दुर्गतिजन्य दुर्गति-मौसम के असंतुलन के रूप में

August 1983

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मानव समुदाय की अदूरदर्शी नीतियों एवं कृत्यों के कारण इन दिनों प्रकृति चक्र बुरी तरह से प्रभावित हैं। इकॉलाजी शास्त्र के विशेषज्ञों का मत है कि समूचा “पर्यावरण चक्र” अब धीरे-धीरे सामान्य क्रम से अलग हटकर उल्टी दिशा में चलने को अग्रसर हो रहा है। इतने अधिक असन्तुलन इतने व्यतिरेक पहले कभी एक साथ देखने में नहीं आए, जितने कि कुछ दशकों से दिखायी पड़ रहे हैं, तथा क्रमशः अधिकाधिक उग्र होते जा रहे हैं। घटनाओं से मिलने वाले प्रमाण इसी तथ्य का परिचय देते हैं सम्पूर्ण प्रकृति परिकर ही इस व्यतिक्रम से प्रभावित हैं।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि पृथ्वी का अस्तित्व एवं वैभव सौर जगत पर अन्यान्य ग्रहों के पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। एक चक्र में जुड़ी होने के कारण वह मात्र दूसरे ग्रहों से प्रभावित ही नहीं होती, उन्हें अपनी स्थिति से प्रभावित भी करती है। आज उसकी जो स्थिति है, एक सदी पूर्व में नहीं थी। हरीतिमा की चादर में वह लिपटी थी। अनगढ़ होते हुए भी सर्वत्र सौंदर्य बिखरा था। औद्योगीकरण के अभिशाप ने उसका सौंदर्य, उसकी सुषमा को छीनकर उसे अनगढ़ बना दिया है। बढ़ी हुई प्रदूषण की विषाक्तता भूतल तक सीमित नहीं रही, उसके आचरण को चीरते हुए अन्तरिक्ष में जा पहुंची। सौर परिकर के अन्य ग्रह भी परोक्ष रूप से प्रभावित हुए हैं। उनकी गति एवं स्थिति पर भी प्रभाव पड़ा है। अंतर्ग्रही संबंध से जो इकॉलाजिकल चक्र प्रचलित रूप से काम करते रह सकते हैं। वह बिगड़ता चला गया है। इस असन्तुलन की ही परिणति आज सर्वत्र प्रकृति प्रकोपों-विक्षोभों के रूप में देखी एवं अनुभव की जा रही है।

“प्लेनट्रूथ” (अप्रैल 83) के सम्पादक डा. हर्बर्ट आर्मस्ट्राँग ने इस शताब्दी के मौसम परिवर्तनों का अपनी पत्रिका में विस्तार से उल्लेख किया है। विद्वान लेखक डान टेलर इसमें लिखते हैं कि संसार में औद्योगीकरण बढ़ने से पृथ्वी के वायुमण्डल का ताप क्रम तेजी से बढ़ता जा रहा है। यह बढ़ोत्तरी ही प्राकृतिक प्रकोपों, अप्रत्याशित मौसम परिवर्तनों का प्रमुख कारण है। मौसम विज्ञानी भी मानते हैं कि पृथ्वी के सौर चक्र में जो परिवर्तन गत दशाब्दियों में हुए हैं, वे पहले कभी नहीं देखे गये। सौर कलंक भी इन्हीं दिनों अधिक दृष्टिगोचर हो रहे हैं। पृथ्वी पर बढ़ते तापक्रम का सीधा संबंध भूकम्पों, ज्वालामुखी विस्फोटों से है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि विगत दस वर्षों में तो उनमें असामान्य रूप से बढ़ोत्तरी हुई है।

डा. टेलर का कहना है कि 1980 के बाद दो वर्षों में जितने अभूतपूर्व परिवर्तन संसार के मौसम में देखे गये हैं, उतने पहले कभी, किसी समय नहीं हुए। वर्ष 1982 महत्वपूर्ण परिवर्तनों के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है। विद्वान लेखक ने संसार के विभिन्न क्षेत्रों में प्रकट हुए प्रकृति विक्षोभों का विस्तृत अध्ययन कर उसका सार-संक्षेप इस प्रकार प्रस्तुत किया है-

आस्ट्रेलिया में पूरे वर्ष भर सूखे का प्रकोप रहा। अपने उत्पादन का यह देश 45 प्रतिशत सदा निर्यात कर रहा है, पर उस वर्ष उसे बाहरी राष्ट्रों से मदद माँगनी पड़ी, भारी मात्रा में खाद्यान्न आयात करना पड़ा।

दक्षिण महासागर स्पिल टोंगा द्वीप में मार्च माह में 172 प्रति घण्टे की रफ्तार से तूफान आया नब्बे प्रतिशत फसल नष्ट हो गयी तथा 95 प्रतिशत अचल सम्पत्ति, मकान, भूमि आदि समुद्र के गर्भ में समा गये।

चीन के सबसे बड़े प्रान्त हो बाई एवं लाओनिंग में इस सदी का सबसे भयंकर सूखा पड़ा। ठीक समय साथ साथ के लगे एक दूसरे प्रान्त-शाँघजींग में बाढ़ के प्रकोप से हजारों व्यक्ति अकाल मृत्यु के मुँह में समा गये, लाखों बेघर हुए, खरबों की सम्पत्ति नष्ट हुयी।

दक्षिणी चीन में वर्ष के उत्तरार्ध में, पीली नदी में आयी भयंकर बाढ़ ने पिछले सभी रिकार्ड चीन के तोड़ दिए। हजारों व्यक्ति काल के ग्रास बने, लाखों बेघर हुए।

इन्डोनेशिया के एक करोड़ पचास लाख व्यक्ति सूखे के दुर्भिक्ष के कोप बने। ऐसा सूखा वहाँ पिछले दो सौ वर्षों में कभी नहीं पड़ा था।

फ्राँस का दक्षिणी क्षेत्र अंगूर की फसल के लिए प्रख्यात है। विश्वभर की पैदावार का अस्सी प्रतिशत अंगूर यही होता है। सूखे के भयंकर प्रकोप से समूची फसल मारी गयी जबकि उत्तरी फ्राँस में उन्हीं दिनों वर्ष की सर्वाधिक बर्फ पड़ी।

इटली का मौसम का असाधारण व्यतिरेक देखा गया। ठण्ड के मौसम में भयंकर गर्मी तथा रात्रि में ओलों की वर्षा से सारी फसलें नष्ट हो गयी। सिसली प्राँत की राजधानी पलेंरमों तथा उसके आसपास के इलाकों में बयालीस डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान रिकार्ड किया गया जो वहाँ के लिए एक अनहोनी घटना है। ऐसी स्थिति मात्र ट्रॉपिक्स में ही होती है। जापान की नागासाकी नदी में गतवर्ष ऐतिहासिक बाढ़ आयी। हिरोशिमा पर बमबारी से हुई क्षति के बाद पहली बार इतनी अधिक जनशक्ति तथा धन शक्ति नष्ट हुई।

न्यूजीलैण्ड के अधिकाँश प्रान्तों को सूखे का शिकार होना पड़ा। देश को अकाल के दुर्भिक्ष से सामना करना पड़ा है। जिम्बाब्बे, साउथ अफ्रीका में इस सदी का भीषणतम सूखा पड़ा है। खाद्यान्न संकट से हजारों व्यक्तियों की मृत्यु हुयी। कितने ही नये प्रकार के रोग फैले।

सोवियत संघ का उत्तरी भाग जो उत्तरी ध्रुव के निकट पड़ता है, तुलनात्मक दृष्टि से अधिक ठण्डा है, पर इस बार वह अत्यधिक गर्म रहा। जबकि दक्षिणी भाग में भयंकर ठण्ड पड़ी। बरसात एवं ओलों के कारण करोड़ों हेक्टेयर की फसलें नष्ट हो गयी। कितनी ही नदियों में बाढ़ आयी।

दक्षिण पूर्व एशिया के थाईलैंड, मलेशिया आदि देशों में भी इस वर्ष मौसम का असन्तुलन विशेष रूप से देखा गया। मात्र 10-20 मील के फासले पर कहीं सुखा, तो कहीं अतिवृष्टि जैसे व्यतिक्रम देखे गये।

अमरीकी में बसन्त के मौसम में ओलों की वर्षा से जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा। उत्तरी भाग की सभी नदियों में आयी बाढ़ से फसलों को भारी क्षति पहुँची, असंख्यों के मकान बह गये। समुद्र किनारे बसे फ्लोरिडा, सॉन फ्राँसिस्को, वाशिंगटन डी.सी., न्यूयार्क, लासवेगास नगरों में बाढ़ का पानी तटों को पारकर शहरी क्षेत्र में फैल गया। बरसाती पानी की सड़न-दुर्गन्ध से उन नगरों में महामारी फैली। हजारों की जानें गयी।

इसी वर्ष 30 मई के दिन पश्चिम जर्मनी में इतनी मूसलाधार वर्षा हुई कि बाढ़ की स्थिति आ गई। पश्चिमी जर्मनी के अधिकाँश इलाकों के बाजारों में सड़कों पर बतखें तैर रही थी। डाक नावों से बाँटी गयी। अधिकारियों का कहना था कि गत 36 सालों में इतना भयंकर बाढ़ कभी नहीं आयी। सैकड़ों के मरने तथा असंख्यों के बह जाने की यह खबर सुर्खियों के साथ अनेकों समाचार पत्रों ने छापी। इसी वर्ष तेईस मई के हिन्दुस्तान टाइम्स में छपी एक खबर के अनुसार लन्दन में लगातार 35 दिनों तक मूसलाधार वर्षा होती रही है। 1940 के बाद झड़ी लगी सतत् वर्षा का यह नया कीर्तिमान है। केन्द्रीय मौसम पूर्वानुमान कार्यालय के अनुसार इस घटना की इसी वर्ष फिर पुनरावृत्ति होने की सम्भावना है। इस वर्षा के साथ ही साढ़े छः किलोमीटर क्षेत्र में 8 सेण्टीमीटर बर्फ की परतें कई दिनों तक जमी रहीं। आवागमन, यातायात, पूर्णतः अवरुद्ध रहा। सरकारी प्रयत्नों से बर्फ काट-काटकर हटायी गयी तो भी यातायात शुरू न हो सका। मौसम के सामान्य होने, वर्षा बन्द होने के कुछ दिनों बाद सामान्य क्रम कुछ-कुछ पटरी पर आया है।

भारत भी इस पर्यावरण असन्तुलन से अछूता नहीं रहा है। विगत कुछ वर्षों से भारत का मौसम भी बहुत तेजी से बदला है। प्रकृति प्रकोपों के अतिवाद की बहुलता देखी गयी है। 1979 में चमोली जनपद के कोथा गाँव में 16 अगस्त की रात्रि को घनघोर वर्षा हुयी। दूसरे दिन भू-स्खलन हुआ। पूरा गाँव पृथ्वी के भीतर समा गया हिमाचल प्रदेश में हुए भूस्खलन से 13 सौ व्यक्तियों की जानें गयी, कितने ही घायल हुए। शिमला व निकटवर्ती क्षेत्रों में मई माह तक बर्फ गिरती रही है। पिथौरागढ़ जिले के शिसनागाँव के लोगों पर 1981 की मध्यरात्रि को प्रकृति की एक भयंकर काली साया मंडरायी और वहाँ के सम्पूर्ण जन-जीवन को समाप्त करके तिरोहित हो गयी। यह एक तूफानी बवण्डर था।

15 अगस्त 1977 को तावा घाट प्रभाग (तराई) में जमीन के धँसने से हजारों लोग मृत्यु की गोद में चले गये। भू-स्खलनों के कारणों के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालय क्षेत्र में वृक्ष वनस्पतियों की अंधाधुन्ध कटाई के कारण उस क्षेत्र की जमीन की जल रोकने की क्षमता में निरंतर ह्रास आ रहा है। वृक्षों के कारण मिट्टी का कटाव नहीं हो पाता, किन्तु पेड़ों के कटते ही उनकी जड़ों से चिपकी मिट्टी का कटाव आरम्भ हो जाता है तथा अनेकानेक गड्ढे नाले बनना आरम्भ हो जाते हैं।

गत वर्ष उड़ीसा में आया तूफान अत्यन्त विध्वंसक रहा उसके बवण्डर से तत्काल पाँच सौ व्यक्ति काल के ग्रास बने, 1000 घायल हुए। दो लाख व्यक्तियों को गृह हीन करने का श्रेय इस चक्रवात को ही मिला था। कटक, बालासोर, पुरी, क्यौंझर, धेनुकनाल के पाँचों जिले उस तूफान से बुरी तरह प्रभावित हुए। जून 1982 का वह तूफान वस्तुतः भयावह एवं अविस्मरणीय घटना के रूप में हमेशा याद किया जाता रहेगा। 220 कि.मी. प्रति घण्टा की भयंकर गति से चलने वाले इस तूफान ने पाराद्वीप बन्दरगाह को 12 घण्टे की विनाशलीला के बाद श्मशान में परिणत कर दिया। 35 हजार निवासियों की करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हुयी। बन्दरगाह पर खड़े 32 से 35 फीट लम्बे ट्रेलर्स एक दूसरे के ऊपर ऐसे चढ़ गये जैसे लकड़ी के अनेकों खोखे एक पर एक जमा दिए गये हों। 100 से अधिक नावों को क्रेन से पानी के बाहर निकाला गया। 80 फीट ऊँचे तीन चट्टान जैसे प्रकाश स्तम्भ टूटकर गिर पड़े।

सन् 1982 वस्तुतः भारत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण रहा। देश के दस करोड़ व्यक्ति सूखे की चपेट में आये। आँध्र, गुजरात, कर्नाटक के तटीय क्षेत्रों पर आए तूफान ने सहस्रों व्यक्तियों की जान ले ली। संचार तन्त्र अव्यवस्थित हुआ। अरबों की सम्पत्ति नष्ट हुयी। उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र तो मौसम के झंझावातों से और भी अधिक प्रभावित रहा। एक ही दिन में, तेज सर्दी, अधिक गरमी, भयंकर वर्षा के तीनों ही मौसम समय के थोड़े-थोड़े अन्तरों पर दिखायी पड़े।

विश्वव्यापी मौसम में संव्याप्त इस हेर-फेर का कारण क्या हैं? मूर्धन्य मौसम विज्ञानियों का मत है कि सूक्ष्म अन्तरिक्ष में एक जेट-स्ट्रीम लॉकिंग व्यवस्था सतत् चल रही है। पृथ्वी की सतह से ऊपर वातावरण अधिक गरम है जबकि ध्रुवों पर अपेक्षाकृत अधिक ठंडा है। ऐसे में जहाँ ये दोनों मिलते हैं, 6 से 10 मील लम्बी बादलों की सघन शृंखला बनती चली जाती है। ये बादल सामान्य नहीं अपितु अत्यन्त ठंडे, कृत्रिम तथा अविज्ञात वायु घटकों के घनीभूत रूप है। सामान्यतया ये बादल बनकर कुछ ही समय में समाप्त हो जाते थे किन्तु विगत बीस वर्षों में हुए पृथ्वी के वातावरण में परिवर्तन के फलस्वरूप इन बादलों की परस्पर लॉकिंग होने से एक ही स्थान पर कई माहों से वे स्थिर से हो गये हैं। ऐसे एक नहीं करोड़ों ‘जेटस्ट्रीम्स” हैं। ध्रुवों पर होने वाले ये परिवर्तन सारे पृथ्वी के बदलते मौसम का मूल कारण हैं।

आखिर अचानक ऐसी स्थिति कैसे बनी? ध्रुवों पर परिवर्तन तथा अन्तरिक्ष में घातक गैसों की मात्रा में वृद्धि इस सीमा तक कैसे पहुँची? वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी का तापमान बढ़ते औद्योगीकरण संसाधन दोहन, हरीतिमा उन्मूलन जैसे मानवी दुष्कृतों के कारण सतत् बढ़ता जा रहा है। उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों पर असामान्य स्थिति उत्पन्न करने में मानवी दुर्बुद्धि ने प्रमुख भूमिका निभाई है। सारा विश्व जिस इकॉलाजिकल साइकल से चलता हो, ध्रुवीय व्यवस्था से सुनियोजित होता हो, उसे ही यदि अव्यवस्थित कर दिया गया तो मौसम के दुष्प्रभावों से कोई भी अछूता नहीं रह सकता। विक्षोभों के बादल सतत् विश्व समुदाय पर मँडरा रहे हैं। ये और भी उग्र स्वरूप लेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं अपने ही कृत्यों की प्रतिक्रियाएँ प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य स्वयं देखते हुए भी नहीं समझ पा रहा, यह और भी बड़ा आश्चर्य है।


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