आसन्न विभीषिकाओं से डरें नहीं समाधान सोचें

August 1983

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ध्वंस की प्रक्रिया बड़ी कष्टदायी होती है। ऐसी सम्भावनाओं से ही मनुष्य भयभीत तथा भविष्य के विषय में और भी आशंकित हो उठता है। मरण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, फिर भी उसका स्वरूप बड़ा वीभत्स होता है। बिछोह से प्रियजन रोते-बिलखते देखे जाते हैं। जिस प्रकार अन्त्येष्टि क्रिया की जाती है, उससे लगता है क्या यह सब सरंजाम इस कटु-हृदयस्पर्शी ढंग के करना जरूरी है। जलाने, कपाल क्रिया करने, गाढ़ने, बहाने की क्रिया उसी निर्जीव काया के साथ की जाती है, जिसे जीवित अवस्था में इतना स्नेह-सम्मान दिया गया था। सारे घर में उदासी का साम्राज्य छाया होता है। मृतक की छवि- जीवित अवधि के क्रिया-कलाप आँखों के सामने घूमते हैं। ऐसा लगता है कि सारा घटनाक्रम, मरण का विधान एक दैवी अभिशाप है। ईश्वर ने जिन सुन्दर कलाकृतियों को अपने हाथों से बनाया है, इतनी निर्दयता से उन्हें वह ऐसे तोड़ डालता है जैसे उसका कोई नाता न हो।

इस प्रसंग की चर्चा इस संदर्भ में विशेष रूप से की जा रही है प्रस्तुत संधिकाल एवं आने वाला समय कुछ ऐसी ही त्रासयुक्त विभीषिकाओं से भरा है। असमय की वर्षा, सूखा, महामारी, बवण्डर-तूफान, मौसम में अप्रत्याशित परिवर्तन, भूकम्पों, की बाढ़, ज्वालामुखियों का फटना, असन्तुलित जनसंख्या के साथ-साथ आयुध शक्ति में अनियन्त्रित वृद्धि, अपराधों की रोकथाम के सभी प्रयासों में असफलता, पारस्परिक विद्वेष एवं अलगाव की वृत्ति जैसी परिस्थितियाँ यही बताती हैं कि भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण के साथ ही अन्तर्ग्रही परिस्थितियाँ भी इन दिनों बड़ी तेजी से बदली हैं। कहा यह भी जा सकता है कि प्रस्तुत विक्षुब्ध वातावरण के निर्माण में विकृत चिन्तन का भी योगदान है। महाकाल के इस बदलते समय में प्रलयंकर स्वरूप को देखते हुए यह चिन्तन सहज ही उभरता है कि क्या यह परमसत्ता अपनी शक्ति से बिना किसी अप्रिय घटनाक्रम को अपने अशुभ को शुभ में नहीं बदल सकती थी?

इन सभी के मूल कारण को समझने के लिए हमें विश्वविधान से जुड़ी व्यापक परिवर्तन प्रक्रिया को भली-भाँति समझना होगा। प्रकृति चक्र में जन्म, अभिवर्धन, जीर्णता और मृत्यु का एक नियत निर्धारित क्रम है। यह न होता तो सब कुछ स्थिर ही रहता। स्थिरता में सुविधा तो है पर नवीनता का सौंदर्य और परिवर्तन का उत्साह एक प्रकार से समाप्त ही हो जाता है। परमेश्वर को परिवर्तन चाहिए एवं जीव सत्ता को भी। आज जो युग परिवर्तन का स्वरूप देखने में आ रहा है, उसमें होने वाली उथल-पुथल में कर्कशता, निर्दयता तो नजर आती है पर वह दुर्गतिजन्य नहीं है। उसके पीछे भी सुखद सम्भावनाएँ निहित हैं।

शरीर जब वृद्ध हो जाता है तो कमर झुकने लगती है, टाँगें लड़खड़ाती हैं, दमा, खाँसी जैसे रोग घर कर लेते हैं। जीव कोशों के मरने का क्रम बढ़ जाता है। जबकि उस अनुपात में युवावस्था में सतत् उनके जन्मते रहने का क्रम होता है। यह प्रक्रिया अनिवार्य है। क्योंकि अवाँछनीय को, कुरूप को हटाना ही एकमात्र उपाय है ताकि नया शरीर जन्म ले सके।

आज की परिस्थितियों में भी कुरूपता, अनुपयोगिता, अनीति, अवाँछनीयता का बेतरह विस्तार हुआ है। भौतिक सुविधाएँ तो बढ़ी हैं, पर उसके साथ जो चेतना का विकास होता था, सत्प्रवृत्तियां बढ़नी थीं, नहीं बढ़ीं। ऐसे में मानव, जो न स्वयं सुखी है, न औरों को सुखी देखना चाहता है, जिसके भविष्य में सुधरने की कोई गुंजाइश भी नहीं नजर आती, को बदलने हेतु एक समग्र ‘ओवरहॉलिंग’ भी जरूरी है। गलाने व ढालने, झाड़ियाँ काटकर सुरम्य उद्यान लगाने की प्रक्रिया में यही होता है। जो भी कुछ कूड़ा, करकट है, बेकार हो गया है, उसे साफ कर कुछ नया बनाया जाय, यही चिन्तन मुख्य है। महाकाल की अनुशासित विधि-व्यवस्था को गलाने वाली एक विशाल भट्टी एवं ढालने वाली मशीन के रूप में समझा जा सकता है। यह क्रिया-कलाप देखने में तो बड़ा वीभत्स, उन्मादियों का किया हुआ लगता है पर है सारा अभिनव और सुखद सृजन के निमित्त ही।

नादान-उदर पूर्णा तक ही अपने को सीमित रखने वाले तो ऐसी परिस्थितियों में भी किसी तरह अपनी ही स्वार्थान्धता तक सिकुड़े नजर आते हैं। लेकिन बुद्धिमत्ता जिनके पास भी है, उन्हें यह स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होती कि ऐसी परिस्थितियाँ क्यों कर विनिर्मित हुईं व इनका समाधान क्या हो सकता है? वे यह भी भली-भाँति जानते हैं कि दुष्कृत्य भले ही एक सीमित समुदाय का हो, परिणति को सभी को भुगतना होगा। यह एक शाश्वत नियम व्यवस्था है, जिसे कड़वा घूँट पीकर ही सही, पर स्वीकार करना ही होगा। अवाँछनीयता के निवारण हेतु ऐसी विध्वंस लीला रचे बिना लक्ष्यपूर्ति सम्भव नहीं। मानवी पुरुषार्थ इसमें दूरदर्शिता का चयन कर उस दिशा में ही नियोजित हो सके तो विध्वंस का परिणाम एवं स्वरूप कम भी हो सकता है। थोड़ा-सा समुदाय भी सदुद्देश्यों में नियोजित साधना-पराक्रम द्वारा इस दुर्गति रूपी परिणति की सम्भावना का मिटा सकता है। परन्तु अदूरदर्शी समुदाय जिसे नरपशु-नरपामर की संगति दी जा सकती है, मात्र प्रताड़ना की ही भाषा समझता है। समझाने का, दूरदर्शिता के चयन के सत्परामर्श का उन पर कोई असर नहीं होता। इन्हें प्रकृति अथवा महाकाल रूपी दैवी अनुशासन फिर लाठी की भाषा से ही ठीक करता है। एक सज्जन एवं करुण हृदय न्यायाधीश को भी परिस्थिति विशेष में फाँसी की सजा सुनानी ही पड़ती है। प्रशासक भले ही निजी जीवन में कितना ही दयालु क्यों न हो, उसे जल्लाद का प्रबन्ध करना ही पड़ता है। इसमें एकमात्र प्रयोजन यह है कि अपराधी को दण्ड तो मिले, पर दूसरों को शिक्षा भी मिले। पशु-प्रवृत्तियों को, चाहे वे व्यष्टिगत हों अथवा समष्टिगत, सदाशयता का महत्व समझाने के लिए दण्ड व्यवस्था का आश्रय लेना ही होगा। इससे कम में कोई विकल्प ही नहीं बनता। आज की सामूहिक प्रताड़ना के पीछे, विक्षुब्ध प्रकृति की ध्वंस लीला के पीछे इसी उद्देश्य को समझा जा सकता है।

आज कृपणता और निष्ठुरता का जैसा प्रचलन है, चिन्तन और चरित्र का जो गिरा हुआ स्तर है, कुकृत्यों की समाज परिकर में जो भरमार है, उनकी सामूहिक प्रतिक्रिया मात्र एक ही परिणति के रूप में दिखाई देती है- विश्व विनाश लगता है मनुष्य ने सामूहिक आत्महत्या का सरंजाम ही जुटा लिया हो और उस विपत्ति से उबर पाने का कोई कारगर उपाय ही नहीं बन पा रहा हो।

जैसे-वैसे औद्योगीकरण बड़ा है, कल-कारखाने व प्रदूषण में भी वृद्धि हुई। समग्र वातावरण, धरती, जल सम्पदा, सूक्ष्म वातावरण विषाक्त होता जा रहा है। मनुष्य हर घड़ी ढेरों मात्रा में विष श्वास व उदर मार्ग से ग्रहण कर रहा है। हिम युग, जल-प्रलय, मौसम परिवर्तन व महामारियाँ इन सबकी परिणति रूप में आसन्न विभीषिकाओं की भाँति सामने खड़ी दिखाई दे रही हैं। अमर्यादित प्रजनन ने जो नये अतिथि इस छोटे से ग्लोब पर एकत्र कर दिए हैं, उनके भरण-पोषण निर्वाह की एक बहुत बड़ी समस्या आ खड़ी हुई है। घटते ग्राम-बढ़ते कस्बे, शहर तथा गन्दी बस्तियाँ निरन्तर बेरोजगारी- दारिद्र्य एवं महामारी को आमन्त्रित कर रहे हैं। संसाधन घटते चले जा रहे हैं, उपभोग कर्त्ताओं की संख्या में कोई कमी नहीं हो रही। जब वे समाप्त ही जाएँगे तब के दृश्य की कल्पना से ही जी दहल उठता है। शोषण और अहमन्यता की वृत्ति चरम सीमा पर है। अलगाव-वृत्ति, प्राँतीयवाद, ऊँच-नीच, राष्ट्रों की परस्पर खींचतान ने कहीं गृह-युद्ध एवं कहीं शीतयुद्ध की स्थिति पैदा कर दी है। अणु आयुधों के प्रयोग से- विकिरण विभीषिका ने कितना नरसंहार होगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। तब सम्भवतः आइन्स्टीन की वह उक्ति साकार नजर आएगी कि “तीसरा विश्वयुद्ध अणुशक्ति से तथा अन्तिम आदि मानवों के मध्य पत्थरों से लड़ा जाएगा।” ऐसी स्थिति के पूर्व की बेला को ही युग सन्धि काल कहा गया है।

युग सन्धि बेला की तुलना प्रसव पीड़ा से की जा सकती है। इस उपक्रम में मरणातक कष्ट और रक्तपात का रोमाँच भरा घटनाक्रम घटित होता है। परन्तु साथ-साथ नवजात शिशु के आगमन से बनती दूरगामी सम्भावना से हृदय में हिलोरें भी उठती हैं। बालक के पोषण वस्त्रादि की योजनाएँ बनतीं और तैयारी चलती हैं। पीड़ा और प्रसन्नता का जैसा समन्वय उस प्रसवकाल में देखा जाता है। लगभग वैसा ही हमें आगामी 16-17 वर्षों में देखने को मिल सकता है।

ऐसी स्थिति में सज्जन भी दुर्जनों के साथ उस चपेट में आये बिना नहीं रह सकते। जब रोगाणुओं को नष्ट करने के लिये औषधि ली जाती है। तो वह जीवाणु-विषाणुओं के अतिरिक्त स्वस्थ जीवकोषों व रक्तकणों को प्रभावित करती है। उथल-पुथल के इस समय में गेहूँ व घुन के साथ-साथ पिसने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। दण्ड व्यवस्था की- विनाश लीला की चपेट में निर्दोष दीखने वालों के भी आ जाने का एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि वे भी उस समष्टिगत सत्ता के एक घटक हैं। उनकी यह जिम्मेदारी है कि वे जितना ध्यान अपनी निजी सुविधा को बढ़ाने में लगाते हैं, उतना ही माली की तरह इस विश्व उद्यान को भी सजाने-बुहारने में लगाएँ। मात्र गुण्डागर्दी ही अपराध नहीं, लापरवाही गैरजिम्मेदारी, इक्कड़पन भी एक अपराध है। दण्ड उसे भी मिलना चाहिए। अपराधी क्षेत्र के निवासियों पर सामूहिक जुर्माने भी किये जाते हैं। भले ही उन्होंने कोई अपराध न किया हो पर मूक दर्शक की तरह देखा कैसे? यह भी एक अपराध है। नागरिक कर्त्तव्यों में उपेक्षा बरतना भी प्रकारान्तर से स्वयं को अपराधी की श्रेणी में ला खड़ा करना है।

संसार में विपन्नता का बढ़ना एक प्रकार से आपत्तिकाल है। ऐसे में युग धर्म निबाहा ही जाना चाहिए। प्रज्ञा पुरश्चरण की महत्ता को एक प्रकार से अवाँछनीयता के निवारण हेतु विभीषिकाओं से जूझने हेतु आत्मबल-वर्धन की सामूहिक साधना रूपी पराक्रम के रूप में समझा जा सकता है। समूह रक्षा हर व्यक्ति की विशेष जिम्मेदारी है। इसे टाला नहीं जा सकता।

सृष्टि के इतिहास में ऐसी स्थिति पहले नहीं आई। ऐसी बात नहीं। जब-जब ऐसी विभीषिकाएँ प्रस्तुत हुई हैं, उन्हें सद्भावना की सामूहिक शक्ति ने ही निरस्त किया है। प्रकारान्तर से इस संघशक्ति को ही अवतार कहते हैं जो समय काल के अनुसार छोटे अथवा बड़े रूप में प्रकट होती रहती हैं। जो-जो सहायता के लिये आगे आता है, सदाशयता को बढ़ाता है, वह स्वयं भी धन्य होता है, अनेकों की नाव पार लगाता है। कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों हमारे ही सम्मुख है, जिसे आँख मूँदकर नकारा नहीं जा सकता। कोई बहुत ही निष्ठुर स्वार्थी व्यक्ति हो तो बात अलग है। जिसके अन्दर थोड़ी सी भी शालीनता होगी, वह इस विषम-बेला को समझकर आचरण बदल कर ही रहेगा।


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