योगी अरबिन्द का पूर्ण योग

January 1983

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योगीराज अरविन्द के पूर्णयोग के चार प्रमुख अंग हैं- शुद्धि, मुक्ति, सिद्धि और भुक्ति। सर्वप्रथम साधना मार्ग में आत्म-शुद्धि की आवश्यकता पड़ती है। प्रत्येक साधना प्रणाली में परिशुद्धि का विधान है। शुद्धि का क्षेत्र व्यापक है। बाहर और भीतर दोनों ही क्षेत्र का परिशोधन आवश्यक है। हठयोग की साधना शारीरिक परिशोधन के लिए की जाती है। पूर्णयोग की साधना में शरीर ही नहीं मन, वाणी, प्राण और अंतःकरण अर्थात् समूची मानवी प्रकृति का परिष्कार आवश्यक है।

शुद्धि के प्रारम्भ होने का चिन्ह है समता का दिग्दर्शन। साधक प्रकृति की सब क्रियाओं को, द्वंद्वों और अविद्या के आक्रमण को, अपने अज्ञान को समता की दृष्टि से देखता है तथा उन्हें दूर करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। शुद्धि के अंतर्गत मन बुद्धि चित्त अहंकार और प्राण की सभी परतें समाहित हैं। इस सबका परिष्कार आवश्यक है।

पूर्णयोग और आत्मसिद्धि का दूसरा अंग महर्षि अरविन्द के अनुसार है- मुक्ति। मुक्ति का अर्थ है आत्मा का जीव शरीर के बन्धनों एवं आकर्षणों से परे हो जाना तथा आत्मा की असीम अमरता में उन्मुक्त हो जाना। महर्षि का कहना है कि- “समस्त स्थूल क्रिया-कलापों अथवा प्रकृतिगत चेष्टाओं का परित्याग कर निष्क्रिय निर्वाण स्थिति में पहुँचने का नाम मुक्ति नहीं है जैसा कि कितने चिंतक कहते हैं। यह एक ऐसा आन्तरिक परिवर्तन है जो साधक को दिव्य बनाता है। मुक्ति के दो चरण हैं- परित्याग और ग्रहण। जिसमें एक निषेधात्मक पक्ष है दूसरा भावनात्मक। मुक्ति की निषेधात्मक गति का अर्थ है- अपनी सत्ता की निम्न प्रकृति के प्रधान बन्धनों एवं मुख्य ग्रन्थियों से छुटकारा पाना। उसके भावनात्मक पक्ष का अर्थ है- उच्चतर आध्यात्मिक सत्ता में समाहित हो जाना- उसकी दिव्य अनुभूतियों में रमण करना। वैचारिक दृष्टि से मुक्ति का अर्थ है निष्काम और निरहंकार होना, मन और अन्तरात्मा में त्रिगुण से रहित, निस्त्रैगुण्य होना। मुक्ति के सभी मौलिक तत्व दार्शनिक दृष्टि से इस लक्ष्य में समाहित है। भावनात्मक अभिप्राय मुक्ति का है- अपनी आत्मा को विश्वात्मा के साथ एक करना उच्चतम दिव्य प्रकृति को धारण करना। दूसरे शब्दों में यह कहना चाहिए कि भगवान के समान बनना। यही मुक्ति का सम्पूर्ण और समग्र आशय है।

शुद्धि और मुक्ति सिद्धि की पूर्वावस्थाएँ हैं। आध्यात्मिक सिद्धि का अर्थ योगीराज अरविन्द की दृष्टि में है- भागवत सत्ता की प्रकृति के साथ एकत्व प्राप्त करना। पर विभिन्न दर्शनों में सिद्धि की मान्यता के संदर्भ में मतभेद मायावादी के लिए सत्ता का सर्वोच्च तथा एकमात्र वास्तविक सत्य निर्विकार निर्गुण एवं आत्म सचेतन ब्रह्म है। इसलिए आत्मा की निर्विकार शान्ति तथा शुद्ध आत्म चेतनता में विकसित होना ही उसका सिद्धि विषयक विचार है तथा व्यक्तिगत अहंता का परित्याग करके शान्त आत्म ज्ञान में प्रतिष्ठित होना ही उसका मार्ग है। बौद्ध-मतावलम्बो के लिए उच्चतम सत्य सत्ता का अस्वीकार है। अतः उसके लिए सत्ता की क्षणिकता, कामना की विनाशकारी निःसारता का बोध, अहंकार का तथा उसे धारण करने वाले विचार संस्कारों का एवं कर्म श्रृंखलाओं का विलय ही सर्वांगपूर्ण मार्ग है। प्रत्येक दर्शन अपने-अपने विचार के अनुसार भगवान के साथ कुछ सादृश्य प्राप्त करता है और प्रत्येक तद्नुरूप अपना मार्ग ढूँढ़ निकालता है।

पर सर्वांगीण योग के लिए सिद्धि का अर्थ- एक ऐसी दिव्य आत्मा और दिव्य कर्म को प्राप्त करना होगा जो जगत में दिव्य सम्बन्ध और दिव्य कर्म का खुला क्षेत्र प्रदान करेंगे। अपने समग्र स्वरूप में उसका अर्थ है- सम्पूर्ण प्रकृति को दिव्य बनाना तथा उसके अस्तित्व और कर्म की समस्त असत्य ग्रन्थियों का परित्याग करना।

सिद्ध या पूर्णता प्राप्त पुरुष उस ब्राह्मी चेतना में पुरुषोत्तम के साथ एक होकर जीवन धारण करता है। वह सर्व मय ब्रह्म, सर्व ब्रह्म में, अनन्त सत्ता और अनन्त गुणों वाले ब्रह्म, अनन्त ब्रह्म में स्वयंभू- चैतन्य स्वरूप और विश्व ज्ञानमय ब्रह्म, ज्ञानं ब्रह्म में, स्वयंभू आनन्द स्वरूप और विराट् अस्तित्व- आनन्दमय ब्रह्म, आनन्द ब्रह्म में सचेतन होकर निवास करेगा। वह सम्पूर्ण विश्व को एक असीम विराट् सत्ता की अभिव्यक्ति अनुभव करेगा तथा समस्त गुणों एवं कर्मों को उसकी विराट् और असीम शक्ति की क्रीड़ा। उच्चतर अनुभूति की आनन्दमय स्थिति में वह उस तत् के साथ एक होगा। जो समस्त सत्ता का उद्गम और आधार है- सबको अन्तर्वासी, मूल आत्म तत्व और उपादान शक्ति है। यही है- आत्मसिद्धि की पराकाष्ठा।

भूक्ति का अर्थ अरविन्द की दृष्टि में है- ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’। अर्थात्- अनासक्त भाव से उसको (भोगों को) भोगो। कामना प्रेरित जीवन में रहकर भोग को भोगने का प्रयत्न करना निश्चय ही लक्ष्य प्राप्ति में बाधक है। जीवन में दिव्य पूर्णता का आविर्भाव करना, सम्पूर्ण जीवन को अध्यात्मिक शक्ति का क्षेत्र मानकर दिव्य भोग करना ही भुक्ति का रहस्य है। इस तरह पूर्ण योग में जीवन के दिव्य भोग के आदर्श को अरविन्द ने स्वीकारा है। पूर्णयोग के साधक को इस विश्व उपवन में उत्पन्न हुए दिव्य आनन्द का उपभोग करना चाहिए।

महर्षि अरविन्द के अनुसार समर्पण का अर्थ है- अपनी सम्पूर्ण प्रकृति को- अपने आपको भगवान के हाथ में सौंप देना। हमें अपनी प्रत्येक चीज को- बाह्याभ्यन्तरिक विभूतियों को उस विश्वमय विश्वातीत परमात्मा को समर्पित कर देना चाहिए। अपने संकल्प अपने भाव और अपने विचार को उस एक बहुरूप भगवान पर पूर्णरूपेण एकाग्र करना और अपनी सम्पूर्ण सत्ता को भगवान पर ही न्यौछावर करा देना समर्पण योग की एक निर्णायक गति है। यह अहं का उस ‘तत्’ की ओर मुड़ना है जो उससे अनन्त गुना महान् है। इसी में आत्म समर्पण की पूर्णता है।


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