पाँच अग्नियों के पाँच आवरण पाँच कोश

January 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मानवी सता को दो भागो में विभाजित किया जा सकता है- काया और चेतना। शरीर पंचतत्वों से बना है- वायु, जल, आकाश, अग्नि और पृथ्वी। इन पांचों के समन्वय-सन्तुलन पर शरीर का अस्तित्व बना रहता है। सभी की, शरीर में अपनी उपयोगिता एवं महत्ता है। शरीर संस्थान को स्वस्थ एवं आरोग्य बनाये रखने में इन पंचतत्वों की असाधारण भूमिका होती है। पंचतत्वों के अनुदान पर ही शरीर पुष्ट बना रहता है।

अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ दूसरा पक्ष चेतना का है। जो शरीर की अपेक्षा अधिक सामर्थ्यवान एवं सूक्ष्म है। आत्मसत्ता भी पंच आवरणों में लिपटी पड़ी है। चेतना के ये पाँच दिव्य कोश हैं। जिनमें एक से बढ़कर एक सम्भावनाएँ निहित हैं। इन पाँच कोशों में पाँच देवसत्ताएँ निवास करती हैं। गायत्री को पंचमुखी कहा गया है। गायत्री के पाँच मुख वस्तुतः ये पाँच कोश ही हैं, जिनका चित्रण आलंकारिक रूप में किया गया है।

गायत्री के आरम्भिक उपासना पक्ष का अपना महत्व एवं लाभ है। जप-अनुष्ठान का विधान इसी प्रयोजन के लिए है। गायत्री-विज्ञान का उच्चस्तरीय पक्ष कुण्डलिनी जागरण का है। यह योगाभ्यास पक्ष है। प्राण पक्ष है। शक्ति का केन्द्र बिन्दु मूलाधार है, ज्ञान का ब्रह्मरंध्र। क्रिया एवं ज्ञान का सामान्यतया समन्वय नहीं हो जाता। जीवन में अनेकानेक प्रकार के विक्षोभ इसी कारण उठ खड़े होते हैं। गायत्री के जप पक्ष द्वारा ज्ञान अभिवृद्धि का लक्ष्य पूरा होता है- कुण्डलिनी साधना द्वारा शक्ति के जागरण का। चेतना के यह दो ध्रुव हैं, जो परस्पर एक दूसरे से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़े हुए हैं। ऋण और धन विद्युत के दो तारों के रूप में ये दो ध्रुव चैतन्य आवश्यकताओं की आपूर्ति करते हैं। ये परस्पर पूरक हैं। उपनिषद् में वर्णन है-

कुण्डलिन्यां समुभ्दूतां गायत्री प्राणधारिणी। प्राणविद्या महाविद्या यस्तां वेत्ति स वेदवित्॥ -योग चूड़ामणि उपनिषद्

कुण्डलिनी ही प्राण शक्तिमयी गायत्री का उत्पत्ति स्थान है। यह गायत्री ही प्राणरूपी महाविद्या है। जो व्यक्ति इस विद्या को जानते हैं वे ही वेदवेत्ता हैं। कठोपनिषद् यम-नचिकेता संवाद में जिस पंचाग्नि विद्या का उल्लेख किया गया है वह गायत्री महाशक्ति में सन्निहित पंचप्राणों को प्रखर बनाने का ही विज्ञान है। यही पंचमुखी सूक्ष्म शरीर के पंचकोश हैं। गायत्री की प्राणशक्ति को उभारने के लिए पंचकोश की उच्चस्तरीय साधना की जाती है, जिसकी उपलब्धि पंचदेवों के रूप में होती है। निद्राग्रस्त होने पर ये मृत तुल्य पड़े रहते और किसी काम नहीं आते। फलस्वरूप मनुष्य दुर्बल एवं हेय बना रहता है। यदि इन देवों को जगाया जा सके- उपयोग किया जा सके, तो तो मनुष्य असामान्य सामर्थ्य का स्वामी बन सकता है। शरीरगत पाँच तत्वों को पंचदेवों का उल्लेख निम्न प्रकार मिलता है-

आकाशस्यधिपो विष्णुरग्नेश्चैव महेश्वरी। वायोः सूर्यः क्षितेरीशो जीवनस्य गणाधिपः॥ (कपिल तन्त्र)

आकाश के अधिपति विष्णु हैं। अग्नि की अधिपति महेश्वरी शक्ति है। वायु के अधिपति सूर्य हैं। पृथ्वी के स्वामी शिव हैं और जल के अधिपति गणेश हैं। इस प्रकार पाँच देव शरीर की ही अधिपति सत्ताएँ हैं।

यदा कुण्डलिनी शक्तिराविर्भवति साधके। तदा स पंच कोशे मत्तेजोऽनुभवति ध्रुवम्। (महायोग विज्ञान)

जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो साधक के पांचों कोश ज्योर्तिमय हो उठते हैं।

पंचकोशों के स्वरूप एवं प्रकृति का परिचय देते हुए उपनिषद्कार कहते हैं-

अन्न कार्याणां कोशानां समूहोऽन्नमय कोश इत्युच्यते।

प्राणादि चतुर्दश वायुभेदा अन्न्मयकोशो यदा वर्तन्ते तदा प्राणमय कोश इत्युच्यते। एतत्कोशचतुष्टयसंसक्त स्वाकारणाज्ञाने वटकणिकायमिववृक्षो यदा वर्तते तदा आनन्द मय कोश इत्युच्यते। -सर्व सारोपनिषद्

अन्न के द्वारा उत्पन्न होने वाले कोशों के समूह (इस प्रत्यक्ष शरीर) को अन्नमय कोश कहते हैं। प्राण सहित चौदह तत्वों का समूह प्राणमय कोश कहलाता है। इन दो कोशों के भीतर इन्द्रियों तथा मन का समूह मनोमय कोश कहा जाता है। बुद्धि एवं विवेक वाली भूमिका विज्ञानमय कोश की है। इन सब कलेवरों के भीतर आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप और स्थान आनन्दमय कोश कहलाता है।

इन पंचकोशों का वर्णन शास्त्रों में अनेकों प्रकार से हुआ है।

पंचस्रोतोऽम्बुं पंचयोन्युग्रवक्रां। पंचप्राणोमिं पंचबुद्धयादिमूलाम्॥ पंचावर्ता पंचदुःखोघ वेगा। पंचाशद्भेदां पंचपर्वाम धीमः॥ -श्वेताश्वतरोपनिषद् 1। 5

हम, पचास भेदों वाली, एक ऐसी नदी को देख रहे हैं, जो पाँच भंवरों वाली, पाँच घोर प्रवाह वाली पाँच स्रोतों से प्राप्त जल वाली, पाँच स्थानों से उत्पन्न, पाँच प्राण- उर्मियों वाली टेढ़े-तिरछे प्रवाह वाली तथा पंच ज्ञान रूप मन के मूल वाली है।

योग वाशिष्ठ में ईश्वर प्राप्ति का साधन बताया गया है। उपनिषद्कार कहते हैं कि- आत्म साक्षात्कार के लिए पंचकोशों का अनावरण आवश्यक है। इन द्वारों के खुलने पर ही आत्म-साक्षात्कार एवं ब्रह्म साक्षात्कार सम्भव है।

गुहाहितं ब्रह्म यत्तत्पचं कोश विवेकतः। बोद्धु शक्यततः कोश पंचक प्रविविच्यते।।

ब्रह्म पंचकोशों के भीतर गुहा में विराजमान है। उस तक पहुँचने के लिए पंचकोशों का विज्ञान जानना आवश्यक है।

अन्नमय कोश स्थूल है तथा चेतना का प्रथम आवरण है। शरीर- भोजन जल एवं वायु पर जीवित रहता है। इसलिए इस कोश को भोजन कोश भी कहते हैं। अहार विहार से लेकर तप-तितीक्षा की साधनाओं द्वारा इसे परिष्कृत-परिशोधित किया जाता है। सविता-ध्यान के माध्यम के महाप्राण का अवतरण कर इस केन्द्र को जगाया जा सकता है।

प्राणमय कोश को जीवन सता का केन्द्र बिन्दु समझा जा सकता है। प्राण की सामान्य माया द्वारा दैनिक व्यापार चलता है। यह कोश सुषुप्तावस्था में पड़ा रहता है। कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया में इसे जागृत करने का प्रयत्न किया जाता है। अन्नमय शरीर में परिव्याप्त प्राण शरीर ही भौतिक शरीर के अस्तित्व को कायम रखता है। प्राणमय कोश में प्राण प्रकाश तथा ऊर्जा के रूप में यह जलती हुई उस अग्नि लौ के समान है जो कम-अधिक होती हुई अंततः बुझ जाती है। प्राणमय कोश में सविता के प्राण अनुसन्धान साधना द्वारा जगाने पर विभिन्न प्रकार की अनुभूतियां होती हैं। प्राणमय कोश प्रकाश पुंज के रूप में जगमगाता हुआ दीखता है।

मनोमय कोश प्राणमय से भी अधिक सूक्ष्म है। शरीर की समस्त गतिविधियाँ मन द्वारा ही संचालित हैं। जन्म जन्मांतरों के संचित संस्कार- संचित होते तथा भली-बुरी आदतों के रूप में प्रकट होते हैं। इच्छा, विचारणा संकल्प यहीं से उठते हैं। सविता ध्यान के द्वारा उन्हें परिशोधित एवं जागृत किया जा सकता है।

विज्ञानमय कोश मनोमय से भी अधिक सूक्ष्म है। यह अपने गर्भ में सृष्टि के समस्त रहस्यों को छिपाये हुए हैं। कुण्डलिनी की प्राणानुसन्धान प्रक्रिया द्वारा जागृत होने पर साधक को अनेकों प्रकार की दिव्य अनुभूतियां होती हैं। सृष्टि के रहस्यों का उद्घाटन होता है, अविज्ञात रहस्य भी ऐसे दृष्टिगोचर होने लगते हैं, जैसे सामने घटित हो रहे हैं।

अन्तिम कोश वह स्थान है जहाँ आत्मा निवास करती है। आत्म साक्षात्कार ब्रह्म साक्षात्कार का केन्द्र बिंदु यही है। जीव को अपने सत्-चित्-आनन्द स्वरूप का दिग्दर्शन यहीं होता है। यह आत्मा और परमात्मा का मिलन स्थल है।

इन पाँचों कोशों की एक से बढ़कर एक सिद्धियां हैं। गायत्री की उच्चस्तरीय-पंचकोशी साधना द्वारा इन पांचों कोशों का अनावरण सम्भव है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles