अपनों से अपनी बात - वह जो प्राणवानों को इन्हीं दिनों करना है।

January 1983

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बसन्त पर्व की इस पुण्य बेला में महत् सता की और से यह विशिष्ट प्रेरणा उभरी है कि युग धर्म के निर्वाह को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी एवं चुनौती समझने वाले प्रत्येक नैष्ठिक परिजन को एक स्वाध्याय मण्डल का सृजेता, संस्थापक एवं संचालक बनना है। इस पुण्य संकल्प की सम्भावनाएं अद्भुत एवं अनुपम है। बसन्त पर्व सूत्र संचालक का आध्यात्मिक जन्म दिवस है। इस वर्ष बसन्त पंचमी का पर्व 19 जनवरी बुधवार को पड़ता है इस वर्ष के लिये उनका यह विशेष सन्देश अपने हर प्राणवान परिजन के नाम व्यक्तिगत रूप से इन पंक्तियों द्वारा भेजा जा रहा है। लोक मानस के परिष्कार का इस अभियान के अनेकानेक महत्वपूर्ण कदम संकल्प लेकर चलने वाले इसी उल्लास भरे पर्व की बेला में उठे हैं। प्रस्तुत प्रेरणा को भी उसी शृंखला की एक कड़ी माना जाय एवं अपने संकल्प को और अधिक प्रखर बनाते हुए एक कदम और आगे बढ़ाया जाय।

प्रस्तुत विभीषिकाओं से जूझने और उज्ज्वल भविष्य की सृजन साधना में जुटने के लिए जागृत आत्माओं को अग्रिम मोर्चे पर खड़ा होना ही पड़ेगा। बाद में तो रेल मोटरों के पीछे-पीछे रेत और कूड़ा भी दौड़ते देखा गया है। बात आगे चलने की है। प्रभात बेला में सूर्य निकलता है तो सब ओर चहल-पहल मचने लगती है। जिम्मेदार लोग तो न केवल समय से पहले स्वयं उठ पड़ते हैं वरन् दूसरों को भी जगाने उठाने में कुक्कुट की तरह बाग लगाते और पहल करते हैं। किन्तु उनींदे और आलसी भी जब सब ओर उठने खड़े होने का कार्य में संलग्न होने का माहौल देखते हैं तो इच्छा या अनिच्छा से बिस्तर छोड़ते, नित्य कर्म करते और निर्धारित काम में हाथ डालते देखे जाते हैं। यह सारा श्रेय जागरण पर्व की पहल करने वाले दिनकर की है। यदि उसने आलस बरता होता तो फिर सम्भव है रात का पलायन और लम्बा हो जाता। निशाचरों की तूती और भी देर तक बोलती रहती। अच्छा है कि जिन्हें उत्तरदायित्वों का भान है वे कठिनाइयों की बात नहीं सोचते वरन् परिस्थितियों का दबाव अस्वीकार करते हुए कर्तव्य की पुकार सुनते हैं और चुनौती स्वीकार करने में बगलें नहीं झाँकते।

बादल उमड़ते हैं तो मोर नाचते हैं, पपीहा बोलते देखे गये हैं। यहाँ तक कि मेंढक तक टर्राने में किसी से पीछे नहीं रहते। पावस के अनुदान धरती पर उतरते देर नहीं लगती कि देवता दूब का मखमली फर्श धरातल के कौने-कौने में बिछा देते हैं। उद्विजों की उपज कितनी द्रुतगति से होती है इसे देखकर आश्चर्य होता है। धान रोपने में किसानों और पौधे लगाने में मालियों का उत्साह देखते ही बनता है। युद्ध मोर्चे पर जो नायकों के घोड़े हिनहिनाते हैं तो पिछली पंक्ति में खड़े हुए सैनिकों के भी भुज दण्ड फरकते हैं। यह अग्रगामियों का भी यशगान है। संसार में जो कुछ भी- जहाँ कहीं भी- महत्वपूर्ण घटित, विनिर्मित हुआ है उसका अधिकाँश श्रेय अग्रगामियों के हिस्से में आता है। यों पहाड़ काटने में छैनी हथौड़े तो अनेकों के चलते हैं और लम्बे समय तक खटकते हैं। गोवर्धन एक ने उठाया तो लाठी का टेका लगाने वालों की भीड़ भी दौड़ पड़ी। बुद्ध और गाँधी के आंदोलनों में यही चमत्कार आँखों के आगे देखा जा चुका है।

युग परिवर्तन के इस प्रभात पर्व में जागृत आत्माओं की भूमिका ठीक उषा काल जैसी होनी चाहिये, जिससे असंख्यों की प्रेरणा मिले और माहौल बदले। प्रज्ञा परिजनों में से जिनकी मनःस्थिति एवं परिस्थिति उलझी हुई है और उन्हें भी इन दिनों केवट, शवरी, गिलहरी जितना तो कुछ करना ही होगा। हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने में तो उनकी भी गति नहीं। इन ऐतिहासिक क्षणों में जो पेट प्रजनन की ही दुहाई देते रहेंगे और व्यस्तता अभाव ग्रस्तता की कहानी कहते रहेंगे, वे घाटे ही घाटे में रहेंगे। कृपणताजन्य दरिद्रता तो उन पर छाई ही रहेगी, वह सुयोग बेला भी हाथ से निकल जायगी जिसमें वे सुदामा के तंदुल प्रस्तुत करके असंख्य गुना पाने का सौभाग्य उपलब्ध कर सकते थे। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सामान्य स्थिति के प्रज्ञा परिजनों को कहा गया है कि वे न्यूनतम कार्यक्रम के रूप में स्वाध्याय मण्डलों की स्थापना करने छोटे-छोटे प्रज्ञा परिवार चलाने जितना उत्तरदायित्व तो ओढ़े हैं। इस सरलतम सृजन प्रक्रिया में हर स्तर का व्यक्ति सहगामी बन सकता है। उसमें जोखिम तनिक भी नहीं। लाभ इतना जिसका सत्परिणाम हाथों हाथ देखा जा सकता है।

समझा जाना चाहिए कि ढाई हजार वर्ष पूर्व बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन का उत्तरार्ध ही प्रज्ञा अभिमान है। इसमें “बुद्ध शरणं गच्छामि”, “धर्म शरणं गच्छामि”, “संघं शरणं गच्छामि” के तीनों ये सूत्र बौद्धिक कर्म, नैतिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति के रूप में सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप मुखर एवं प्रखर हुए हैं।

एक-एक कदम बढ़ाते हुए युगान्तरीय चेतना ने बीज से बढ़कर अब वृक्ष का रूप धारण किया है। विद्यार्थी एक वर्ष एक कक्षा उत्तीर्ण करते हुए बाल कक्षा से स्नातकोत्तर बनता है। यही क्रम प्रज्ञा अभियान ने भी अपनाया है। बसन्त पर्व उसका जन्म दिवसोत्सव है। इस पुनीत अवसर पर हर वर्ष अंतरिक्ष में उस पर दिव्य अनुग्रहों की पुष्प वर्षा हुई है। साथ ही एक से एक बड़ा साहसिक कदम भी उठा है। मिशन का प्रगति इतिहास में एक-एक नया अध्याय जुड़ता चला आया है। एक का समापन और दूसरे का शुभारम्भ इसी मुहूर्त में होता रहा है। अस्तु न केवल मिशन का वरन् उसके सूत्र संचालक का जन्म दिन भी बसन्त पर्व पर ही मनता रहा है। अब प्रत्येक प्राणवान प्रज्ञा परिजन का जन्म दिन भी वही है। हृदय और मस्तिष्क जिस दिन जन्मे उसी दिन हाथ पैरों का प्रादुर्भाव भी माना जायगा।

प्रज्ञा परिजन जन्म जन्मांतरों से इस शृंखला में बँधे चले आते हैं। भले ही उनके मन में उल्लास या उपेक्षा के उतार चढ़ाव आते हों, पर यह निश्चित है कि नौका यदि बीच में ही न डूबी तो सभी एक साथ पार लगेंगे और युग अवतरण की भूमिका एक सुगठित सैन्य दल के घटकों की तरह सभी समान श्रेय प्राप्त करेंगे।

नव सृजन के लक्ष्य तक बिना समय गंवाये हर वर्ष एक साहसिक कदम उठाने की अपनी परम्परा रही है। अब तक जो बन पड़ा सर्वविदित है। जो युग संधि की प्रस्तुत चुनौती स्वीकार करते हुए किया जाना है, उस पर हम सबका ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। इस दृष्टि से सन् 83 का बसन्त पर्व ऐसा होना चाहिए जिसे अभूतपूर्व एवं ऐतिहासिक कहा जा सके।

इस बसन्त पर्व पर एक ही दिव्य प्रेरणा उतरी है कि प्रत्येक प्राणवान परिजन को एक स्वाध्याय मण्डल का सृजेता संस्थापक एवं संचालक होना चाहिए। यह देखने में अति सरल और परखने में नगण्य सा काम है किन्तु इसकी दूरगामी सम्भावना और परिणति पर विचार करते ही यह तथ्य उजागर हुए बिना नहीं रहता कि यह असाधारण, अद्भुत, एवं अनुपम प्रयास है। जिस विचार क्रान्ति को युग धर्म माना गया है और जिस आधार पर लोकमानस के परिष्कार का स्वप्न देखा गया है उसकी समग्र सम्भावना एवं बीजारोपण में सुनिश्चित रूप से सन्निहित है।

हममें से कोई ऐसा नहीं जिसकी चार विज्ञजनों से घनिष्ठता न हो। इनमें से एक भी ऐसा नहीं होगा जो एक घंटा समय और एक मुट्ठी अन्न का प्रतिदिन अनुदान ऐसे महत्वपूर्ण प्रयास के लिए न निकाल सके, जिस पर समूचा मानवी भविष्य निर्भर है। प्रज्ञा परिवार की नैष्ठिक सदस्यता के लिए न्यूनतम शर्त प्रत्येक ईमानदार परिजन को अनिवार्यतः निभानी होती है। इस संदर्भ में बरती जाने वाली शिथिलता को दूर करने भर से किसी को प्रज्ञा परिजन कहलाने का गौरव और श्रेय मिलता है। ऐसे चार व्यक्ति ढूंढ़ निकालना किसी भी लगनशील व्यक्ति के लिए कठिन नहीं हो सकता है। एक संकल्पवान चार साथी और तलाश करके पाँच का नैष्ठिक युनिट बने। यह पांचों सदस्य नित्य नियमित रूप से स्वयं प्रज्ञा साहित्य का स्वाध्याय करे और साथ ही अपने पड़ोस परिवार के पाँच-पाँच अन्य शिक्षितों को यही चस्का लगाये। उन्हें हर दिन, नियमित रूप से बिना मूल्य साहित्य देने और वापस लेने का सिलसिला चलाने लगें तो देखते-देखते तीस सदस्यों का एक सुदृढ़ प्रज्ञा परिवार गठित हो जायेगा।

इस प्रेरणा से जो भी अनुप्राणित होंगे- आत्म निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण की दिशा में छोटे-बड़े कदम उठाये बिना रहेंगे नहीं। फलतः उन स्वप्नों के साकार होने का उपक्रम एक छोटी परिधि में सुनिश्चित रूप से चल पड़ेगा। संयुक्त प्रयत्नों में एक-दूसरे को प्रोत्साहन मिलता है और वर्षा की बूंदें देखते-देखते उफनते नाले की तरह बह निकलती हैं।

विचारशीलों की एक मित्र मण्डली का गठन- उस समुदाय में पारस्परिक घनिष्ठता का संवर्धन, मात्र के लाभों को एक बड़ी उपलब्धि समझा जा सकता है। इन दिनों हर व्यक्ति अपने आप को अकेला अनुभव करता है। स्वार्थ सिद्धि के लिए तो गिद्ध, कुत्ते तक मुर्दों का माँस नोचने आ जाते हैं। अवारा कुत्ते झुण्ड बनाकर गली कूची में मारे-मारे फिरते हैं। चोर तस्करी की चाण्डाल चौकड़ियाँ किन्हीं कोतरों में बैठकर षडयन्त्र रचती रहती हैं। वे परस्पर घनिष्ठ कहाँ होते हैं। स्वार्थों की खींचतान में वे परस्पर सिर फोड़ते और एक दूसरे की जान के ग्राहक होते देखे गये हैं। नीबू चूसने के उपरान्त छिलके कूड़ेदान में ही पटके जाते हैं उनकी साज सम्भाल फिर कौन करता है। आज की तथाकथित ‘यार बासी’ न इससे कम है न जादा। ऐसी दशा में उस मैत्री के लिए आत्मा तरसती ही रह जाती है जो सज्जनों के उद्देश्यपूर्ण कार्यों के माध्यम से ही पकड़ में आती है। उच्चस्तरीय मैत्री हर पक्ष को ऊंचा उठाती, आगे बढ़ाती और विपत्ति में कारगर सहयोगी सिद्ध होती है। एकाकी पाकर हर किसी का हमला करने को मन करता है, पर किसी के साथ समुदाय हो तो फिर समर्थ आक्रांता को भी हजार बार सोचना पड़ता है। दुःख बँटाने और सुख बाँटने में सज्जनों का समुदाय ही समर्थ रहता है। वैसा सुयोग जिन्हें मिले उन्हें भाग्यवान ही कहा जायगा। स्वाध्याय मंडल चलाने का यह लाभ प्रत्यक्ष है। इसके उपरान्त सत्प्रवृत्ति संवर्धन का कार्य इतना महान है जिसे उच्चस्तरीय कहे जाने वाले पुण्य परमार्थों से किसी से भी कम महत्व का नहीं समझा जा सकता है।

आस्था संकट ही आज की समस्त समस्याओं और विपदाओं का आधारभूत कारण है। उससे निपटने के लिए जो भी प्रयत्न चलेंगे उन्हें दुर्घटनाग्रस्तों के सहायता के लिए करुणा भरे परमार्थाय की श्रेणी में ही गिना जायगा। उज्ज्वल भविष्य की सृजन सम्भावना का आधार एक ही है- सत्प्रवृत्ति संवर्धन। इसके लिए लोक मानस का परिष्कार ही वह उपाय है जिसके सहारे इस मार्ग पर प्रगति का रथ चक्र आगे बढ़ता है। इस महती संभावनाओं के बीजांकुर स्वाध्याय मण्डली के संचालन में मौजूद हैं। इस प्रक्रिया को कोई छोटा न समझे। उसका नन्हा-सा कलेवर देखकर उपहास न करे। जो वट बीज के आकार और फलित होने पर उसके विशाल आकार वाली बात जानते हैं कि मात्र दुष्टता ही छूत की बीमारी बन कर फैलती नहीं है। किसान द्वारा फैलाये गये एक टोकरी दाने उसके कोठी-कुठीले भी भरते हैं। उद्देश्यपूर्ण साहसिक और व्यक्तित्व सम्पन्नों द्वारा हाथ में लिये गये काम भी चन्दन वृक्ष की तरह महकते और वातावरण में मनमोहक सुवास से भरते हैं। जिनने स्वाध्याय मंडल योजना को गम्भीरतापूर्वक समझाने का प्रयत्न किया होगा। जिनने उस प्रयोग को हाथ में लिया, अग्रगामी बनाया ओर उसके लिए अनवरत प्रयत्न किया होगा उन्हें अनुभव हुआ होगा कि रीछ बानरों के स्वल्प प्रयास ने किस प्रकार सेतुबन्ध बंध और असुर दमन हुआ होगा।

स्वाध्याय मण्डली का यह शुभारंभ है। तीस की मंडली में जब स्लाइड प्रोजक्टरों के माध्यम से घर-घर प्रकाश चित्र प्रदर्शन और टेप रिकार्डरों के माध्यम से जन-जन का उद्बोधन क्रम चल पड़ता है। तो उस आधार पर युगान्तरीय चेतना को गगन चुम्बी बनने का अवसर मिलता है। सदस्यों के जन्म दिवसोत्सव उनके घरों पर मानते हैं तो एक अच्छी-खासी ज्ञान गोष्ठी सम्पन्न होती है और उस आधार पर आलोक वितरण करने में समर्थ वातावरण बनाता है। यही सदस्य मिलजुल कर खड़िया, गेरू से दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखने, घरों में उन्हें टाँगने के लिए निकलते हैं तो उस क्षेत्र में प्रगतिशीलता की उमंगें उफनती दृष्टिगोचर होती हैं।

यही है वह पंच सूत्री योजना जिसे विगत दो वर्षों में विनिर्मित 2400 निजी इमारतों वाले प्रज्ञापीठों ने अनिवार्य रूप से अपनाया और अपने क्षेत्रों को आलोकवान प्राणवान बनाया है। अब इस वर्ष बिना इमारतों वाले छोटे प्रज्ञा संस्थान स्वाध्याय मंडली के रूप में विनिर्मित किये जा रहे हैं। इन छोटे घटकों को ही अब सजीव प्रज्ञा परिवार कहा जायगा। उनके कार्यालय प्रज्ञा संस्थान कहे जा सकेंगे। इनकी संख्या इस वर्ष 24000 होती है। यह दूसरा कदम है। अर्थ साधन जुटा सकने वालों ने प्रज्ञापीठें बनाने में जिस पराक्रम का परिचय दिया है उसी का छोटा संस्करण उपरोक्त प्रज्ञा परिवारों के गठन को स्वाध्याय मंडल संस्थापन को समझा जायगा।

इन पंक्तियों में प्रज्ञा परिवार के प्रत्येक प्राणवान परिजनों को निजी प्रेरणा दी जा रही है कि वे मात्र पत्रिकाओं के पाठक न रहें। या तो स्वयं एक स्वाध्याय मण्डल गठित करें या फिर किसी अन्य के गठन प्रयास में सम्मिलित होकर रहें। एकाकी पाठक बने रहने भर से काम नहीं चलेगा। सृजन पर्व पर हममें से प्रत्येक का संगठन और सृजन प्रयास में भावभरा योगदान भी होना चाहिए। भले ही वह गिलहरी के श्रमदान एवं शबरी के अंशदान जितना स्वरूप ही क्यों न हो। इस संदर्भ में एक सुनिश्चित सामयिक एवं सरलतम प्रयास यही हो सकता है जिसके लिए प्रत्येक जागृत आत्मा से इन पंक्तियों में न केवल अनुरोध वरन् आग्रह भी किया जा रहा है। पाँच नैष्ठिक सदस्यों पीछे एक मण्डल गठित करने का निर्धारक के अनुसार एक स्थान में कई-कई मंडलों का गठन ही हो सकता है और उनके पृथक-पृथक संचालक हो सकते हैं। संचालक और नैष्ठिक सदस्यों की सूची शांतिकुंज भिजवानी चाहिए और ज्ञानघटों की राशि का साहित्य युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि मथुरा से मँगाना चाहिए।

पिछले वर्ष कितनी ही संसदों का गठन हुआ है। उनमें से कितनों ने ही अपने नामांकन कराये हैं। प्रज्ञा पुत्रों, वानप्रस्थों, परिव्राजकों के रूप में कितनों ने ही अपना पंजीकरण कराया है। प्रज्ञा पीठों के ट्रस्टी एवं सहयोगी भी कितने ही मूर्धन्य व्यक्ति रहे हैं। कार्यवाहकों का एक बड़ा समुदाय है। पत्रिकाओं को इकट्ठी एक जगह मांगने और वितरण करने वाले निष्ठावानों का भी एक बड़ा समुदाय है। उन्हें ‘वरिष्ठ’ अग्रगामी कह सकते हैं। इनमें से एक भी इस बार ऐसा न रहे जो अपने संपर्क क्षेत्र के सभी परिजनों के साथ इस प्रयोजन के लिए संपर्क न साधे। यह कार्य सुविधानुसार एक मुहल्ले बार गोष्ठियां बुलाकर या उनके घरों पर जाकर जो भी उपयुक्त हो करना चाहिए। पत्रिकाओं के पाठकों में से एक भी ऐसा नहीं रहना चाहिए जो इस बसन्त पर्व पर सर्वथा निष्क्रियता अपनाये रहे। हम सभी को इस बार स्वाध्याय मंडली के अंतर्गत न केवल संघबद्ध होना है वरन् उन्हें सुयोजित ढंग से चलाने-बढ़ाने के लिए भी सामर्थ्य भर प्रयत्न करना है।


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