वास्तविक प्रगति आकाँक्षाओं के परिष्कार पर निर्भर

January 1983

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मानवी सत्ता और उसका वास्तविक पर्यवेक्षण करते हुए दो प्रसंग सामने आते हैं। एक चेतना पक्ष का ऊँचा उठना, दूसरा काया वैभव का आगे बढ़ना। ऊंचा उठने से तात्पर्य है- चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का अभिवर्धन। आगे बढ़ने का अर्थ है- समर्थता और सम्पदा का उपार्जन उपयोग। दोनों के समन्वय से जीवन की दिशाधारा बनती है। मान्यताओं, आकाँक्षाओं का स्तर श्रेष्ठ या निकृष्ट होना व्यक्ति का अपना चुनाव है। जो जिसे वरण करेगा वह उस दिशा में अग्रसर अवश्य होगा। जिनकी गति धीमी होती है उनकी आलसी, प्रमादी आदि नामों से भर्त्सना की जाती है। ऐसे ही लोग पिछड़े वर्ग में गिने जाते हैं और अभाव, उपहास के भाजन बनते हैं। जिनकी दिशाधारा सही होती है वे वैभव, सम्मान पाते और श्रेय संतोष के अधिकारी बनते हैं। यह समस्त उपलब्धियाँ उस आकाँक्षा तत्व की हैं जो न्यूनाधिक मात्रा में सभी में पाई जाती हैं। गति मंद भले ही हो, पर सभी मनुष्य को आगे बढ़ने एवं ऊँचा उठने के उपक्रम में संलग्न पाया जाता है।

दोनों का सन्तुलन ठीक बना रहे तो जीवन का स्वरूप हर दृष्टि से सफल सराहनीय बनता है। गड़बड़ी तब पड़ती है जब एक पक्षीय असंतुलन उत्पन्न करने वाले अतिवाद को अपनाया जाता है। वैभववान् बनने की अतिवादी उमंगें तृष्णा कहलाती हैं। उसके प्रदर्शन की आतुरता अहंता में परिणत होती है। उपलब्धियों के अवाँछनीय उपभोग की ललक को वासना के नाम से जाना जाता है। शरीरगत आकाँक्षा बढ़ने की, वैभववान् बनने की होती है और आत्मिक अभिलाषा ऊँचा उठने की। दोनों को साथ-साथ लेकर चलने से सन्तुलन ठीक बना रहता है और प्रगति रथ बिना किसी व्यवधान के हँसते-हँसाते चलता रहता है। सभी जानते हैं कि 'बैलेन्स' बिगड़ने पर वाहन, भवन, यंत्र सभी लड़खड़ाने और धराशायी होने लगते हैं। ग्रह-नक्षत्रों से लेकर पैरों चलने तक में यह 'बैलेन्स' ही गतिशीलता का आधार-भूत तथ्य है। इसे बिगाड़ने में मनुष्य की आतुरता एवं अदूरदर्शिता का अतिवादी दृष्टिकोण ही बाधक होता है। यदि उस बालबुद्धि पर अंकुश रखा जा सके और संतुलन बिठाते हुए जीवनचर्या की दिशाधारा निर्धारित की जा सके तो फिर सुनियोजित समग्र प्रगतिशीलता का लाभ मिलना सुनिश्चित है।

प्रगति की आकाँक्षा स्वाभाविक भी है और उचित उपयोगी भी। उसमें व्यक्ति का निजी लाभ भी है और समाज का समग्र हित साधन भी। ‘इच्छा का त्याग’ वाली उक्ति जिन अध्यात्मिक ग्रन्थों में पाई जाती है वहाँ उसका प्रयोजन प्रतिफल की आतुरता का परित्याग करने भर से है। शब्दावली में जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है उससे किसी भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। बुरे कामों के परिणाम तो तत्काल भी मिल जाते हैं पर भले कामों का उपयुक्त प्रतिफल मिलने में क्षमता एवं पुरुषार्थ की, निर्धारण एवं साधन की परिस्थितिजन्य अनुकूलता की कमी रहने पर अभीष्ट सत्परिणामों की मात्रा तथा अवधि में व्यतिरेक हो सकता है। ऐसी दशा में कर्त्ता को जो खोज, निराशा एवं अनास्था उत्पन्न होती है उसी की रोकथाम के के लिए यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है कि सत्कर्म से मिलने वाले सन्तोष एवं सन्मार्ग पर चलने के गौरव को ही पर्याप्त प्रतिफल मान लिया जाय और समयानुसार जब भी सत्परिणाम उपलब्ध हो, तब उसे अतिरिक्त उपहार भर माना जाय। इस मान्यता को अपनाने से सन्तुलन बना रहता है और मार्ग से विचलित होने में उद्विग्नताजन्य अवरोध बाधक नहीं बन पाता।

सभी जानते हैं कि दूध को दही बनने में कुछ समय लगता है। हथेली पर सरसों नहीं जमती। बीज बोने और फसल कटने का मध्यान्तर रहेगा ही। विद्यारम्भ करने और पारंगत बनने में अभ्यास की लम्बी अवधि पार करनी होती है। व्यायामशाला में प्रवेश करते ही कौन पहलवान बना है। कारखाना लगने के दिन ही धन कुबेर बन जाना कहाँ सम्भव होता है? सत्प्रयोजनों से निरत होने और उसकी सुखद परिणति तक पहुँचने में समय भी लगता है और मध्यवर्ती व्यवधानों से भी पाला पड़ता है। इन्हीं अवरोधों में अधिकाँश सन्मार्गगामी अपना धैर्य खोते, साहस गँवाते और श्रद्धा का समापन करते देखे गये हैं। इस दुर्घटना से बचने के लिए ही इस प्रतिपादन को उजागर किया गया है कि फलाशा छोड़कर निष्काम कर्म किया जाय। यह एक 'अवरोध-निवारण' भर है। शाश्वत सिद्धान्त नहीं।

व्यवहारतः इसका क्रियान्वयन किसी भी प्रकार संभव नहीं। परिणाम का विचार करने के लिए ही तो तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण, मनन, चिन्तन आदि की समूची बौद्धिक कसरत की जाती है। उस पर विचार करने की बात छोड़ देने पर तो दिशाधारा का निर्धारण तक संभव न हो सकेगा और कुछ करने का झंझट उठाने की इच्छा ही न उभरेगी। तब मनुष्य जड़भरत, परमहंस, अवधूत आदि कुछ भी क्यों न हो जाय, प्रगतिशील मनुष्य-समुदाय की बिरादरी से हटकर किसी कल्पना लोक का निवासी भर बनकर रह जाएगा। यह मानवी सत्ता की संरचना को देखते हुए किसी भी प्रकार शक्य नहीं है।

सन्तजन तक स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि शान्ति, आत्मकल्याण, परमार्थ, ईश्वर साक्षात्कार, ब्रह्म-निर्वाण आदि की उत्कट अभिलाषा से प्रेरित होकर ही योग, तप, व्रत, संयम जैसे कष्टसाध्य प्रयास करने का साहस जुटा पाते हैं। फलाशा छोड़ देने पर तो शरीर यात्रा तक के साधन जुटाने तक का उत्साह न उठेगा और ऐसे ही अपंग आलसी बना बेमौत मरने की तैयारी करेगा। अस्तु, किसी को भी 'निष्काम कर्म' का वैसा उल्टा अर्थ नहीं लगाना चाहिए जैसा कि इन दिनों अनेकों दिग्भ्रान्त लोग लगाते देखे जाते हैं।

सृष्टि के आदि में सृष्टा ने इच्छा की कि "मैं एक से अनेक बन जाऊँ और अपने अनेक रूपों के साथ रमण की क्रीड़ा-कल्लोल में निरत रहूँ।" यह इच्छा ही परा और अपरा प्रकृति के रूप में प्रादुर्भूत हुई और सृष्टि क्रम चल पड़ा। प्राणियों में यह इच्छा प्रगति की अभिलाषा के रूप में पाई जाती है और पदार्थों में गतिशील रहने का पराक्रम अनुशासन बनकर रहती है। गति इसी का नाम है। यही सुनियोजित होने पर प्रगति कहलाती है। उद्भव, परिष्कार और परिवर्तन का नियतिचक्र इसी धुरी पर घूमता है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र इसी गोलाकार परिभ्रमण का नाम है। ब्रह्माण्ड के सभी छोटे-बड़े क्रियाकलाप इसी दैवी निर्धारण अनुशासन के अंतर्गत चल रहे हैं।

इन पंक्तियों में चर्चा यह की जा रही है कि 'आकांक्षा' मानवी सत्ता का मूलभूत प्रेरक तत्त्व है। इसी के आधार पर दिशाधारा निर्धारित होती और गति-विधियाँ चल पड़ती हैं। उत्थान-पतन के दोनों ही मार्ग इसी के एक उद्गम केन्द्र से आरम्भ होते हैं। अस्तु आत्मसत्ता एवं जीवनचर्या को भटकाव एवं पतन-पराभव से बचाने के लिए यह आवश्यक है कि आकाँक्षा को भ्रमित न होने दिया जाय और उसे इसी मार्ग पर गतिशील रहने दिया जाये जिसे संतुलित प्रगति का सुनिश्चित राजमार्ग समझा जाता रहा है। जंक्शन पर एक लाइन पर खड़ी गाड़ियाँ लीवर गिराने और पटरियाँ इधर-उधर हटाने के प्रक्रिया भर से दिशा बदल देती हैं। एक पूर्व को चलती है, दूसरी पश्चिम को। कुछ समय चलते रहने पर दोनों के बीच आश्चर्यजनक दूरी उत्पन्न हो जाती है। ठीक यही बात आकाँक्षाओं के प्रवाह का मोड़-मरोड़ उत्पन्न होने के सम्बन्ध में है। पहाड़ के शिखर पर बरसने वाला पानी एक इंच इधर, एक इंच उधर होने भर से दिशा बदल देता है और बहते-बहते एक का अंत एक नदी समुद्र में होता है और दूसरे का अन्त दूसरे समुद्र में होता है। यह एक इंच की दूरी ही आकाँक्षाओं के सम्बन्ध में भी लागू होती है। एक प्रकार के महत्वाकांक्षी जीवन प्रवाह को एक दिशा में बहाते एक परिणाम पर पहुँचते हैं जबकि दूसरे अपनी रीति-नीति दूसरी बनाते और उसी स्तर की सफलताएँ पाते हैं।

इस तथ्य को समझ लेने के उपरान्त हर विचारशील को यह निर्धारण करना होगा कि वह अपने लक्ष्य का निर्धारण करे और गन्तव्य के सम्बन्ध में किसी सुनिश्चित निष्कर्ष पर पहुँचे। बुद्धिमत्ता इस में है कि शरीरगत और चेतनागत आकाँक्षा अभिलाषा के बीच तालमेल बिठाया जाय और जिसकी जितनी उपयोगिता आवश्यकता है उसके अनुरूप उसे पोषण दिया जाय। काया की सत्ता, चेतना के वाहन उपकरण जितनी है। इसलिए औचित्य इसी में है कि आत्मा के उत्कर्ष में जिस देवपक्ष की प्रमुखता है उसे प्राथमिकता दी जाय और शरीर को इस अनुपात का परिपोषण दिया जाय जिससे वह निर्वाह सुविधाओं से सुसंपन्न बना रहे। इस सन्तुलन को बिठा लेने पर समग्र प्रगति की रूपरेखा बना लेने और उस मार्ग पर सफलता पूर्वक प्रयाण करने का कार्यक्रम बना लेना कुछ भी कठिन नहीं रह जाता।

प्रगति के लिए प्रेरणा देने वाली आकाँक्षा जीव-सत्ता के साथ अनादिकाल से जुड़ी हुई है और अनन्तकाल तक जुड़ी रहेगी। उसे उपयुक्त दिशा देना ही मानवी बुद्धिमत्ता का चरम कौशल है। इसी को परम पुरुषार्थ कहते हैं। आत्म निरीक्षण, आत्मनिर्माण, आत्म सुधार, आत्म विकास के नाम से जिस आत्मोत्कर्ष एवं आत्मकल्याण का ऊहापोह होता रहता है, उसमें करने योग्य पराक्रम एक ही है कि आकाँक्षाओं को चेतना को सुसंस्कृत बनाने वाली उत्कृष्टता अपनाने के लिए बाधित करने वाली मान्यताओं से जकड़ दिया जाय। इन मान्यताओं को ही श्रद्धा कहते हैं। गीतकार का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “आत्मा का स्वरूप श्रद्धामय है, जो जैसी श्रद्धा रखता है वह वैसा ही बन जाता है।”

प्रकृति प्रदत्त आकाँक्षाएँ शरीर पर छायी रहती हैं और भूख, प्रजनन, अस्तित्व रक्षा के रूप में तृष्णा, वासना अहंता के विविध रूपों में प्रकट परिलक्षित होती रहती हैं। यह सामान्य प्रवाह की बात हुई जिसे समस्त जीवधारी अपनाते और सृष्टा का गतिचक्र चलाते रहने के लिए विभिन्न प्रकार की चेष्टाएँ करते हुए जीवनलीला समाप्त करते हैं। इससे आगे का पक्ष वह है जिसे आत्मा या चेतना को उच्चस्तरीय प्रगति की ओर ले चलने वाला निर्धारण कह सकते हैं। इससे दैवी प्रवाह को अपनाना पड़ता है। आस्थाओं को आस्तिकता के साथ, बुद्धि को आध्यात्मिकता के साथ और पौरुष को धार्मिकता के साथ नियोजित करना पड़ता है। यही अध्यात्म दर्शन एवं साधनाक्रम का सारभूत सिद्धान्त है। आत्म की, चेतना की प्रगति इसी पर निर्भर है।

उपरोक्त कथन प्रतिपादन से इस प्रतिपादन पर पहुँचना चाहिए कि जीवसत्ता की मूलभूत प्रवृत्ति आकाँक्षा के वर्तमान स्वरूप का पर्यवेक्षण किया जाय और देखा जाय कि वह शरीर को आगे बढ़ने और आत्मा के ऊँचे उठने की प्रवृत्ति को साथ-साथ लेकर चल रही है या नहीं। दोनों के बीच असन्तुलन तो नहीं बन रहा है। असन्तुलन ही प्रगति, अवगति या दुर्गति की बनता देखा जाता है।

मनुष्य यदि सचमुच ही बुद्धिमान हो तो उसे समग्र प्रगति का दूरदर्शी निर्धारण करना चाहिए। यदि वह इतना कर सके तो समझना चाहिए कि वास्तविक ज्ञान चेतना का वह अधिष्ठाता अधिपति हो गया। उस सम्पदा का सही उपयोग जो भी कर सका है वह प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचा है और हर दृष्टि से कृतकृत्य बना है। हमें प्रगति और अवगति के अन्तर को समझना चाहिए और अपनी वर्तमान परिस्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए औचित्य का, अनौचित्य का विवेक सम्मत पर्यवेक्षण करना चाहिए। आत्मोत्कर्ष की परम श्रेयस्कर आकाँक्षा को सुनियोजित करने में ही व्यक्ति का अभ्युदय और समाज का कल्याण है। जो इतना समझने, स्वीकारने में समर्थ हो सकेगा उसका भविष्य सुनिश्चित रूप से उज्ज्वल बनकर रहेगा।


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