विकासवाद की आधुनिक मान्यताओं के आधार पर यह समझा और समझाया जाता है कि पुरातन काल में सर्वत्र पिछड़ापन छाया था। प्रगति के पथ पर तो क्रमशः ही आगे बढ़ सकना सम्भव हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि पूर्वज हर क्षेत्र में पिछड़े हुए थे। प्रगति क्रमिक गति से हुई है। इसीलिए यह माना जाना चाहिए कि आज का मनुष्य ही विकास की सर्वोच्च सीढ़ी पर है।
यह प्रतिपादन आँशिक रूप से ही युक्ति-युक्त माना जा सकता है। हो सकता है आज का मनुष्य भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक सफलता प्राप्त कर सका हो और सुविधा सामग्री की दृष्टि से अधिक अच्छी स्थिति में हो। पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि प्राचीनकाल में भौतिक विज्ञान अथवा समाज विज्ञान की दृष्टि से पिछड़ापन छाया हुआ था। उपलब्ध प्रमाणों से स्पष्ट होता जा रहा है कि भूतकाल में भी विज्ञान की अनेक धारायें मनुष्य ने हस्तगत की थीं और ऐसे पराक्रम प्रस्तुत किये थे, जिन्हें देखकर आज के विज्ञान वेत्ता हतप्रभ से दाखते हैं। पुरातन काल में प्रगति के अगणित प्रमाण मिलते जा रहे हैं। साथ ही इस स्तर की उपलब्धियों की साक्षियाँ बढ़ती जा रही हैं, जिनके सम्बन्ध में यह प्रतीत नहीं होता कि उन दिनों की परिस्थितियों में अभिनय जैसे दीखने वाले कार्य किस प्रकार सम्भव बनाये गये होंगे।
अन्य सबूतों के अलावा ‘रेडियो कार्बन डेटिंग पद्धति’ से भी इस बात की पुष्टि हुई है कि मिश्र का गिजा स्थित यह पिरामिड ईसा पूर्व लगभग 2500 वर्ष पूर्व निर्मित हुआ था। चार्ल्स पियाजी स्मिथ ने उन्नीसवीं शताब्दी में जो व्याख्याएं प्रस्तुत की थीं उनमें से उसकी एक खोज यह भी थी कि यह बड़ा पिरामिड पूरे संसार के मध्य में स्थित है।
आज किसी को यह वास्तविकता नहीं मालूम है कि इतने बड़े-बड़े पत्थर (2 से 5 टन के) क्या मिट्टी के ढालू चढ़ावों पर धकेल कर चढ़ाये गये थे या इंजीनियरिंग उपकरणों द्वारा चढ़ाकर अपने स्थानों में रखे गये थे? पिरामिडों के निर्माताओं के सामने सबसे प्रथम चुनौती तो यह थी कि 13 एकड़ से कुछ अधिक के इतने बड़े क्षेत्र में उन्होंने पूरी तरह समतल नींव कैसे तैयार की होगी? इसके लिए परिष्कृत सुझाव आया है कि संभवतः पिरामिड के आधार तल (वर्गाकार) की पूरी परिधि पर मिट्टी का बँधान बना लिया गया और उसे अन्दर से पानी से भरा गया होगा। पानी की समतल सतह के ऊपर निकले टीले व ऊबड़-खाबड़ भागों को छीलकर खोदकर समतल बनाया गया होगा और पानी को धीरे-धीरे बाहर निकालते गये होंगे। इस तरह हम देखते हैं कि इस पिरामिड का आधार स्थूल आज इतना समतल है कि उसमें 10000 भाग में से 1 भाग की शुद्धता है। लगभग इतनी ही न्यूनतम शुद्धता- सूक्ष्मता हमारे आधुनिक निर्माण कार्यों में भी रहता है।
विलियम पेटर्सन कॉलेज न्यूजर्सी में प्राचीन इतिहास के प्रोफेसर डा. लिवियो स्टेशिनी द्वारा इस पिरामिड की गणितीय विशेषताओं का पुनर्परीक्षण किया गया था। डा. लिबियो स्टेशिनी के साथ पीटर टाम्पकिन्स ने पिरामिड निर्माण में सन्निहित अनेक उपलब्धियों को गिनाया है। उनके अनुसार सबसे बड़ा पिरामिड एक अत्यन्त सावधानी पूर्वक स्थापित, भूभाग का एक स्थिर निशान है। इस स्थिर बैंच मार्क से पृथ्वी के पूरे विशाल क्षेत्र का सर्वेक्षण किया जा सकता था जिसमें पृथ्वी की गोलाई का सन्तुलन करना भी शामिल था। इसी आधार पर पूरे विश्व का भव्य प्राचीन भूगोल मानचित्र तैयार किया गया था। यह एक आकाशीय बेधशाला थी, जिसमें तारा मण्डल के गोलार्ध का सूक्ष्म रूप से शुद्ध मानचित्र व चार्ट तैयार किये जा सकते थे।
किसी जमाने में चट्टानें ही मानवी निर्माणों का प्रमुख साधन सामग्री के रूप में प्रयुक्त होता था। उन दिनों धातुओं का आविष्कार नहीं हुआ था तो भी उपलब्ध साधन सामग्री का ऐसा आश्चर्यजनक उपयोग हुआ जिसे देखते हुये यह समझना अति कठिन पड़ता है कि इन भीमकाय चट्टानों को इधर से उधर ले जाने और उन्हें उपयुक्त उपकरणों के रूप में प्रयुक्त करने में किसी स्तर के विज्ञान कौशल एवं शक्ति स्रोत का उपयोग किया गया होगा। उसे किस प्रकार जुटाया गया होगा।
‘दी वर्ल्ड एटलस ऑफ मिस्ट्रीज’ पुस्तक में ब्रिटिश उपद्वीपों और ब्रिटानी भूभाग का चित्र दिया हुआ है। इन भूभागों में काले धब्बों से विभिन्न स्थलों पर बने पाषाणों के वृत्त, टीले और अन्य स्मारक दर्शाये गये हैं। इनमें मुख्य स्थान केलानिश, स्टेनेस ब्राडगर, क्लावा, न्यूगेंज, लांगमेग एण्ड हरडाटर्स, आरबरलो, स्टेन्टन ड्रयूरोलराइट स्टोन्स, एबवरी स्टोनहैन्ज और कारनाक आदि हैं।
ये खड़े हुये विशाल लम्बे पत्थर, मिट्टी के टीले और मुर्दा गाड़ने के प्रकोष्ठ, मनुष्य के सबसे प्राचीन और सबसे ज्यादा रहस्यमय स्मारक हैं। यूरोप के एटलाँटिक समुद्र तट की 2500 किलोमीटर की पट्टी में ये फैले हुये हैं। इस खोई हुई सभ्यता के उत्कर्ष की पराकाष्ठा स्टोनहैन्ज स्मारक के निर्माण में प्रतीत होती है। इनमें सबसे प्राचीन स्मारक इतने सुदूर प्राचीन काल का है, जो हैरानी में डालने वाला है।
इतने बड़े-बड़े पत्थरों के खण्डों को काटकर अलग करने और उन्हें घसीटकर लाने में इतनी शक्ति क्यों लगाई गयी? कुछ स्थलों पर तो उनको लगाने का निर्धारित स्थान कई मील दूर था। स्टोनहैन्ज में लगे नाले पत्थर तो वेल्स के प्रेसली पर्वतों से दो सौ किलोमीटर की दूरी से आये हैं। यद्यपि स्टोन हैन्ज प्रभावशाली हैं, पर कई अन्य स्थानों पर लगे अनेक पत्थर इनसे भी ज्यादा बड़े आकार के हैं। उत्तर फ्राँस के ब्रितानी क्षेत्र के लोक मेरियाकर में ‘ग्रेन्ड मेनहिर ब्राइज’ नामक विराट् आकार की एक दीर्घ लाट किसी समय 50 मीटर ऊँची खड़ी थी और उसका वजन 340 टन था।
कारनाक के निकट 3000 से भी अधिक पत्थर सीधी पंक्तिओं में जमे हुये इतने विस्तृत क्षेत्र में फैले हुये हैं कि जहाँ तक क्षितिज पर आँखें देख सकती हैं उससे भी आगे चले गये हैं और वास्तव में ये पत्थर इससे भी बड़ी विशाल ज्यामितीय आकृति में थे।
अभी-अभी जो एक तथ्य सामने आया है कि यदि इन स्थानों में वास्तव में कोई दिव्य शक्ति थी तो वह सावधानी पूर्वक खगोलीय (आकाशीय) पर्यवेक्षणों से किसी तरह प्राप्त की गयी थी। इस तथ्य का अध्ययन करने के लिए ज्ञानार्जन की एक नयी शाखा ‘नक्षत्रीय पुरातत्व शास्त्र का उदय हुआ है।
एलेक्जेण्डर थाम इसे ज्यामितीय उपलब्धि का चरमोत्कर्ष मानते हुये कहते हैं कि यह कुछ ऐसी बात है कि संसार भर के इतिहास में कभी भी कोई इंजीनियर इस उपलब्धि पर गर्व कर सकता था।
बाहर निकले हुये पत्थरों के निशानों व पहाड़ी की तंग घाटियों, अलग से विशेष रूप से बनाये गये चबूतरों आदि स्थानीय वस्तुओं का उपयोग करके उन्होंने अपने इस पाषाण वृत्तों को वेधशालाओं का रूप दिया था। वे मध्य ग्रीष्म या मध्य शीतकाल के दिनों के सूर्योदय जैसी अपेक्षाकृत सरल चीजों को ही नहीं नापते थे, परंतु बहुत सारी सूक्ष्म गतिविधियों- हरकतों का भी पर्यवेक्षण करते थे, जिनमें 1000 भाग में से 1 भाग की सही नाम की आवश्यकता होती है। वे चन्द्रमा के अल्प विराम का पता लगाने में भी सक्षम हो गये थे।
इन आदि खगोलविद्-पुरोहितों को यह ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? उसे पीढ़ी दर पीढ़ी कैसे सम्प्रेषित कर सके, ब्रिटिश खगोल वैज्ञानिक सर फ्रेड होपले ने इसे अपने शब्दों में इस प्रकार प्रस्तुत किया है- “वास्तव में कोई न्यूटन या आइन्स्टीन इस काम में लगा होगा।” वहां कोई विश्वविद्यालय रहा होगा। जिसमें यह विद्या पारंगत बनाने के स्तर तक छात्रों को पढ़ाई जाती होगी।
जिन दिनों मनुष्य पिछड़ी, अनाड़ी, अभावग्रस्त माना जाता है, उन्हीं दिनों के अगणित निर्माणों में से ऊपर दो का उल्लेख है। इन पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि मनुष्य क्रमिक विकास के मार्ग पर चला तो है पर तथाकथित आदिम काल के पाषाण युग में भी वह सर्वत्र विज्ञान बुद्धि से रहित नहीं था।