स्वस्थ जीवन के पाँच स्वर्णिम सूत्र

January 1983

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अमेरिका के प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सा शास्त्री डा. एल.एच. एण्डर्सन ने बहुत समय पूर्व एक पुस्तक लिखी- ‘मानवोचित आहार’। इस पुस्तक में उन्होंने मनुष्योचित आहार के सम्बन्ध में विस्तृत उल्लेख किया है। एक स्थान पर लिखा है कि- “खान पान एवं स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने के लिये पश्चिमी लोगों को हिन्दू ग्रन्थों का पर्यवेक्षण करना चाहिये।” आहार सम्बन्धी उन तथ्यों का पता लगाना चाहिये जिनको अपनाकर भारतीय सदा स्वस्थ बने रहते थे।

आहार शरीर संचालन के लिये प्रमुख आधार है- शरीर रूपी गाड़ी का ईंधन है। इसके अभाव में शरीर रूपी गाड़ी ठप्प पड़ जाती है। चिकित्सा शास्त्री इटरिट का कहना है कि 99.9 प्रतिशत रोग आहार अनियमितता एवं असंयम के कारण उत्पन्न होते हैं। सन्तुलित ,सात्विक एवं उचित मात्रा में लिया गया भोजन आरोग्य का कारण बनता है। आहार भी तीव्र भूख लगने पर ही लाभप्रद सिद्ध होता है। आधी अधूरी भूख में जबरन लिया गया भोजन यो उल्टे विकार उत्पन्न करता है।

आहार सम्बन्धी नियम सन्तुलित पोषक तत्वों तक सीमित नहीं है। उसका उपार्जन किस प्रकार हुआ। उपार्जन में ईमानदारी का समावेश था या नहीं, जैसी बातों का भी स्वास्थ पर विशेष प्रभाव पड़ता है। अनीतिपूर्वक की गई कमाई एवं उससे उपलब्ध किया गया आहार स्वास्थ के लिये हानिकारक सिद्ध होता है। अनीति एवं पाप की कमाई के संस्कार भोजन के साथ सूक्ष्म रूप से जुड़े रहते हैं तथा उपयोगकर्त्ता के ऊपर उलट कर वार करते हैं। जो विभिन्न प्रकार के मनोविकारों एवं मनोरोगों के रूप में प्रकट होते हैं। अंततः उनकी प्रतिक्रिया शरीरगत रोगों के रूप में भी दृष्टिगोचर होती है। यही कारण है कि महापुरुषों ने सात्विक आहार पर जोर दिया है।

स्वास्थ रक्षा एवं आरोग्य प्राप्ति का दूसरा आधार है ‘श्रम’। शरीर को सक्रिय एवं स्फूर्तिवान बनाये रखने के लिये श्रम भी उतना ही आवश्यक है जितना कि भोजन। श्रम में शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार के श्रम का संतुलन होना आवश्यक है। मानसिक श्रम ही पर्याप्त नहीं होता, शारीरिक सक्रियता होना भी अनिवार्य है। समुचित श्रम के अभाव में अनेकों प्रकार के शारीरिक रोग पैदा होते हैं। देखा यह जाता है कि शरीर से श्रम न करने वाले अनेकों प्रकार की बीमारियों से घिरे रहते हैं। पाचन तंत्र सम्बन्धी रोग अधिकांशतः उन व्यक्तियों को ही अधिक होते हैं जो शारीरिक श्रम से वंचित बने रहते हैं। जिनके पास शारीरिक श्रम के काम नहीं है, तो भी उन्हें ऐसे काम ढूंढ़ना चाहिये जिससे शरीर के प्रत्येक अंगों का व्यायाम हो जाय। सुविधानुसार बागवानी आदि का कार्य रुचिकर है और स्वास्थ वर्धक भी। अपनी सुविधानुसार प्रत्येक मानसिक श्रम करते रहने वाले व्यक्ति को शरीर की सक्रियता बनाये रखने के लिए उपरोक्त किन्हीं एक का आश्रय लेना चाहिये। श्रम चाहें जिस प्रकार का किया जाय, उसमें मनोयोग का होना आवश्यक है।

शरीर में मांस पेशियों का भार 45 प्रतिशत होता है। इनकी सक्रियता निष्क्रियता पर शारीरिक एवं मानसिक सीमा तक निर्भर करता है। श्रम अथवा व्यायाम के बिना सक्रियता नहीं बन पाती। महान रूसी जनरल ए. वी. सुवोरोव अपनी पुस्तक ‘युद्ध में कैसे विजयी हो’ नामक पुस्तक में लिखते हैं कि- “जो अपनी क्रियाशीलता, कार्य क्षमता, मानसिक दक्षता एवं आरोग्य की लम्बी अवधि तक अक्षुण्ण रखना चाहता है उसे नित्य व्यायाम और भ्रमण का क्रम अपनाना चाहिये।

प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री के.डी. उशिन्स्की का कहना है कि- “मानसिक श्रम करने के बाद विश्राम का अभिप्राय बेकार बैठना नहीं है वरन् उपयोगी शारीरिक श्रम करना है।”

रूसी वैज्ञानिक आई.पी. पावलोन एवं आइ.एम. सेचेनोव ने अपने शोधों के उपरांत यह तथ्य उद्घाटित किया है कि- पेशीय श्रम अथवा व्यायाम तंत्रिका को शक्ति प्रदान करता है। उनका कहना है कि मानसिक श्रम करने वाले जो लोग शारीरिक श्रम से वंचित बने रहते हैं प्रायः वे ही हृदय रोग से अधिक ग्रसित होते हैं। अमेरिका से प्रकाशित राष्ट्रीय स्वास्थ समिति की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में शारीरिक श्रम से वंचित रहने वाले बुद्धिजीवी हृदय रोगियों की संख्या श्रमजीवियों से अधिक है। स्पष्ट है कि सन्तुलित आहार स्वास्थ के लिए जितना आवश्यक है उतना है शारीरिक श्रम।

आहार श्रम के साथ तीसरी स्वास्थ के लिए आवश्यक चीज है- विश्राम। शारीरिक एवं मानसिक श्रम से जो शक्ति व्यय होती है उसकी आपूर्ति विश्राम से होती है। निरन्तर श्रम से शरीर के कोषों में होने वाली टूट-फूट की मरम्मत शरीर को विश्राम देने से ठीक होती है। न्यूनतम प्रत्येक व्यक्ति को छह घंटे सोना आवश्यक है आयु की दृष्टि से इसमें कमी और बढ़ोतरी भी हो सकती है। वृद्धों की निद्रा कम समय में पूरी हो जाती है जबकि बच्चे सबसे अधिक सोते हैं। स्वस्थ युवक के लिए छह घंटे कि निद्रा पर्याप्त है। विश्राम में महत्व समय का नहीं वरन् निद्रा की प्रगाढ़ता का है। कम समय में भी गहरी निद्रा द्वारा पर्याप्त शक्ति प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए सोने से पूर्व शरीर एवं मन को सभी प्रकार के तनावों एवं चिंताओं से मुक्त रखना होता है।

स्वस्थ एवं निरोग बने रहने का चौथा आधार है- संयम। स्वास्थ्य रक्षा के अन्य नियमों की तलना में इसका सर्वाधिक महत्व है। संयम को स्वास्थ का मेरुदण्ड माना जा सकता है। शरीर की अधिकाँश शक्तियाँ असंयम रूपी छिद्र से यों ही बेकार चली जाती हैं। उन्हें रोका न जाय तो पौष्टिक आहार भी आरोग्य को बनाए नहीं रख सकते। जिह्वा एवं इंद्रियों की भोग लिप्सा के कारण बहुमूल्य जीवन-सम्पदा नष्ट होती रहती है। जीवन शक्ति असंयम रूपी छिद्र से निकलती रहती है तथा स्वस्थ से स्वस्थ व्यक्ति को भी कमजोर एवं रुग्ण बनाती है। शरीरगत संयम न केवल शारीरिक बलिष्ठता के रूप में वरन् मानसिक प्रखरता एवं आत्मिक तेजस्विता के रूप में परिलक्षित होता है। संयम इंद्रियों पर नहीं विचारों एवं भावनाओं पर भी किया जाना चाहिए।

स्वास्थ, आरोग्य प्राप्ति एवं दीर्घ जीवन का अन्तिम आधार है प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता। मनोविज्ञान का जैसे-जैसे विकास होता जा रहा है, इस तथ्य की पुष्टि हो रही है कि शरीर कि स्वस्थता मन की स्थिति पर निर्भर करती है। चिन्ता, आवेश, क्रोध का बुरा प्रभाव शरीर पर पड़ता है। न्यूयार्क की ‘अकादमी ऑफ मेडिसिन’ नामक संस्था ने चिन्ता के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए एक प्रयोग किया। शोध का निष्कर्ष यह निकला कि चिन्तित रहने पर मस्तिष्क में एक विशेष प्रकार के रसायन का निर्माण होता है, जिससे शरीर के अंग-प्रत्यंगों में संकुचन पैदा होता है। उक्त संस्था के विशेषज्ञों का कहना है कि रक्तचाप, हृदय रोग, उदरशूल मधुमेह जैसी बीमारियाँ चिन्ताग्रस्त व्यक्तियों को अधिक होती हैं।

मन को सदा चिंताओं से मुक्त बनाये रहना चाहिये। प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता का सीधा सम्बन्ध शारीरिक स्वास्थ्य से है। देखा यह गया है कि प्रसन्न रहने पर शरीर में विशेष उत्साह बना रहता है। सक्रियता अधिक होती है। नागोची कहा करते थे- “है परमात्मा मुझे बड़ा से बड़ा दण्ड दे देना पर चिंता न देना।’ कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता के सहारे स्वास्थ्य को बनाये रखा जा सकता है। वर्नार्डशा कहते थे- “जिन्हें शीघ्र मरना हो वे चिन्ता का अवलम्बन लें।”

आहार, श्रम, विश्राम, संयम एवं प्रसन्नता पाँच आधार ऐसे हैं जिनका अवलम्बन लेकर सदा स्वस्थ रहा जा सकता है। आरोग्य प्राप्ति के अनेकों कृत्रिम साधनों का आश्रय लेने की अपेक्षा इन पांचों को अपनाया जा सके तो रुग्णता का, अशक्तता का अभिशाप कभी सामने न आये।


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