मानवी संरचना को नर और नारी दो भागों में विभक्त किया गया है। यह दो विभाजन प्रकृति द्वारा विनिर्मित तो हैं किन्तु उन्हें पत्थर की लकीर नहीं समझना चाहिए। इसके पीछे भी मानसिक मान्यता एवं परम्परागत अभ्यास ही आधारभूत कारण है। चिरकाल से जिस प्रकार का अभ्यास पड़ गया है उसी मान्यता के अनुरूप प्रजनन की भूमिका निभाने वाले परमाणु अपनी गतिविधियाँ अग्रसर बनाते हैं और नर और नारी में से जैसी भी परम्परा स्वभाव में आ गई हो उसी के अनुरूप लिंग बनाने लगाते हैं। मान्यता के गहन क्षेत्र में किसी प्रकार अभ्यास क्रम में परिवर्तन किया जा सके तो लिंग परिवर्तन की असम्भव दीखने वाली प्रक्रिया सम्भव हो सकती है, नर-नारी बन सकता है और नारी प्रकृति से ही नहीं आकृति से भी नर बन सकती है। भ्रूण कई महीने तक उभयलिंगी स्थिति में होता है। आरम्भिक दिनों में यह पता नहीं लग सकता कि गर्भ में कन्या है या पुत्र। क्योंकि उस अवधि तक दोनों प्रकार के लक्षण विद्यमान रहते हैं। जब चेतना जोर मारने लगती है। अभ्यस्त प्रकृति उभरने लगती है तो एकलिंग के लक्षण बलिष्ठ होने और दूसरे के दबने लगते हैं। प्रसव काल आने तक बालक का अभीष्ट पथ दब चुका होता है। इतने पर भी स्तन आदि के ऐसे चिन्ह शेष रह जाते हैं जो उभयपक्षीय संरचना की साक्षी देते हैं। समय आने पर नारी के स्तन विकसित होने लगते हैं, किन्तु नर में भी उसका स्थान बना रहता है। नारी की यौन रचना में ‘भग’ नासा को पुरुष शिश्न का छोटा रूप माना गया है। पुरुष के बाहर तो नहीं किन्तु भीतरी संरचना में गर्भाशय का छोटा अस्तित्व पाया जाता है। अनेक नर-नारियों की मनोवृत्ति अपनी सजातीय परम्परा से भिन्न पाई जाती है। पुरुषों की प्रकृति में नारी स्तर की उमंगें और नारियों में पुरुषों जैसा रुझान देखा गया है। जनखे प्रायः इसी मध्यवर्ती स्थिति के होते हैं। कइयों में यौन संरचना में प्रत्यक्ष अन्तर न दीखते हुए भी काम-कौतुक के सम्बन्ध में ही नहीं, स्वभाव की ऐसी भिन्नताएं पाई जाती हैं जिन्हें विपरीत स्तर की कहा जा सके। छिपाये रहने पर भी वे उभरती रहती हैं। इस संदर्भ में यदि अतिरिक्त हलचलें उभरने लगें तो इसी जीवन में प्रत्यक्ष लिंग परिवर्तन हो सकता है। ऑपरेशनों से ऐसे कितने ही परिवर्तन हुए भी हैं।
पूर्व जन्म की स्मृति के प्रामाणिक विवरण जिन बालकों ने बताये हैं उनमें से कितने ही ऐसे भी हैं जिनमें पूर्वजन्म का पुरुष अगले जन्म में स्त्री बना। इसी प्रकार स्त्री ने पुरुष रूप में जन्म लिया। ऐसे प्रकरणों में इच्छाशक्ति ही प्रधान कारण होती है। लक्ष्मीबाई जैसी नारियों के सम्बन्ध में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे पूर्वजन्म में कोई पुरुष योद्धा रही होंगी। इसी प्रकार आकृति एवं प्रकृति से नारी स्वभाव के कितने ही पुरुष पाये जाते हैं। इनके स्वर, रहन-सहन एवं यौन आकाँक्षाओं में नारी प्रकृति की विशेषताएँ अनायास ही उभरती रहती हैं। अचेतन मन में व्यक्ति अपने आपको नर या नारी में- जिस वर्ग का मान बैठता है और उसकी प्रकृति को स्वभाव का बना लेता है उसके वह अभ्यास ही कालान्तर में लिंग परिवर्तन का कारण होते हैं। वे एक वर्ग से दूसरे में बदलने की आधी-अधूरी प्रक्रिया के मध्य रह रहे होते हैं। आगे बढ़ना या पीछे हटना भी ऐसे प्रसंगों में उनकी इच्छा पर निर्भर रहता है। ऐसी घटनाएँ भारतीय संस्कृति के इतिहास में भी कम नहीं हैं।
शिखण्डी का सेक्स परिवर्तन सभी को विदित है। वे पांचाल नरेश द्रुपद के पुत्र थे। उनका लालन पालन राजकुमारों जैसा हुआ। जब कुछ बड़े हुए तो उनका विवाह दशार्ण सम्राट हिरण्य वर्मा की पुत्री से कर दिया गया। किन्तु पहली ही रात राजकुमारी को पता चल गया कि उसका पति स्त्री है। शिखण्डी को इस बात का पता चला तो उसने गृह त्याग कर दिया और वन में जाकर तप करने लगे। वह उसकी शल्य चिकित्सा स्मूणाकर्ण नामक यज्ञ ने की और वह स्त्री से पुरुष बन गया।
इंग्लैण्ड में मिडिल गेट स्ट्रीट, पारमाउथ नगर में दो बहनें साथ साथ रहती थीं। एक का नाम मार्जोरी था और दूसरे का डेजीफेरो। मार्जोरी 13 वर्ष की थी और कॉलेज में पढ़ती थी। इसी बीच उसे अपने में कुछ परिवर्तन महसूस हुए। आवाज भारी होने लगी और बहिरंगों में बदलाव आने लगा। उसकी शरीर परीक्षा करने पर पुरुषत्व के लक्षण उभरते पाये गये। बाद में ऑपरेशन द्वारा वह पूर्ण लड़का बन गई और उसका नाम मार्क रखा गया। कुछ समय बाद डेजीफेरो में भी इसी प्रकार के परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए। जाँच करने पर उसमें भी पुरुष के लक्षण पाये गये। ऑपरेशन द्वारा वह भी लड़की से लड़का बन गई और नाम डेविड रख लिया।
ऐसी ही एक घटना फ्राँस की है। जार्मे गार्नायर नामक एक 15 वर्षीय लड़की एक दिन जंगल में सूअर चरा रही थी। उसके सूअर किसी किसान के खेत में घुस गये। खेत के किनारे-किनारे ऊँची खाई थी। जार्मे गार्नायर को पता चला तो वह भागी और रास्ते में पड़ रही खाई को लाँघने के लिए जोर से कूदी। कूदने से उसके पेडू में जोर का धक्का लगा और वह चीखमार कर गिर पड़ी। जब उसे घर पर डाक्टरों को दिखाया गया तो एक विलक्षण बात का उद्घाटन हुआ। परीक्षण के बाद डाक्टरों ने बताया कि लड़की में पुरुष जननेन्द्रिय का विकास हो गया है और वह लड़का बन गई है। इसके बाद वह जार्मे गार्नायर से जर्मेमेरिया बन गई।
इसी प्रकार की एक घटना इंग्लैण्ड की ‘पियर्सन’ पत्रिका में छपी। कु. जेंकन कौबकोवा चेकोस्लोवाकिया की प्रसिद्ध महिला खिलाड़ी थी। जब उसने यौवन में प्रवेश किया तो स्त्रैण लक्षण प्रकट होने की बजाय उनका लोप होने लगा। उरोज धीरे-धीरे छोटे होने लगे और पेडू में प्रायः दर्द रहने लगा। डाक्टरों को दिखाने पर पता चला कि उसके पेडू में शिश्न विकसित हो गया है। बाद में उसका ऑपरेशन हुआ वह स्त्री से पुरुष बन गई।
बेलग्रेड के सरविया अस्पताल में कुछ वर्ष पूर्व एक किसान के पेट से दो बच्चों के जन्म की घटना समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई थी। उसे पेट में शिकायत रहती थी। बाहरी परीक्षणों में फोड़े के होने के संकेत मिले। सरविया अस्पताल में जब उसका ऑपरेशन किया गया तो उससे दो बच्चे निकले जिनकी शारीरिक रचना जन्म लेने वाले सामान्य बच्चों की तरह परिपूर्ण थी।
अमेरिका की “नेशनल इन्स्टीट्यूट फार चाइल्ड एण्ड ह्यूमन डेवलपमेंट” संस्थान के सामने ऐसे बालकों के अनेकों उदाहरण हैं जिनकी यौन क्षमता असाधारण रूप से बढ़ी या समाप्त होती गई। ग्रीनवे की एक जैमिका नामक लड़की को तीन वर्ष की आयु में ही प्रजनन अंग स्तन आदि तेजी से परिपक्व हुए और वयस्कों जैसा मासिक धर्म आने लगा।
एक घटना इण्डियाना की एक अपराधी महिला के सम्बन्ध में है। वह जेल में बन्द हुई तब महिला थी। कुछ दिन बाद उसके दाढ़ी मूँछ उग पड़े। डाक्टरों ने घोषित किया कि वह पुरुष बन गई है। छूटने पर उसने एक पुरुष से विवाह किया। फिर कुछ ऐसी उलट-पुलट हुई कि उसका पुरुषत्व बढ़ा और किसी नारी के साथ विवाह बन्धन में बँध गई। इस विवाह झंझट में बँधे तीनों साथ-साथ रहे और नर-नारी की आवश्यकताएँ मिलजुल कर पूर्ण करते रहे।
सन् 1917 में संघाई में एक ऐसे बच्चे ने जन्म लिया था जिसके तीन पैर थे, साथ ही उसका शरीर आधा पुरुष का था, आधा स्त्री का। 8 वर्ष की आयु तक जीवित रहने के पश्चात् वह मर गया।
साधारणतया यौन कर्म गोपनीय माना जाता है, मनुष्यों में वैसा प्रचलन नहीं है जैसा कि पशुओं में निर्लज्ज परम्परा है। बहुपति प्रथा, बहु पत्नी प्रथा में भी पर्दे की ओट रखी जाती है किन्तु ऐसे उदाहरण भी हैं, जिनमें उस तरह की लज्जा परम्परा का परित्याग करने की आवश्यकता समझी गई और नये प्रचलन का नया मार्ग निकाला गया।
थाईलैण्ड के- मीकलांग गाँव में 11 मई सन् 1811 को दो ऐसे यमन बच्चों ने जन्म लिया जो अलग अलग-अलग अस्तित्व रखते हुए भी सीने के दाँये-बाँये हिस्से से जुड़े हुए थे। यह तो अपने आप में कोई खास अनोखी बात नहीं है। आश्चर्य की बात तो यह है कि वे दोनों 63 वर्ष आयु तक जीवित रहे, उन्होंने विवाह किया, घर बसाया और इसी तरह जुड़े रहकर सामान्य जीवन व्यतीत किया।
इन दोनों भाइयों का सचित्र विवरण ‘एनी वालेस’ ने ‘द टू’ नामक पुस्तक में लिखा है -
चीनी पिता और थाईलैंड की निवासी माता से जन्म लेने वाले इन बालकों की विचित्रता को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। उनमें कई डाक्टर भी थे। डाक्टरों ने उनके माता-पिता से उन्हें अलग करने का आग्रह एवं प्रस्ताव भी किये किन्तु उनकी माँ गरम तार या रस्सी के द्वारा कटवाकर अलग कराने के लिए सहमत न हुई। उन दोनों चिकित्सा विज्ञान आज जैसा विकसित नहीं था।
उन बच्चों के नाम रखे गये थे- चांग और इंग। माँ ने दोनों बच्चों को गिरते-पड़ते चलना भी सिखा दिया साथ ही परस्पर सहयोग एवं सद्भावपूर्वक जीवनयापन करने के लिए प्रशिक्षित भी किया।
आरम्भ में चलने में उन्हें कठिनाई तो हुई किन्तु धीरे धीरे न केवल वे चलना सीख गये वरन् तैरना और नाव चलाना भी सीख लिया। सन् 1828 में नदी में तैरते देखकर एक अंग्रेज व्यापारी राबर्ट हन्टर आश्चर्यचकित रह गया। पहले तो वह उन्हें जल का कोई विचित्र जीव समझा परंतु जब पानी से निकल कर नाव में चढ़ते देखा तो समझ सका कि वे दोनों जुड़वा भाई हैं।
हन्टर ने चांग और इंग के माता पिता को कुछ दे दिलाकर उन्हें अपने साथ अमेरिका ले जाने पर सहमत कर लिया। अमेरिका ले जाकर हन्टर ने ‘वोस्टन’ के हारवर्ड मेडिकल कॉलेज के प्रो. जान वारेन तथा अन्य डाक्टरों से परीक्षण कराया, उन्हें नैसर्गिक रूप से जुड़वा पाया। हन्टर ने अमेरिका और ब्रिटेन में चांग तथा इंग के प्रदर्शन करके लाखों की सम्पत्ति कमाई।
समझ आने पर दोनों भाइयों ने हन्टर से सम्बन्ध तोड़कर स्वतन्त्र रूप से प्रदर्शन करके अपार धन कमाया। 1833 से 1839 तक अमेरिका में उन्होंने सैकड़ों प्रदर्शन किये। उन्हीं दिनों उनकी भेट जार्जिया के एक समृद्ध किसान की लड़कियों ‘एडलीस’ और ‘लैसी’ से हुई। विवाह के लिए दोनों ने आप्रेशन करवाकर अलग होने की बात सोची परन्तु दोनों पक्षों के सहमत हो जाने पर उस स्थिति में उनकी शादी सम्पन्न हो गई। चांग एवं इंग तथा एडलीस एवं लैसी के युगल दम्पत्ति ने विवाह के बाद 21 बच्चों को जन्म दिया जिनमें से 15 सामान्य आयु तक जीवित रहे। विवाहित जीवन बिताने के सम्बन्ध में उन्होंने अपने नियम और मर्यादाएँ बना ली, आजीवन उनका पालन करते रहे। उनके जीवन में सबसे उल्लेखनीय बात यह रही कि वे आपस में बहुत कम बोलते थे, फिर भी बिना बोले ही एक-दूसरे के मन कि बात समझ जाते थे। सन् 1874 में उनकी सामान्य मृत्यु हो गई।
पाश्चात्य देशों में नारी मुक्ति आन्दोलन के अंतर्गत अब महिलायें इस प्रचलन को अपना रही हैं कि नारियाँ आपस में विवाह करके गृहस्थ चला लिया करें। पुरुषों के शोषण की शिकार न बनें। यह इस बात के चिन्ह हैं कि नर और नारी के बीच पाया जाने वाला विपरीत स्वभाव आकर्षण एवं गठन पत्थर की लकीर नहीं है, उसमें मनःस्थिति और परिस्थिति बदल जाने पर परिवर्तन भी हो सकता है। एक लिंग वाले प्राणी अपने विपरीत पक्ष में परिवर्तित हो सकते हैं।
कृमि कीटकों में, जल जीवों में कितने ही ऐसे हैं जो एक ही शरीर में नर और मादा में हेर-फेर करते रहते हैं, उन्हें प्रजनन के लिए किसी विपरीत प्रकृति के साथी का सहयोग नहीं लेना पड़ता है। इससे प्रकट है कि चेतना का मूल स्वरूप एक है। उसमें यौन निर्धारण एवं परिवर्तन की प्रक्रिया उनकी इच्छा, आकाँक्षा प्रकृति एवं आदतों पर निर्भर है।