युग सृजन की भागीदारी में किसी को घाटा नहीं

August 1983

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सीमित संकुचित स्वार्थ की परिणति अनर्थ में होती है और उदात्त परमार्थ परायणता से सच्चे अर्थों में स्वार्थ सिद्धि होती है। इस तथ्य को समझ सकना मूढ़मति के लिए कठिन है। किन्तु जहाँ भी दूरदर्शिता विद्यमान होगी वहाँ इस निष्कर्ष पर पहुँचने में तनिक भी कठिनाई न पड़नी चाहिए कि परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ हैं। उसमें भौतिक और आत्मिक, लौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकार के सुखद प्रयोजन साथ-साथ सधते हैं। इसे विचारशीलता का अभाव ही कहना चाहिए कि लोग परमार्थ से विमुख रहते और संकीर्ण स्वार्थपरता की कीचड़ में कृमि कीटकों की तरह कुलबुलाते रहते हैं।

अदूरदर्शिता के प्रमाणों से सारा वातावरण भरा पड़ा है। आटे की गोली के लिए गरदन कटाने वाली मछली और दोनों के लालच में प्राण गँवाने वाली चिड़िया का उदाहरण बनने वाले मनुष्यों की कहीं कोई कमी नहीं। बीन की मोहकता में मृग और सर्पों की तरह सुध-बुध भूल जाने वाले और बन्धन में बँधने वालों का अनुकरण करते हुए असंख्य मनुष्य भी देखे जा सकते हैं। कमल पुष्प के रूप पर भौंरा और दीपक की शोभा पर पतंगा इतना मुग्ध होता है कि उसे अगले ही क्षणों इस व्यामोह की परिणति पर सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता। चासनी पर बेहिसाब टूट पड़ने वाली मक्खी अपने पर और पैर फँसाकर किस प्रकार दम तोड़ती है इस दृश्य को देखकर उसकी मूर्खता का उपहास उड़ाने वाले तो अनेकों होते हैं, पर यह नहीं देख पाते कि वे स्वयं भी तो वैसा ही कुछ तो करते रहने में संलग्न नहीं है।

इसे अदूरदर्शिता ही कहना चाहिए जिसके कारण स्वार्थ में लाभ और परमार्थ में हानि होने का बुद्धि भ्रम चढ़ दौड़ता है। कहते हैं कि कौरव एक बार पाण्डवों के घर गये तो वहाँ मरकत मणियों से बने भवन में जल को थल और थल को जल समझने का भ्रम हुआ था। उसी विभ्रम का उपहास उड़ाते हुए द्रौपदी मखौल में कह बैठी-अन्धों के अन्धे ही होते हैं। सर्वविदित है कि वह व्यंग्य ही महाभारत का निमित्त कारण बना और धन जन की अपार हानि करने के उपरान्त ही समाप्त हुआ। प्रायः ऐसी ही उपहासास्पद मनःस्थिति उन सबकी होती है जो संकीर्ण स्वार्थपरता के दल-दल में घुसते धँसते चले जाते हैं और उस प्रगति के पीछे जुड़ी हुई अवगति को देखने-समझने में असमर्थ रहते हैं।

दूरदर्शिता साथ दे सकती होती तो हर व्यक्ति सौभाग्यशाली होता। तब उसे भटकावजन्य दुर्भाग्य के साथ हर घड़ी सिर न फोड़ना पड़ता। दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए किसान खेत में श्रम करते और फसल की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। विद्यार्थी 14 वर्ष का तप करके स्नातक बनता और विद्वान होने का श्रेय गौरव एवं उपहार अर्जित करता है। पहलवान लम्बे समय तक कसरत, खुराक, मालिश, संयम आदि का झंझट उठाते रहने के उपरान्त बहुत समय बाद दंगल जीतता और गर्दन ऊँची उठाकर चलता है। व्यवसायी पूँजी लगाते हैं, कलाकार लम्बे समय तक अभ्यास करते हैं। योगियों को सतत् साधनारत देखा जाता है। वे तत्काल हाथों हाथ कोई लाभ अर्जित नहीं करते वरन् सच तो यह है कि हानि उठाते हैं। वह समय देर में आता है जिसमें वे बीज की तरह गलने के उपरान्त विशाल वृक्ष की तरह फलने का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

इन दिनों प्रज्ञा परिजनों को समय की कसौटी पर कसा जा रहा है और यह जाँचा परखा जा रहा है कि वे नर पामरों की तरह अदूरदर्शिता के नागपाश में ही जकड़े रहेंगे या उन महामानवों की तरह श्रेयाधिकारी बनेंगे जिनने दूरदर्शिता अपनाई-आदर्श अपनाने के लिए कठिनाई उठाई और अन्ततः इतने अधिक लाभ में रहे जिनकी चर्चा करने मात्र से मुँह में पानी भर आता है।

कभी हनुमान-अंगद को भी मूर्ख कहा गया होगा। शबरी, केवट, विभीषण से लेकर रीछ वानरों तक द्वारा अपनाई गई नीति का उपहास उड़ाया गया होगा। क्योंकि उनके कदम उस मार्ग पर उठे, जिसमें तत्काल विलास वैभव हस्तगत नहीं होता था। दुनियादारी का प्रचलन यही है कि जिस भी प्रकार तुरन्त सम्पदा-सफलता हस्तगत होती हो उसी में बुद्धिमानी मानी जाय और जो भी जितने ढीठ मन से यह सब कर गुजरे उसी को चतुर भाग्यवान कहा जाय। प्रचलन के अनुसार आदर्शवादी, दूरदर्शी मूर्ख कहे जाते हैं। क्योंकि वे बीज की तरह गलने और बरगद की तरह फलने की नीति अपनाते हैं और प्रलोभन के आकर्षण तथा भय दबाव में आने से इनकार कर देते हैं। प्रत्यक्षतः यह घाटा लगता है। घाटा उठाने वाले को मूर्ख कहा ही जाना चाहिए। किन्तु वस्तुतः वैसा है नहीं। यदि ऐसा होता तो कोई भी सन्तानोत्पादन जैसे कष्टकारक और हानिकारक काम में हाथ न डालता। परमार्थ में समय और शक्ति खर्च करने के लिए कोई भी सहमत तत्पर न होता। तब देश भक्ति, समाज सेवा, पुण्य परमार्थ का कहीं कोई अता-पता भी न लगता। दया धर्म का पालन करने में, तप संयम जैसे कष्टसाध्य उपक्रम अपनाने में किसी की भी प्रवृत्ति न होती। त्याग बलिदान के प्रेरणास्पद प्रसंग कहीं भी देखने सुनने को न मिलते। अच्छा ही हुआ कि सभी ने प्रत्यक्षवाद को तत्काल लाभ भर को महत्व देने वाली संकीर्ण स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में मोद मनाने की चतुरता को नहीं अपनाया। कुछ ऐसे आदर्शवादियों की भी आवश्यकता थी जो घाटा उठाने और मूर्ख कहलाने में भी-मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखने में गर्व गौरव अनुभव कर सके।

प्रज्ञा युग के इस प्रभात पर्व पर प्रज्ञावतार का-प्रज्ञा अभियान का अभिनव आलोक इन्हीं दिनों उदय हुआ है। इस अवसर पर देवालयों में बजने वाले शंख, घण्टों की तरह स्वयं मुखर होने और अनेकानेक प्रसुप्तों को जगाने में जिनकी महत्वपूर्ण भूमिका है उनकी इतिहासकार स्वर्णाक्षरों में चर्चा करेंगे। युग चेतना से अनुप्राणित कोटि-कोटि मस्तक उनके चरण चिन्हों पर चलते और शत्-शत् नमन वन्दन करते रहेंगे।

प्रज्ञा पुरश्चरण में विश्व विभीषिकाओं से जूझने और संव्याप्त विषाक्तता से निपटने की समुचित क्षमता है। युग परिवर्तन के लिए अभीष्ट ऊर्जा उत्पन्न कर सकने की समर्थता उसमें विद्यमान है। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण के निमित्त जिस पृष्ठभूमि की आवश्यकता है वह उससे बनती है। 590 करोड़ मनुष्यों की नियति को विनाश के गर्त में गिरने से बचाने और उत्कृष्ट को स्वर्ण शिखर तक पहुँचाने के लिए मात्र भौतिक पुरुषार्थ एवं सरंजाम ही पर्याप्त नहीं हो सकता। उसके लिए चेतना को प्रभावित करने वाली अध्यात्म ऊर्जा का उत्पादन भी विपुल परिणाम में करना होगा। कहना न होगा कि उसी आवश्यकता की पूर्ति में प्रज्ञा पुरश्चरण की महती भूमिका अगले दिनों परोक्ष न रहकर प्रत्यक्ष भी परिलक्षित होने लगेगी। यह पारमार्थिक चर्चा हुई। विश्व कल्याण का लोक मंगल का यह प्रसंग इतना तुच्छ नहीं है जिसके लिए लोभ मोह के भव बन्धनों को थोड़ा भी शिथिल न किया जा सके। समयदान अंशदान की थोड़ी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करने में अपने को असमर्थ कहा जा सके।

दूसरों के लिए मेंहदी पीसने वालों के हाथ अनायास ही लाल होते हैं। दूसरों पर इत्र लगाने वाले के कपड़े अनायास ही महकने लगते हैं। अन्यों के लिए भोजन वाला चूल्हा स्वयं भी गरम रहता है। परमार्थ में प्रकारान्तर से उच्चस्तरीय स्वार्थ साधन का समावेश है। बर्फ बनाने वाले स्वयं भी शीतलता का लाभ देते हैं। सरकस में नौकरी करने वाले उस आकर्षक तमाशे को हर दिन मुफ्त में ही देखते रहते हैं। इतिहास साक्षी है कि परमार्थ परायणों को आरम्भ में जितना त्याग करना पड़ा है उसकी क्षति पूर्ति चलकर ब्याज समेत होती रही है। गाँधी, बुद्ध, शंकराचार्य, विवेकानन्द आदि परमार्थ परायण अन्ततः भौतिक दृष्टि से भी लाभ में रहे हैं। धन की तरह यश भी एक सम्पदा है। हजारी किसान ने धन न सही यश तो इतना कमा लिया जितना करोड़ों खर्च करके भी नहीं खरीदा जा सकता था। न हनुमान घाटे में रहे न अर्जुन। ऋषि परम्परा के महान व्यक्तियों को सफलता असफलता की तात्विक दृष्टि से परखा जाय तो प्रतीत होगा कि उनने घाटा नहीं वरन् उच्चस्तरीय लाभ उठाया। यह समझ का अन्तर ही है जो एक को माया के भ्रम जंजाल में घुमाता भटकाता है तो दूसरे को श्रेय सौभाग्य के अनुपम उपहार देकर हर दृष्टि से कृतकृत्य कर देता है। प्रज्ञा परिजनों को-प्रज्ञा पुत्रों को ऐसी ही दूरदर्शिता अपनानी चाहिए और युग परिवर्तन के महान उत्तरदायित्वों की चुनौती जिम्मेदारी आगे बढ़कर स्वीकारनी चाहिए।

गलाई ढलाई के अप्रिय और प्रिय प्रसंगों के साथ-साथ सुरक्षा प्रयत्नों में निरत लोग अन्यान्यों की अपेक्षा अधिक सुरक्षित रहेंगे। और श्रेय सम्पादन में सामान्य लोगों की तुलना में अधिक लाभान्वित रहेंगे। स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों ने “हतोवा प्राप्यसि स्वर्ग, न जित्वा वा मोक्षसे महीम्” का उभयपक्षीय लाभ उठाया। तिलक गाँधी जैसे अजर-अमर हो गये और नेहरू, पटेल जैसे बेताज के बादशाह कहलाये। घाटे में वे रहे जो उस आन्दोलन में सम्मिलित होने पर घाटा पड़ने का हिसाब लगाते रहे। आये दिन की मुसीबतों ने अछूता तो उन्हें भी नहीं छोड़ा। गृह कलह, स्वास्थ्य संकट, परिस्थिति प्रतिकूलता, भाग्यचक्र आदि के कारण कष्ट उन्हें भी कम नहीं उठाने पड़े। इन्द्र और कुबेर बनने के सपने साकार कर सकने में वे भी असफल रहे। ऐसी दशा में तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर प्रतीत होता है कि संकीर्ण स्वार्थ परायण भी वैसा लाभ उठा सकने में सफल नहीं होते जैसा कि आदर्शवादियों को ताने दिये जाते हैं।

प्रज्ञा पुरश्चरण की भागीदारी में मात्र विश्व कल्याण ही हो और उसके प्रयोक्ता इस निमित्त के पुण्य प्रतिफल से सर्वथा वंचित रहें सो बात भी नहीं है। उन्हें अग्रगामी साहस का प्रतिफल व्यक्तिगत लाभ के रूप में न मिले सो बात भी नहीं है। जब दुष्कर्मों के दुष्परिणाम भुगतना निश्चित है तो कोई कारण नहीं कि सत्कर्मों की परिणति श्रेय सौभाग्य के रूप में न हो। विनाश विभीषिकाओं के माहौल में वे अपने परिकर के साथ अधिक सुरक्षित रहेंगे। अग्निकाण्ड में अनेकों जल भरते हैं किन्तु फायर ब्रिगेड वाले अपेक्षाकृत उस संकट में प्राण त्यागते कम ही सुने जाते हैं। पानी में डूबने वालों की संख्या हर वर्ष असंख्यों होती हैं पर नाव खेकर दूसरों को पार लगाने वाले मल्लाहों में से जल समाधि लेने वालों की संख्या नगण्य ही होती है। महामारी के प्रकोप में जिस अनुपात से सामान्य जन मरते हैं उनमें डॉक्टरों की मृत्यु नहीं होती। सृष्टि का विधान है कि दूसरों का बचाव करने के लिए प्रयत्नशीलों की रक्षा स्वयं भगवान करते हैं। असंख्यों की शुभ कामनाएँ सद्भावनाएँ उनके ऊपर ढाल बनकर छाई रहती हैं और आड़े समय में चमत्कारी सहायता प्रस्तुत करती हैं। परमार्थ परायणों के जीवनक्रमों पर दृष्टिपात करने से एक नया प्रसंग यह भी उभरकर आता है कि उन्हें साँसारिक प्रतिकूलता भले ही रही हो पर दैवी सहायता के अप्रत्याशित अवसर अनायास ही आते रहे हैं।

प्रज्ञावतार-प्रज्ञा अभियान-प्रज्ञा पुरश्चरण की भागीदारी किसी के लिए भी घाटे का सौदा सिद्ध नहीं हो सकती। इस प्रसंग में प्रस्तुत किया गया अनुदान अनेक गुने सत्परिणाम लेकर वापिस लौटे ऐसी आशा-अपेक्षा करने में तनिक भी अतिवादिता नहीं है।


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