंठा उस दिव्य आनन्द की प्राप्ति के लिए के लिए सतत् प्रेरित करती रहती है। दृष्टि बहुमुखी होने के कारण मानव उसे बाह्य संसार में ढूंढ़ता है, उसका पुरुषार्थ एवं सामर्थ्य इस प्रयास में ही खप जाता है। इन्द्रियों की क्षणिक तृप्ति आग में घी डालने का काम करती है तथा अतृप्ति अग्नि को और भी तीव्र करती है। एक कामना की पूर्ति दूसरी कामना की और दूसरी तीसरी को, इस तरह अनेकों प्रकार की कामनाओं की शृंखला चल पड़ती है। उन सभी की पूर्ति कभी नहीं हो पाती। छोटा जीवन और अनन्त कामनाएँ। ईश्वर प्रदत्त अलभ्य अनुपम जीवन कामनाओं की पूर्ति में होकर नष्ट होता है और अन्ततः पल्ले पड़ती है- अशान्ति, अतृप्ति, असन्तोष और पश्चाताप।

आन्तरिक भावों पर ध्यान दिया जा सके तो प्रतीत होगा कि आनन्द का अजस्र स्रोत अन्दर बैठा सतत् अपना प्रवाह संप्रेषित कर रहा है। वह समझते ही दुश्चिन्तन कुचेष्टाएँ समाप्त होने लगती हैं- लालसाएँ कम होने लगती तथा चेष्टाएँ अन्तर्मुखी बन जाती हैं। ऐसा आत्म बोध चेतना के उद्गम स्थल पर ही पहुँचने पर सम्भव है।


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