जप और यज्ञ का अविच्छिन्न युग्म

August 1983

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युग पुरश्चरण को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-(1) सामूहिक जप परक साधना (2) धर्मानुष्ठानों का उपक्रम (3) जन-मानस के परिष्कार हेतु ज्ञानयज्ञ। इस त्रिविधि समन्वय को प्रकारान्तर से त्रिवेणी संगम की उपमा दी जा सकती है। जिसका माहात्म्य बताते हुए रामायणकार ने कायाकल्प होने की बात जोर देकर कही है। कायाकल्प में कौए के कोयल और बगुले के हंस हो जाने का उल्लेख अलंकारिक है वस्तुतः उसे अशुभ के शुभ में बदल जाने की प्रक्रिया कहा जा सकता है। शरीर तो क्या बदलते हैं किन्तु मनःस्थिति के परिवर्तन से परिस्थिति में आमूलचूल परिवर्तन होना सम्भव है। “काया-कल्प” शब्द वस्तुतः ऐसे ही प्रसंगों में प्रयुक्त होता है।

सामूहिक गायत्री जप साधना की चर्चा पिछले पृष्ठों पर हो चुकी है। सूर्योदय के समय हर धर्मप्रेमी को पाँच मिनट मौन मानसिक गायत्री जप करना चाहिए, साथ में सविता के प्रकाश का ध्यान। समय पूरा होते ही उसका प्रतिफल अदृश्य वातावरण के परिशोधन हेतु अन्तरिक्ष में बिखेर देने का संकल्प। संक्षेप में इतनी-सी संक्षिप्त साधना ही प्रज्ञा पुरश्चरण का वैयक्तिक साधना कृत्य है। जिसे कहीं भी किसी की स्थिति में उतने समय साधारण काम-काज रोककर किया जा सकता है। समय का अनुशासन इसका महत्वपूर्ण पक्ष है। एकता, एकरूपता, एकाग्रता, लक्ष्य की एकात्मकता ही इस प्रसंग से जुड़े हुए महत्वपूर्ण तथ्य हैं जो विस्तार की दृष्टि से स्वल्प होते हुए भी चिनगारी की तरह महान परिणाम प्रस्तुत कर सकने में समर्थ हो सकते हैं।

इस ऐतिहासिक उपक्रम का दूसरा पक्ष है-धर्मानुष्ठान। इसे सामूहिक कृत्य के रूप में प्रयुक्त किया जाना है। सर्वविदित है कि गायत्री का युग्म यज्ञ है। दोनों को भारत की देव संस्कृति का माता-पिता कहा गया है। एकाकी अपूर्णता दूसरे से सम्पूर्ण होती हैं। दोनों परस्पर पूरक है। इसलिए गायत्री साधक किसी न किसी रूप में यज्ञ द्वारा उसे समग्र बनाते हैं। जो साधन नहीं जुटा सकते वे दशाँश जप अधिक करके भी उसकी प्रतीक पूजा करते हैं। आवश्यकता और अनिवार्यता सभी अनुभव करते हैं, यह दूसरी बात है कि साधन न बन पड़ने पर उसका वैकल्पिक प्रतीक जिस-तिस प्रकार से सम्पन्न कर लिया जाय।

जिस प्रकार प्रस्तुत प्रज्ञा पुरश्चरण में जप का केन्द्रित न करके विकेन्द्रित किया गया है उसी प्रकार इसका यज्ञ कृत्य भी एक बड़े आयोजन के रूप में सम्पन्न न करके विकेन्द्रित रखा गया है। सभी क्षेत्र प्रदेशों को इस दिव्य ऊर्जा से अनुप्राणित करना जो है। चूँकि अधिकाधिक व्यक्ति सरलतापूर्वक सम्मिलित हो सकें और अनुबन्धों से रहित निर्धारण प्रस्तुत किया गया है।

साधारणतया एक महीने में प्रज्ञा पुरश्चरण के भागीदार एक महीने में एक बार एक स्थान पर एकत्रित होकर प्रज्ञा यज्ञ सम्पन्न कर लिया करें, ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए इससे एक स्थान के लोग इतना अनुभव कर सकेंगे कि उनका परिवार कितना बढ़ रहा है और उसमें कितने नये पुराने परिजन सम्मिलित हो सके हैं। अधिकों को देखकर अधिक उत्साह बढ़ना स्वाभाविक है। जन मनोविज्ञान का यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि अधिक लोग-बड़े लोग-जिसे करते हैं उसका अनुकरण सामान्य जन अनायास ही करने लगते हैं। रामलीला समाप्त होने के बाद छोटे बालकों को उसके प्रमुख पात्र के मुखौटे लगाये-गदा धनुष फटकारते देखा जा सकता है। यह अनुकरण प्रवृत्ति है जिसे सामान्य जन सहज ही अपनाते रहते हैं। सिगरेट, पान, चाय आदि का प्रचलन उनकी उपयोगिता के कारण नहीं वरन् अनुकरण प्रिय प्रवृत्ति के कारण है। जुलूसों में एकत्रित जन समुदाय स्वयं उस माहौल में उत्तेजित होता है और दर्शकों पर अपना प्रभाव छोड़ता है। विचार क्रान्ति अभियान में घटनापरक कम और चिन्तन की उलट-पलट, उथल-पुथल को प्रमुख माना गया है।

यह महाभारत जिस धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में लड़ा जा रहा है उसे जनमानस का चिन्तन क्षेत्र ही कहा जा सकता है। इसकी रणनीति में अधिक लोगों का अधिक सहयोग एक बहुत बड़ा आधार है। प्रज्ञा पुरश्चरण में अध्यात्म तत्वज्ञान के उच्चस्तरीय अवलम्बनों के अतिरिक्त उसमें अधिकाधिक लोगों का अधिकाधिक सहयोग अर्जित करना भी ध्यान में रखा गया।

प्रसंग प्रज्ञा पुरश्चरण के दूसरे पक्ष धर्मानुष्ठान का यज्ञ आयोजन का चल रहा था। इसके लिए ऐसी ही सरल प्रक्रिया अपनानी होगी जिसकी अपना सकना हर स्तर वालों के लिए सम्भव हो सके।

पाँच छोटे-छोटे घृत दीप-पाँच-पाँच अगरबत्तियों के पाँच गुच्छक एक सुसज्जित चौकी पर प्रतिष्ठित कर देने से यज्ञ का दृश्य रूप बन जाता है। घृत और सुगन्धित द्रव्य अग्नि और समिधा यह वस्तुएँ यह में प्रमुख होती हैं। उपरोक्त विधि में इन सभी का सहज समन्वय हो जाता है। अगरबत्ती के हवन, द्रव्य, उसमें लगी हुई लकड़ी की समिधा दीपक के घृताहुति की प्रतीक बन जाता है। इस स्थापना के पीछे गायत्री मन्त्र का चित्र प्रतिष्ठित करना चाहिए। चौबीस आहुति का न्यूनतम विधान गायत्री यज्ञों में होता है। यह कार्य उपस्थिति सभी लोगों को साथ-साथ गायत्री मन्त्र का उच्चारण करके सम्पन्न करना चाहिए। सभी उपस्थित लोगों के सिर पर चन्दन की एक बूँद लगाकर उन्हें यजमान भागीदार माना जा सकता है। यह अत्यन्त छोटा निर्धारण ऐसा है जिसे कहीं भी किसी भी स्तर के लोगों द्वारा सहज सम्पन्न किया जा सकता है। यज्ञ की समाप्ति पर यदि प्रसाद वितरण की आवश्यकता समझी जाय तो जल, शकर और तुलसी दल के सम्मिश्रण से बना हुआ अभिमन्त्रित जल इस प्रयोजन के लिए पर्याप्त समझा जा सकता है।

प्रजा पुरश्चरण के साथ इतना छोटा ही यज्ञ आयोजन कृत्य जोड़ा गया है। बड़े यज्ञ करने हों तो उन्हें फिर कभी करना चाहिए। इस संदर्भ में जो भी निर्धारण हो वे सर्वत्र एक जैसे हों। पाँच मिनट का जप ही सर्वत्र एक जैसा चले। जिन्हें अधिक जप करना हो वे उसके लिए स्वतन्त्र हैं, पर अन्य समय उसे करें। इस प्रक्रिया में पाँच मिनट का ही अनुशासन पालें। इसी प्रकार प्रज्ञा अभियान का जो स्वरूप निर्धारित किया गया है उसे उसी रूप में कार्यान्वित किया जाय, ताकि विश्वव्यापी एकता-एकरूपता अक्षुण्ण बनी रहे। नमाज का अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप, विधान, समय एक जैसा है। गिरजाघरों के प्रेयर के संबंध में भी यही बात है। प्रज्ञा पुरश्चरण की जप तथा यज्ञ विधा सर्वत्र एक जैसी होनी चाहिए। सरलता इसलिए रखी गई है कि सभी धर्मों के सदस्य उसे गले उतारने अपनाने में कठिनाई अनुभव न करें। यों एकता, एकरूपता लाने के लिए सभी मतावलम्बियों को थोड़ा-थोड़ा तो झुकना ही पड़ेगा। अपनी ही अड़ पर अकड़े रहने वाले हठवादियों के संबंध में कोई इलाज उपचार नहीं। उनकी उपेक्षा करके हमें समन्वयवादी भावना उभारनी है जो आगे चलकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्” के प्रचलन में सहायक सिद्ध हो सके। एक राष्ट्र, एक भाषा, एक धर्म, एक व्यवस्था के आधार पर जब प्रज्ञा युग की सभी स्थापनाओं को प्रचलन में उतारना है तो समन्वयवादी नीति अपनाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं। एकात्म अनुशासन का लक्ष्य सामने रखकर प्रज्ञा पुरश्चरण के जप और यज्ञ पक्षों में सरलतम बनाया गया है और इतना लचीला रखा गया है कि उसे दुराग्रहियों को छोड़कर अन्य किसी के लिए अपनाने में कोई कठिनाई दृष्टिगोचर न हो।

एक अन्य विकल्प यह है कि गायत्री मन्त्र याद होने में किसी को कोई कठिनाई पड़े तो ‘ॐ’ के उच्चारण की विधि अपना सकते हैं। ‘ॐ’ कार अक्षर ही नहीं ध्वनि भी है। अक्षरों के साथ भाषा, धर्म, सम्प्रदाय आदि के मतभेद जड़ सकते हैं किन्तु जब विशुद्ध ध्वनि के रूप में उसे समझा अपनाया जाय तो किसी को कोई आपत्ति या कठिनाई नहीं होनी चाहिए। कठिनाई उच्चारण संबंधी, पूरा मन्त्र याद करने में मात्रा ज्ञान संबंधी अड़चन या मस्तिष्कीय अदक्षता बाधक हो सकती है। साम्प्रदायिक हठवादिता गायत्री के सार्वभौम सर्वजनीन स्वरूप को स्वीकारने में बाधक भी हो सकती है, विग्रह भी प्रस्तुत कर सकती है। उन्हें गायत्री को हिन्दू धर्म के साथ जुड़े होने संस्कृत भाषा में सजे होने-के कारण विरानापन लग सकता है। ऐसी संकीर्णता के रहते हुए भी ‘ॐ’कार की ध्वनि से किसी को ‘एलर्जी’ नहीं होनी चाहिए। वह किसी भाषा या धर्म से संबंधित नहीं है। प्रकृति के अन्तराल में अनादि काल से चली आ रही एक झंकार मात्र है। घड़ियाल पर घण्टे की चोट पड़ने से जिस प्रकार झन-झनाहट छर-छराहट भरे कम्पन निसृत होते हैं और उसी प्रकार ‘प्रकृति और पुरुष’-‘माया और ब्रह्म’ का निरन्तर चलने वाला घड़ी के पेण्डुलम जैसा उपक्रम ऊँकार है। उसे सृष्टि का सूत्र संचालक शब्द प्रवाह एवं अनादि ऊर्जा स्त्रोत कह सकते हैं। वह ज्ञान और विज्ञान का अविच्छिन्न स्त्रोत है।

गायत्री ॐकार की है। इसलिए उसे आरम्भ में ही जोड़ दिया गया है। अ+उ+म् से भूर्भुवः स्वः। भूः से ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’। भुवः से ‘भर्गो देवस्य धीमहि’। स्वः से धियो योनः प्रचोदयात्’ का शब्द विस्तार हुआ है। ॐकार को बीज और गायत्री को वृक्ष कहा गया है। इसलिए जहाँ गायत्री की समग्र अवधारणा किसी कारण कठिन जान पड़ती हो वहाँ उसके स्थान पर मात्र ‘ॐकार ध्वन्यात्मक मानसिक जप किया जा सकता है। यह निरक्षरों और बालकों के लिए भी सम्भव है। भाषा ज्ञान संबंधी कठिनाई भी इसमें बाधक नहीं होती। साम्प्रदायिक विग्रह की भी इसमें गुंजाइश नहीं है।


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